-पूरन सरमा-
दंगा हमारा राष्ट्रीय कार्यक्रम है। हमारे देश में यह प्रायोजित भी करवाया जाता है। वक्त जरूरत जिसको इसकी
आवश्यकता होती है, वह दंगा उठा लेता है और दे मारता है देश के भाल पर। राष्ट्रवादियों ने इसे तहेदिल से
अपनाया है। यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि अब दंगा ही हमारी राष्ट्रीय मुख्यधारा का मार्ग बन रहा
है तथा सभी राजनीतिक दलों का झुकाव कमोबेश रूप में दंगों की ओर हो गया है। साम्प्रदायिकता भड़काना और
धार्मिक उन्माद से वर्ग संघर्ष उभारना हमारी दिनचर्या में शामिल होने लगा है। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में हम धर्म की
दुहाई देकर अपने-अपने झंडे उठाए भिड़ने को तैयार बैठे हैं। कहिए कैसी लगती है हमारी यह धर्मनिरपेक्षता? दंगा
संस्कृति का उद्भव और विकास यों तो ज्यादा प्राचीन नहीं है, परंतु दंगा समर्थक इसे आदि संस्कृति से जोड़कर
अपने पक्ष में समर्थन जुटाते हैं। जबकि दंगा राजनीति का उद्भव आजादी के वर्ष में हुआ तथा तब से आज तक
वह दिन दूनी रात चौगुनी फल-फूल रही है। आज तो हालात और भी पक्ष में हो गए हैं तथा दंगाइयों की संख्या भी
उसी अनुपात से पनप रही है। दंगा हमारी जरूरत बनता जा रहा है और लगने लगा है कि बिना इसकी सहायता के
अनेक समस्याओं का हल खोजना कठिन हो गया है। इसलिए नियोजित ढंग से दंगा-संस्कृति को पनपाया जा रहा
है। दंगाइयों की वानर सेना पूरी तरह व्यावसायिक हो गई है-जिसे जिस तरफ से भरपेट भोजन मिलता है, उसी ओर
से वार करने लगती है। भारत में दंगों का अपना मौलिक स्वरूप है। यहां जैसे दंगे अन्यत्र दुर्लभ हैं। क्षुद्र स्वार्थों के
लिए आपसी टकराव, अलगाव तथा आतंक का सहारा लेना नियति बन गया है तथा इसे उद्योग रूप में संचालित
किया हुआ है। पैसा चाहे देशी हो या विदेशी हमारे दंगाइयों को इससे कोई मतलब नहीं, वे बस मारकाट मचा देंगे
तथा कर्फ्यू लगवा देंगे। उन्हें हथियार, गोली-बारूद सब मुहैया करवाया जाता है।
एक सामान्य आदमी अपना पूरा जीवन लगाकर एक पिस्टल का लाइसेंस भी नियमानुसार मांगे तो उसे नहीं मिले,
लेकिन दंगाई महापुरुषों के पास सैंकड़ों-हजारों की संख्या में पिस्तोलें मिल जाएंगी। इनके आयोजक मुख्य रूप से
राजनीतिक लोग होते हैं-जो अपनी स्वार्थसिद्धी के लिए दंगा कराते रहते हैं। अब तो हालात यह है कि उनके पास
अपना एक अच्छा खासा समृद्ध इतिहास बन गया है। मुफ्त माल मारने की बढ़ती प्रवृत्ति ने भी दंगा-संस्कृति को
समुचित संरक्षण प्रदान किया है। लूट, आगजनी तथा राहजनी की घटनाएं इतनी बढ़ गई हैं कि हम अपना मूल
स्वरूप खो बैठे हैं-इसका पता नहीं चला तथा हमारी आने वाली पीढ़ी को लग रहा है कि उसकी अपनी संस्कृति ही
है दंगा-संस्कृति। उसे विरासत में जो मिला है-वह उसे ही आगे बढ़ाते हैं और नए कीर्तिमान कायम करते हैं। दंगा
प्रधान देश होने से हमारे यहां भले मानवों के साथ बुरा हुआ है। वे न तो दंगाइयों की बुराई कर सकते और न
उपदेशों की घुट्टी पिला सकते, ऐसी विकट स्थिति में इसे नियति मानकर सहते चले जाने के अलावा दूसरा रास्ता
नहीं है। बचपन से ही बटमारी की हमारी आदत ने दंगा-संस्कृति का शीर्ष बना दिया गया है हमें। जो लोग दंगा
कराते हैं-वे ही जांच भी कराते हैं, क्योंकि हमारे यहां लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था है। पहले दंगा कराओ-बाद में जांच
कराओ। पहले कांग्रेस के सिर मढ़ दिए जाते थे सारे दंगे, लेकिन अब साबित हो गया है कि इन्हें फैलाने के लिए
वह अकेली ही जिम्मेदार नहीं है-अपितु सभी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय राजनीतिक दल खुलकर सामने आए हैं। वोट डालने
की परंपरा ने दंगों को बढ़ाया तथा सत्ता पाने का जरिया भी बनाया। अब कोई आदमी आसानी से न तो चुनाव में
जीत पाता है और न सत्ता हथिया पाता है।