नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट में आंतरिक मतभेद कोई नई बात नहीं है, लेकिन माना जा रहा है कि हाल ही में हुए दो मामलों के बाद तकरार बढ़ी। मतभेद खुलकर सामने आते दिखाई दिए। इन दो मामलों में सबसे अहम जजों के नाम पर रिश्वतखोरी का मामला और दूसरा सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस की जांच कर रहे जज लोया की रहस्यमयी मौत का है।
जजों के नाम पर रिश्वतखोरी
गत 10 नवंबर को जस्टिस जे. चेलमेश्वर की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय पीठ ने जजों के नाम पर रिश्वतखोरी के केस की एसआईटी से जांच की मांग वाली वकील कामिनी जायसवाल की याचिका की पांच वरिष्ठ न्यायाधीशों की संविधान पीठ में सुनवाई का आदेश दे दिया था। उस दिन दोपहर से पहले सुनवाई में जस्टिस चेल्मेश्वर ने यह आदेश दे दिया था लेकिन उसी दिन तीन बजे प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने पांच न्यायाधीशों की पीठ गठित करके चेलमेश्वर की पीठ का आदेश रद्द कर दिया। उन्होंने हमेशा के लिए यह व्यवस्था दे दी कि कोई भी न्यायाधीश स्वयं से अपने सामने कोई मामला सुनवाई के लिए नहीं लगाएगा।
कौन-सा मामला कौन-सी पीठ सुनेगी यह तय करने का अधिकार सिर्फ प्रधान न्यायाधीश को है और वे ही इसे तय करेंगे। बाद में कामिनी जायसवाल की वह याचिका तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए लगी और उस पीठ ने कारण सहित विस्तृत फैसला सुनाते हुए उसे खारिज कर दिया था।
इसी तरह की एक याचिका गैर सरकारी संगठन की ओर से प्रशांत भूषण ने भी दाखिल की थी। भूषण ने मामले पर बहस करते हुए कहा था कि ओडिशा के मेडिकल कॉलेज से जुड़े इस मामले पर प्रधान न्यायाधीश को सुनवाई नहीं करनी चाहिए क्योंकि मेडिकल कॉलेज के जिस केस की बात हो रही है उसकी सुनवाई पहले प्रधान न्यायाधीश की पीठ ने ही की थी। हालांकि ये दलीलें खारिज हो गईं थीं।
यह है बड़ा पेंच
जजों के नाम पर रिश्वतखोरी के केस की सुनवाई को लेकर उठे विवाद के बाद प्रधान न्यायाधीश ने एक बड़ा बदलाव और किया जिसमें किसी भी नए केस की मेंशनिंग सिर्फ प्रधान न्यायाधीश के सामने ही किए जाने का प्रशासनिक आदेश जारी हुआ। बात ये है कि प्रधान न्यायाधीश के संविधानपीठ में बैठे होने पर नए मामलों की मेंशनिंग दूसरे नंबर के वरिष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष होती थी और इसीलिए कामिनी जायसवाल ने अपनी याचिका की मेंशनिंग जस्टिस चेलमेश्वर की कोर्ट मे की थी जिस पर उन्होंने 10 नवंबर का आदेश दिया था।
जज लोया की रहस्यमय मौत
शुक्रवार का ताजा मामला मुंबई के विशेष सीबीआई जज बीएच लोया की रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत की जांच की मांग वाली याचिका पर सुनवाई से जुड़ा था। मीडिया ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे न्यायाधीशों से पूछा कि क्या जस्टिस लोया का भी मामला था तो उन्होंने सहमति में सिर हिलाया। जिसका मतलब निकलता है कि ताजा विवाद जस्टिस लोया के केस की सुनवाई को लेकर हुआ।
जजों के आचरण पर संदेह के कुछ बड़े मामले ये भी
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक केसों के निपटारे में विलंब, जजों की कमी, जटिल प्रक्रिया के कारण देश में न्यायिक भ्रष्टाचार व्याप्त है। ये सब स्थितियां नए नियमों की अधिकता के कारण बिगड़ी हैं। इनमें सबसे गंभीर बात यह है कि शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के आचरण पर भी सवालिया निशान खड़े हुए हैं।
ऐसे कुछ महत्वपूर्ण मामलों पर एक नजर :
1. प्रशांत भूषण के आरोप
2009 में प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने एक साक्षात्कार में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के पिछले 16 मुख्य न्यायाधीश में से आधे भ्रष्ट थे। सुप्रीम कोर्ट ने इसके खिलाफ उनको अवमानना का नोटिस दिया। उन्होंने जवाबी हलफनामा देते हुए कहा कि वे अपने बयान पर कायम हैं। सितंबर, 2010 में पूरक हलफनामा में उन्होंने अपने पक्ष में सबूत भी कोर्ट के समक्ष पेश किए। नवंबर, 2010 में पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने भी प्रशांत भूषण से सहमति जताई।
उन्होंने कहा, “मेरा दृढ़ विश्र्वास है कि न्यायपालिका में व्यापक भ्रष्टाचार है। मैं भी वही कह रहा हूं जो प्रशांत भूषण ने कहा है। माफी मांगने का सवाल ही नहीं पैदा होता। इसके बजाय मैं जेल जाना पसंद करूंगा”।
