भाजपा-एनडीए, बीजद, वाईएसआर कांग्रेस आदि की राष्ट्रपति उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के नामांकन-पत्र दाखिल करने
के साथ ही यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि देश का 15वां राष्ट्रपति प्रथम आदिवासी महिला का
चेहरा ही होना चाहिए। द्रौपदी दूसरी महिला राष्ट्रपति होंगी, क्योंकि उनसे पहले प्रतिभा पाटिल ‘राष्ट्रपति भवन’ में
रह चुकी हैं। मुर्मू सिर्फ राजनीतिक प्रतिनिधि ही नहीं हैं, बल्कि उन्हें मोदी सरकार के नारे ‘सबका साथ, सबका
विकास….’ का प्रतीक माना जा रहा है। यदि वह राष्ट्रपति चुनी जाती हैं, तो यह साबित हो जाएगा कि भारत के
लोकतंत्र में सबसे ज्यादा वंचित, सर्वहारा, दबा-कुचला और मुख्यधारा से कटा हुआ समुदाय भी सर्वोच्च संवैधानिक
पद तक पहुंच सकता है। द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति उम्मीदवार तक का सफरनामा तकलीफों, संघर्षों और त्रासदियों से
भरा रहा है। जब मुर्मू ‘राष्ट्रपति भवन’ की दहलीज़ में पांव रखेंगी, तो उनके साथ न तो पति होंगे और न ही पुत्र
होंगे, क्योंकि सभी के असामयिक निधन हो चुके हैं। वह नितांत अकेली होंगी, लेकिन फिर भी यह भरपूर देश
उनका अपना परिवार, आंगन होगा। कोई भाई या परिजन उनके साथ हो सकता है।
यह जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी नहीं है, तो क्या है? द्रौपदी ने खुद को टूटने या बिखरने नहीं दिया है, अलबत्ता
सामाजिक कार्यों में खुद को व्यस्त रखा है। बहरहाल द्रौपदी के नामांकन-पत्र के प्रथम प्रस्तावक देश के प्रधानमंत्री
मोदी हैं। कुछ केंद्रीय मंत्रियों, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, मुख्यमंत्रियों और ओडिशा सरकार के दो मंत्रियों ने भी
प्रस्तावक की भूमिका निभाई है। हम द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति चुने जाने के प्रति आश्वस्त इसलिए हैं कि राष्ट्रपति
चुनाव में चिह्नित लाइन पर ही मतदान किया जाता है। सांसद और विधायक मतदाता होते हैं और उनके वोट का
मूल्य भी तय है। उसके मद्देनजर करीब 55 फीसदी वोट भाजपा-एनडीए, बीजद आदि के उम्मीदवार के पक्ष में तय
हैं। इस चुनाव में कोई चमत्कार भी नहीं होते। मुर्मू को तय मूल्य से भी ज्यादा वोट हासिल हो सकते हैं, क्योंकि
पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के जद-एस और झामुमो सरीखे विपक्षी दल असमंजस में हैं। हालांकि जो स्वर सुनाई दे रहे
हैं, वे आदिवासी महिला को समर्थन देने के हैं। झारखंड में संथाल आदिवासी बेहद महत्त्वपूर्ण समुदाय है, लिहाजा
उसे दरकिनार कर राजनीति करना असंभव है, लिहाजा झामुमो का अंतिम फैसला मुर्मू के पक्ष में ही होना तय लग
रहा है। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक ने भी द्रौपदी के पक्ष में मतदान का निर्णय लिया है।
तेलंगाना राष्ट्र समिति ने अभी तक विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को समर्थन देने की घोषणा नहीं की है।
विपक्ष के साझा उम्मीदवार को लेकर आम आदमी पार्टी फिलहाल साझा नहीं है। ऐसे में देश के 11 करोड़ से
अधिक आदिवासी गर्वोन्नत महसूस कर रहे होंगे, गदगद होंगे कि उनके बीच की झी (बुआ) और दी’, बेहद सामान्य
महिला, द्रौपदी मुर्मू संविधान और सरकार के सर्वोच्च मुकाम को छूने को हैं। भाजपा और खासकर प्रधानमंत्री मोदी
का यह निर्णय अप्रत्याशित नहीं है। ऐसे विश्लेषण किए जा रहे थे कि मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद दलित हैं,
तो इस बार ओबीसी या आदिवासी को मौका दिया जाए। द्रौपदी इस उम्मीदवारी से पहले झारखंड की राज्यपाल रह
चुकी हैं। ओडिशा में पार्षद, विधायक और मंत्री पदों पर काम करने का उन्हें लंबा अनुभव प्राप्त है। सबसे महत्त्वपूर्ण
फोकस यह रहा होगा कि जंगलों पर आश्रित रहे और वंचित, गरीब, उपेक्षित समुदाय-आदिवासी-का राजनीतिक
समर्थन हासिल किया जाए। आदिवासियों के संदर्भ में भाजपा के हाथ बिल्कुल खाली नहीं थे, लेकिन पार्टी नेतृत्व
की निगाहें दलितों, ओबीसी के बाद आदिवासियों पर ही थीं। बेशक द्रौपदी मुर्मू आदिवासियों का राष्ट्रीय चेहरा
बनकर उभरी हैं। वह राष्ट्रपति बनेंगी, तो आदिवासियों के लिए कुछ ठोस काम केंद्र सरकार के जरिए करवा सकेंगी।
भाजपा को आदिवासियों के कितने ज्यादा वोट मिलते हैं, यह आने वाले चुनावों से ही जाहिर हो जाएगा। 2024 के
आम चुनाव से पहले कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। वहां के राजनीतिक और चुनावी हासिल भी भाजपा
के सामने स्पष्ट हो जाएंगे। बहरहाल मतदान 18 जुलाई को है और 25 जुलाई को नया राष्ट्रपति अपना कार्यभार
संभाल लेगा।