मनदीप जैन
नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने दूध में मिलावट के आरोपी व्यक्ति की
न्यूनतम सजा माफ करने का निर्देश देने से इन्कार करते हुए कहा है कि दंड विधान संहिता
(सीआरपीसी) की धारा 433 के तहत राज्य सरकार को मिले सजा माफी के अधिकार का न्यायालय
अतिक्रमण नहीं कर सकता।
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने अपीलकर्ता राजकुमार की दलीलों
को खारिज करते हुए शुक्रवार को कहा कि खाद्य सामग्रियों के लिए विधायिका ने एक बार जो मानक
तय कर दिया, उसका अनुपालन किया जाना चाहिए। पीठ ने उत्तर प्रदेश के याचिकाकर्ता की न्यूनतम
सजा बरकरार रखते हुए कहा कि यदि खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम के तहत तय मानकों का
पालन नहीं किया जाता तो आरोपी को इस आधार पर बरी नहीं किया जा सकता कि मिलावट मामूली
थी।
याचिकाकर्ता ने ‘संतोष कुमार बनाम नगर निगम’ मामले में दिये गये फैसले को आधार बनाकर पीठ से
आग्रह किया था कि वह सीआरपीसी की धारा 433 के तहत सजा कम करने का राज्य सरकार को आदेश
दे। पीठ ने इस दलील को यह कहते हुए खारिज कर दिया, “सीआरपीसी की धारा 433 के अवलोकन से
पता चलता है कि इस धारा में प्रदत्त शक्तियों का इस्तेमाल राज्य सरकार ही कर सकती है। इन
अधिकारों का अतिक्रमण न तो शीर्ष अदालत कर सकती है, न कोई और अदालत। न्यायालय राज्य
सरकार की शक्तियों को छीन नहीं सकता और उसे इस मामले में आदेश पर अमल के लिए नहीं कहा
जा सकता। इसलिए हम ऐसा कोई आदेश पारित करने के पक्ष में नहीं हैं जो इस अदालत के अधिकार
क्षेत्र से बाहर हो।”
गौरतलब है कि आरोपी ने यह दलील दी थी कि यदि तय मानक की तुलना में मामूली मिलावट हो तो
अदालत की ओर से आरोपी को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए। आरोपी के यहां से संग्रहीत दूध के
नमूने में 4.6 प्रतिशत मिल्क फैट और 7.7 प्रतिशत मिल्क सॉलिड नॉन-फैट पाया गया था, जो तय
मानक के तहत 8.5 प्रतिशत होना चाहिए था। निचली अदालत ने आरोपी को दोषी ठहराया था, जिसे
सत्र अदालत एवं इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था।
पीठ की ओर से न्यायमूर्ति गुप्ता ने 12 पृष्ठों का फैसला सुनाते हुए कहा, “इस मामले में यह निर्धारण
करना है कि क्या खाद्य सामग्री में तय मानकों का अनुपालन किया गया था या नहीं? यदि मानकों का
अनुपालन नहीं किया गया तो इसे मिलावटी सामग्री की श्रेणी में रखा जायेगा, भले ही यह स्वास्थ्य के
लिए हानिकारक न हो। तय मानकों में मामूली अंतर की भी अनदेखी नहीं की जा सकती।”
यह घटना 20 साल से भी अधिक पुरानी है और इसे आधार बनाकर अदालत के समक्ष संविधान के
अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त अधिकारों के इस्तेमाल का भी आग्रह किया गया था। पीठ ने यह कहते हुए
इस दलील को खारिज कर दिया, “हमारा सुस्पष्ट मत है कि अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का
इस्तेमाल किसी कानून के खास प्रावधान के खिलाफ नहीं किया जा सकता है। खाद्य अपमिश्रण निवारण
कानून की धारा 16(एक)(ए) में छह माह की सजा का प्रावधान है। मिलावट के अभिशाप, नागरिकों के
स्वास्थ्य (खासकर, जब बात बच्चों के दूध की हो) पर मिलावट और अपमिश्रित खाद्य पदार्थों के
दुष्प्रभावों पर विचार करते हुए विधायिका ने छह माह की सजा के प्रावधान किये हैं। समय बीत जाने को
आधार बनाकर न्यूनतम सजा में कमी का आदेश नहीं दिया जा सकता।”
पीठ ने कहा, “हमारा मानना है कि न्यूनतम सजा माफी के लिए अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करना
इसके उद्देश्य के खिलाफ है। हमें इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि अनुच्छेद 142 को इस तरह
इस्तेमाल नहीं किया जा सकता कि यह कानून का मजाक बनकर रह जाये।”