विकास गुप्ता
सामयिक समस्याओं का स्वरूप समझ लेने के उपरांत उपचार सरल होना चाहिये। रोग का सही निदान
हो जाने पर चिकित्सा की आधे से अधिक कठिनाई हल हो जाती है। इन दिनों रुग्णता, उद्विग्नता,
गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, अव्यवस्था, निष्ठुरता के आधार पर पनपने वाली अनेकानेक कठिनाइयों के
घटाटोप छाए हुए हैं।
विकृतियां और विपन्नताएं:- विकृतियों और विपन्नताओं के आकार प्रकार अनेक हैं, पर उनका मूलभूत
कारण एक है- आदर्शों के प्रति अनास्था। घटाएं बरसाती हैं, तो जल जंगल एक होते हैं, पर पावस के
समाप्त होते ही न नाले इतराते हैं, न कीचड़ में पैर सनते हैं। जिन्हें दुश्यमान घटना ही सब कुछ दिखती
है और तात्कालिक उपचार की लीपा-पोती ही पर्याप्त लगती है, उनसे इतना ही कहा जा सकता है कि
व्याप्त दुर्गंध का निराकरण सुगंध बिखेरने से नहीं, हटाने पर ही संभव हो सकेगा। कारणों के रहते कार्य
होते ही रहेंगे। विषवृक्ष के कांटे जिस तिस के पैर में चुभते ही रहेंगे। स्थिर समाधान अभीष्ट हो, तो
उसकी जड़ काटनी चाहिए। विग्रही माहौल से सचमुच ही बचे रहने का मन हो तो थोड़ी गहराई में उतरना
चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि चोर पकड़ने में सिर खपाने के साथ-साथ वह निमित कारण भी
मिटें, जिसके कारण चोरी होती है और करने वालों की घात लगती है।
सतयुग की एक ही विशेषता थी कि लोगों का दृष्टिकोण आदर्शों से अनुप्राणित होता था। तब लोग स्वल्प
साधनों में हंसती-हंसती जिंदगी जीते थे। आज निकृष्टता को मान्यता मिली है। हर व्यक्ति संकीर्ण
स्वार्थपरता की परिधि में सोचता है और कितनों को ही कितनी हानि पहुंचाकर अपना उल्लू सीधा करता
है। यही है वह भौतिक अंतर जिसके कारण मनुष्य को स्वर्ग से बिछुड़ कर नरक के गर्त में गिरना पड़ा
है। स्थिति यदि असहनीय बन गयी हो और परिवर्तन की आवश्यकता सचमुच ही प्रतीत होती हो तो
कारण को समझना और तदनुरूप समाधान खोजना होगा अन्यथा दिशा भ्रम के रहते भटकाव में समय
गंवाते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने की संभावना नहीं है मृगतृष्णा में भटकने वाले कस्तूरी
मृगों को थकान, निराश और खीज के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगता भी कहां है? लाभ को हानि और
हानि को लाभ समझने वाली अदूरदर्शिता जब उगती है, तो उसकी जड़ें भी बहुत गहराई तक घुसती चली
जाती हैं।
दोष क्रियाकलापों की अवांछनीयता तक सीमित नहीं रहता, वरन् परतें कुरेदने पर प्रतीत होता है कि
सड़न गहराई तक घुसी हुई है और मवाद से समूचा चिंतन ही भर गया है। विकृतियों के बिना क्रिया क्षेत्र
में दुष्प्रवृत्ति पनपने की संभावना बनती ही नहीं। पहले दुर्बुध्दि पनपती है, इसके उपरांत ही कुकर्मों का
सिलसिला चलता है। कुकर्म ही व्यक्ति को पतन के गर्त में गिरते और अनेकानेक विपत्तियों के कारण
बनते हैं। संव्याप्त विपन्नता, उसकी जड़ में कुकर्मों की दुष्टता और चिंतन की भ्रष्टता का पता लगाने के
उपरांत तथ्य तक पहुंचने के लिये एक डुबकी और लगानी पड़ती है कि अंतराल की गहराई में आसुरी
तत्वदर्शन को कितना स्थान मिला और वह क्षेत्र किस स्तर तक निकृष्ट मान्यताओं का पक्षधर बना है?
