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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्षी एकजुटता के लिए कांग्रेस की पहल का आग्रह किया है।
उनका दावा है कि यदि 2024 में भाजपा बनाम विपक्ष का साझा उम्मीदवार के आधार पर चुनाव
लड़ा जाता है, तो भाजपा 100 सीटों तक सिमट सकती है। नीतीश के इस बड़बोले चुनावी गणित का
आधार क्या है, हम नहीं जानते, लेकिन कांग्रेस बखूबी जानती है कि ऐसी खुशफहमी नहीं पालनी
चाहिए। बहरहाल कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता जयराम रमेश ने नीतीश के आग्रह और अपील का स्वागत
किया है, लेकिन बिना नाम लिए यह तंज भी कसा है कि कुछ लोग विपक्ष की बैठकों में भाग लेते
हैं, विपक्षी एकता के सरोकार भी लगातार जताते रहे हैं, लेकिन वे सत्ता-पक्ष की गोद में भी बैठते रहे
हैं। कमोबेश कांग्रेस की राजनीति ऐसी दोगली नहीं है। कांग्रेस हमेशा भाजपा का वैचारिक विरोध
करती रही है।
विपक्षी गठबंधन पर कांग्रेस अपने रायपुर राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान विमर्श करेगी और फिर कोई
रणनीति तय करेगी। जयराम रमेश ने नीतीश ही नहीं, सभी विपक्षी दलों को यह जरूर स्पष्ट कर
दिया है कि कांग्रेस के बिना कोई भी विपक्षी एकता सफल नहीं हो सकती, लिहाजा विपक्ष को कांग्रेस
की छतरी तले ही एकजुट होना है। बहरहाल यह नीतीश कुमार और कांग्रेस के बीच का संवाद है, जो
विपक्षी एकता की एक हूक भर हो सकती है। विपक्ष का विस्तार काफी व्यापक है। दरअसल पहले जो
तीसरा मोर्चा बनता था, वह कांग्रेसी समर्थन पर ही जि़ंदा रहता था। कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया
और सरकार धड़ाम हुई। अलबत्ता उन मोर्चों की राजनीति कमोबेश संकल्प और देशहित के इर्द-गिर्द
की होती थी। आज जो विपक्षी मोर्चा आकार ग्रहण कर सकता है, वह संपूर्ण लामबंदी नहीं होगा।
राष्ट्रीय मोर्चा भी नहीं होगा। राज्यों के स्तर पर, सुविधा के मुताबिक, गठबंधन किए जा सकते हैं।
राष्ट्रीय मोर्चा की संभावनाएं इसलिए क्षीण हैं, क्योंकि विपक्ष के भीतर ही विपक्ष मौजूद है। हालिया
त्रिपुरा चुनाव का ही उदाहरण लें, तो एक तरफ वामदल और कांग्रेस का गठबंधन था, तो उनके
विरोध में तृणमूल कांग्रेस ‘चुनावी समर’ में रही। इसके समानांतर केरल में वाममोर्चा और कांग्रेसी
मोर्चा आमने-सामने होंगे। आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, बंगाल आदि राज्यों में विपक्षी एकता की
दिशा और दशा ही भिन्न है। वहां कई नेता प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाएं पाले हुए हैं। यह दीगर
है कि उनके राज्यों के बाहर उनकी स्वीकृति ‘शून्य’ सी है। अब केजरीवाल की आम आदमी पार्टी
(आप) मप्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्नाटक और मिज़ोरम राज्यों में सभी सीटों पर चुनाव लडऩे की
रणनीति पर काम कर रही है। यह राजनीति कांग्रेस और नीतीश के विपक्षी इरादों के बिल्कुल विपरीत
है। दरअसल विपक्षी एकता के बयान तो खूब आते रहे हैं, लेकिन प्रयास नहीं किए जा पा रहे हैं,
जबकि आम चुनाव करीब 15 माह दूर ही हैं। चुनाव की दृष्टि से यह बहुत समय नहीं है। कांग्रेस देश
भर में ‘हाथ से हाथ’ जोडऩे के दिवास्वप्नों में ही डूबी है। उसे लगता है कि राहुल गांधी की यात्रा का
प्रभाव और प्रयोग बेहद सफल रहा है, जबकि यथार्थ यह है कि उसके सामने प्रधानमंत्री मोदी की
अकाट्य चुनौती है और संगठित तथा प्रशिक्षित काडर वाली भाजपा का मुकाबला करने में बिखरी
कांग्रेस को अभी न जाने कितना वक़्त लगेगा! चुनावी यथार्थ यह भी है कि देश के 17 राज्यों में
कांग्रेस का एक भी सांसद नहीं है। उप्र में 2 ही विधायक हैं और सांसद सोनिया गांधी ही हैं। ऐसे में
सपा-बसपा के साथ गठबंधन कैसे होगा?