2. जस्टिस जेएस वर्मा की बात
2 जून, 2011 में सुप्रीम कोर्ट के सम्मानित पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा ने कहा, “उच्च न्यायपालिका में संदिग्ध निष्ठा वाले कुछ व्यक्ति पहुंच गए हैं।” उन्होंने जस्टिस एमएम पुंछी केस का हवाला देते हुए कहा कि उनके खिलाफ महाभियोग की मांग के चलते न्यायपालिका में जवाबदेही के लिए अभियान चला। जस्टिस वर्मा ने कहा कि वह उनके खिलाफ आरोपों के जांच की अनुमति देना चाहते थे लेकिन राजनीतिक कार्यपालिका ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। चूंकि उनके खिलाफ आरोप गंभीर थे इसलिए उनकी जांच होनी चाहिए थी ताकि पता चलता कि वे सच या झूठ थे।
उन गंभीर आरोपों के बावजूद जस्टिस पुंछी बाद में देश के मुख्य न्यायाधीश बन गए। इसी तरह पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बने रहने पर भी सवाल खड़े किए। जस्टिस वर्मा के मुताबिक बालकृष्णन को काफी पहले ऑफिस छोड़ देना चाहिए था और यदि वह स्वेच्छा से ऐसा नहीं करते तो सरकार को उन्हें इसके लिए तैयार करना चाहिए था। इसके बावजूद भी वह पद नहीं छोड़ते तो किसी भी तरह उनको हटाया जाना चाहिए था।
3.जस्टिस रूमा पाल ने बताई 7 बुराइयां
3 नवंबर, 2011 में सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज रूमा पाल ने यहां व्याप्त सात बुराइयों का जिक्र किया था।
– सहयोगी के विवेकहीन आचरण की तरफ से आंख मूंद लेना।
– न्यायिक स्वतंत्रता के मानक का पूर्ण विकृतिकरण।
– जजों की नियुक्ति से लेकर सभी पहलुओं में पारदर्शिता का अभाव।
– सुप्रीम कोर्ट के जज अक्सर अपने निर्णय में पूर्ववर्तियों के निर्णयों के पूरे के पूरे पैराग्राफ को उठा लेते हैं और बेहद उबाऊ भाषा का प्रयोग करते हैं।
– अपनी अनुशासनहीनता और नियम
– कायदों के उल्लंघन को ढकने के लिए उच्च न्यायपालिका द्वारा सर्वोच्चता और स्वतंत्रता का दावा।
– कई जजों में इतना अहंकार होता है कि अहम मसलों पर निर्णय देने से पहले होम वर्क ही नहीं करते। वे पहले की मिसाल या न्यायिक सिद्धांत को भी नजरअंदाज करते हैं।
– भाई-भतीजावाद का आरोप
पूर्व में कब-कब उठी अंगुली…
1. गाजियाबाद पीएफ घोटाला
फरवरी, 2008 में तत्कालीन जिला जज रमा जैन ने 82 लोगों के खिलाफ गाजियाबाद कोषागार से गैरकानूनी रूप से रकम निकालने के आरोप में एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया। इन लोगों पर 2001 से 2007 के दौरान कोषागार से सात करोड़ रुपए निकालने का आरोप था। बाद में जिला अदालत के प्रशासनिक अधिकारी आशुतोष अस्थाना ने कबूल किया कि इस रकम से 36 जज लाभांवित हुए थे। मामले में आरोपी अस्थाना ने बताया कि इन जजों में एक सुप्रीम कोर्ट से, 11 इलाहाबाद और उत्तराखंड हाई कोर्ट से और 24 उत्तर प्रदेश की विभिन्ना जिला अदालतों से जुड़े थे।
यह पहला ऐसा मामला है जब देश के प्रधान न्यायाधीश ने सीबीआई को यह अनुमति दी कि वह मामले में नाम आए जजों से पूछताछ कर सके।
2. जस्टिस एम भट्टाचार्य
बांबे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को 1995 में इस्तीफा देना पड़ा। इन पर आरोप लगे कि इन्होंने पश्चिम एशिया के एक प्रकाशक से रॉयल्टी के रूप में 80 हजार डॉलर की भारी-भरकम राशि प्राप्त की।
3. जस्टिस अरुण मदान
21 मार्च, 2003 को राजस्थान हाई कोर्ट से इस्तीफा देना पड़ा। भ्रष्टाचार के एक मामले में जजों की समिति ने आरोपों को सही पाया। इसके अलावा एक महिला डॉक्टर के यौन उत्पीड़न के भी आरोप इन पर लगे थे।
4. जस्टिस शमित मुखर्जी
दिल्ली हाई कोर्ट के जज रहे शमित मुखर्जी को 31 मार्च, 2003 को इस्तीफा देना पड़ा। करोड़ों रुपए के डीडीए घोटाले में शुरूहुई सीबीआई जांच में इनका नाम आया था।
5. जस्टिस सौमित्र सेन
कोलकाता हाई कोर्ट के जज थे। अगस्त, 2008 को मुख्य न्यायाधीश ने इनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव की सिफारिश की। हालांकि महाभियोग प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही इन्होंने इस्तीफा दे दिया था।
6. जस्टिस वी रामास्वामी
1993 में सुप्रीम कोर्ट के जज थे। यही एकमात्र ऐसे जज हैं जिनके खिलाफ संसद में महाभियोग प्रस्ताव पूरा हुआ। हालांकि कांग्रेस ने इनके खिलाफ वोट न करके इन्हें बचा लिया लेकिन इसके बाद फिर ये फिर कभी अदालत में नहीं बैठे। घर पर ही बैठकर इन्होंने सेवानिवृत्ति ली।