परिवर्तन की सही जगह यही है।
विनाश का वातावरण:- यदि विनाश के वातावरण से निपटना हो तो उसके आधारभूत कारण, व्यवहार क्षेत्र
की दुष्टता चिंतन क्षेत्र की भ्रष्टता के साथ-साथ इस मर्म स्थल पर भी चोट मारनी होगी, जिसे
मान्यताओं, भावनाओं का क्षेत्र कहते हैं, जहां तक कि मात्र तत्वदर्शन के पहुंचने और प्रभावित करने की
क्षमता ही कुछ कर सकने में समर्थ होती है। समझा जाना चाहिये कि आस्था संकट ही युग विग्रह का
प्रधान ही नहीं एकमात्र कारण भी है। संक्षेप में धर्म और अध्यात्म ही वह आधार है, जिनके सहारे आस्था
क्षेत्र की अवांछनीयता, असुरता का निवारण संभव है। उत्कृष्टता की स्थापना और देवत्व की प्रतिष्ठा के
लिये भी उसी का आश्रय लेना पड़ेगा, इस कथन प्रतिपादन का एक शब्द में तात्पर्य समझना हो तो इतने
भर से काम चल जाएगा कि युग समस्याओं के चिरस्थाई समाधान में अध्यात्म और धर्म के सहारे ही
युग परिवर्तन के लक्ष्य तक पहुंच सकना संभव हो सकेगा।
धर्म की स्थिति:- धर्म की स्थिति भी आज ऐसी ही है। भ्रांतियों, विकृतियों, विडंबनाओं और निहित स्वार्थों
ने उसे कितना ही विद्रुप क्यों न कर दिया हो, अपने मूल स्वरूप में वह अपनी असाधारण क्षमता से
संपन्न है और यदि अवसर मिले तो अपने प्रभाव क्षेत्र में अतीत की भांति अब भी चमत्कारी परिवर्तन
उत्पन्न कर सकता है। भौतिक क्षेत्र की व्यवस्था बनाने में राजतंत्र की समर्थता सर्वविदित है। साथ ही
यह भी समझा जाना चाहिए कि चेतना के क्षेत्र का परिशोधन, परिष्कार कर सकने की क्षमता आध्यात्म
विज्ञान के अतिरिक्त और किसी में है नहीं। आस्थाओं के गहन अंतराल तक उसी की पहुंच है। भावनाओं,
संवेदानाओं को प्रभावित करने, मान्यताओं को उलटने और आकांक्षाओं को बदलने में आध्यात्मवादी
तत्वदर्शन ही कारगर सिध्द होता है।
जानकारी को बढ़ाने, बदलने में तो स्कूली पढ़ाई और परामर्श अनुभव के सहारे भी काम चल जाता है, पर
जहां मान्यताओं का स्तर ऊंचा उठाने की आवश्यकता पड़ती है, वहां कथन-श्रवण भर से काम नहीं
चलता। इसके लिये पैना नश्तर चाहिए जो गहराई तक प्रवेश करके ग्रंथियों की जड़ उखाड़ सके। यह कार्य
भाव संवेदानाओं को आंदोलित कर सकने वाला धर्म ही कर सकता है। जब धर्म अपनी प्रखरता संजोए
हुए था, तब उसने इसी धरित्री को स्वर्गदपि गरीयसी बनाया था। जब उसका प्रवेश श्रध्दा, प्रज्ञा और
निष्ठा के उद्गम स्रोतों तक होता था, तब साधनों की अपेक्षाकृत कमी रहने पर भी यहां तैंतीस कोटि
देवता निवास करते थे। अतीत के सतयुगी वातावरण का स्रेय तत्कालीन शासन सत्ता और अर्थ बहुलता
को भी नहीं मिलता। उस स्वर्णिम युग में उच्चस्तरीय आस्थाएं ही मनुष्य को उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श
कर्तृव्य अपनाने के लिये प्रेरित करती थीं और शालीनता का पक्षधर जन समुदाय ऐसी गतिविधियां
अपनाता था, जिसमें शांति, प्रगति और सुव्यवस्था का हंसता-हंसाता वातावरण बिखरा रहे। खोये अतीत
को वापस बुलाने और प्रस्तुत समस्याओं को निरस्त करने के लिये इन दिनों भी धर्म धारणा का ही
आश्रय लेना पड़ेगा।