-सिद्धार्थ शंकर-
अग्निपथ योजना पर देश के कई हिस्सों में भारी बवाल मचा है। इसमें ट्रेनों को सबसे ज्यादा निशाना बनाया गया।
इससे रेलवे की संपत्ति और यात्रियों के रिफंड को मिलाकर कुल एक हजार करोड़ से ज्यादा के नुकसान की आशंका
है। यही नहीं, 12 लाख लोगों को यात्रा रद्द करनी पड़ी। 922 मेल एक्सप्रेस ट्रेनें रद्द हुईं। 120 मेल ट्रेनें आंशिक
रूप से रद्द हुईं। डेढ़ लाख यात्रियों को बीच रास्ते में ट्रेन छोडऩी पड़ी। करीब 70 करोड़ रुपए का यात्रियों को रिफंड
दिया गया। पूर्व मध्य रेल जोन को 241 करोड़ रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ। जिस सार्वजनिक संपत्ति को
प्रदर्शनकारियों द्वारा अंधाधुंध निशाना बनाया जा रहा है, उसमें करोड़ों करदाताओं की गाढ़ी कमाई लगी हुई है। मेल
एक्सप्रेस 24 कोच की होती है। इंजन 12 करोड़ रुपए का है। एसी कोच ढाई करोड़, स्लीपर जनरल कोच 2 करोड़
रुपए का होता है। एक ट्रेन 30 करोड़ रुपए की पड़ती है। विरोध में 21 ट्रेनें अलग-अलग जगह जलाई गईं। सेना के
तीनों अंगों में भर्ती के लिए लाई गई अग्निपथ योजना के विरोध में देश के विभिन्न हिस्सों में जैसी भीषण और
राष्ट्रघाती अराजकता हो रही है, वह न केवल चिंताजनक है, बल्कि शर्मनाक भी। यह अकल्पनीय है कि जो युवा
सेना में जाकर देश की सेवा करने के आकांक्षी हैं, वे ट्रेनों एवं बसों को जला रहे हैं, पुलिस चौकियों पर हमले कर
रहे हैं और अन्य सरकारी तथा गैर सरकारी संपत्ति को ऐसे नष्ट कर रहे हैं, जैसे वह शत्रु देश की हो। ऐसा लगता है
कि सड़कों पर उतरकर अराजकता का परिचय दे रहे युवा मानसिक रूप से उसी दौर में जी रहे हैं, जब देश अंग्रेजों
के अधीन था और स्वतंत्रता आंदोलन के तहत अंग्रेजी सत्ता की संपत्ति को निशाना बनाया जाता था। क्या सड़कों पर
उत्पात मचा रहे युवा यह नहीं जानते कि वे अपनी अराजक हरकतों और हिंसक व्यवहार से राष्ट्र की संपत्ति के
साथ-साथ आम लोगों का भी नुकसान कर रहे हैं? आखिर इस नुकसान की भरपाई जनता के पैसे से ही तो होगी।
लगता है कि उपद्रवी तत्व यह जानने-समझने को तैयार नहीं कि वे सरकारी संपत्ति को नष्ट करके करदाताओं की
गाढ़ी कमाई बर्बाद कर रहे हैं। कहीं उनकी बेपरवाही का कारण यह तो नहीं कि वे न तो टैक्स देते हैं और न ही
यह समझते हैं कि लोगों के टैक्स से ही देश चलता है? यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सरकारी संपदा को
स्वाहा कर रहे युवा न तो संयम का परिचय देना जानते हैं और न ही विवेक का। आखिर ऐसे उत्पाती युवाओं को
सेना में क्यों शामिल होने देना चाहिए? वे जिस तरह पेंशन की चिंता कर रहे हैं, उससे देश सेवा के उनके जज्बे पर
प्रश्नचिह्न ही लगता है। आवश्यक केवल यह नहीं है कि उत्पात मचा रहे युवाओं से सख्ती से निपटा जाए, बल्कि
यह भी है कि सरकारी अथवा निजी संपत्ति को जो नुकसान पहुंचाया जा रहा है, उसकी भरपाई भी उनसे की जाए।
उन्हें उकसा रहे तत्वों के खिलाफ भी सख्ती बरतनी होगी, क्योंकि यह साफ दिख रहा है कि कुछ स्वार्थी तत्व उन्हें
भड़का रहे हैं। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि रेलवे ऐसे नियम बनाने जा रहा है, जिससे उसकी संपत्ति नष्ट
करने वालों को जवाबदेह बनाया जा सके। इस तरह के कुछ नियम पहले से बने हुए हैं, लेकिन उन पर सही तरह
से अमल नहीं हो रहा है। वास्तव में इसी कारण विरोध के बहाने अराजकता बढ़ती जा रही है। इस अराजकता से
सख्ती से नहीं निपटा गया तो आगे भी ऐसा होता दिखेगा। कुछ वर्षों से देश में नागरिक अधिकारों व प्रजातंत्र के
नाम पर ऐसे व्यवहार का प्रदर्शन किया जाने लगा है कि एकबारगी यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि इसे
राष्ट्रहित कहें या फिर राष्टद्रोह। देखा जाए तो शुरुआती दौर में सरकारी संपत्ति के नुकसान का श्रेय भी हमारी
राजनीतिक संस्कृति को ही जाता है। तब इसे इतनी गंभीरता से नही लिया गया। लेकिन धीरे धीरे इसे अपने विरोध
का एक कारगर तरीका ही बना दिया गया। आज स्थिति यह है कि किसी मुहल्ले मे बिजली की परेशानी हो या
फिर पानी की समस्या, देखते देखते लोग सड़क जाम कर धरना-प्रदर्शन शुरू कर देते हैं। पुलिस के थोड़ा भी बल
प्रयोग या विरोध से यह प्रदर्शन आगजनी व तोडफ़ोड़ के हिंसक प्रदर्शन में बदल जाता है। सब कुछ शांत हो जाने
पर इस भीडतंत्र का कुछ नहीं बिगड़ता। मगर लाखों-करोड़ों रुपए का नुकसान देश को भोगना पड़ता है।