उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए अभी बहुत कुछ और करना है

asiakhabar.com | July 14, 2018 | 4:59 pm IST
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देश के सभी विश्वविद्लयों के परिसर में, उच्च शिक्षा में दाख़िला लेने को उत्सुक युवाओं की भारी भीड़ देखी जा सकती है। पिछले एक दस-पंद्रह सालों से देश में बारहवीं कक्षा के परिणाम आते ही, बहुमत में छात्रों की प्रमुख चिंता अपने पसंदीदा कॉलेज /विश्वविद्यालय में प्रवेश की रहती है। 1990 के बाद, स्कूल शिक्षा में नामांकन देश में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में बढ़ा है और उसका परिणाम ये हुआ है कि उच्च शिक्षा की मांग में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। यूनेस्को सांख्यिकी संस्थान की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक, उच्च शिक्षा में, 1970 में दुनिया भर में कुल नामांकन जहाँ 32.6 मिलियन था, 2011 में 182.2 मिलियन पहुँच गया। पूर्वी और दक्षिणी एशिया के देशों की भागीदारी इस नामांकन में 46 % रही। अभी उम्मीद की जा रही है कि भारत सहित दक्षिण एशिया और मध्य अफ्रीका में उच्च शिक्षा की मांग और विस्तार में तेजी 2030 तक बनी रहेगी।उच्च शिक्षा की बढ़ती मांग के पीछे निश्चित रूप से, पिछले दशकों में सरकारों की नीतियों में आये बदलाव, सामाजिक जागरूकता और नौकरी में विश्वविद्यालय की डिग्री के बढ़े महत्व की ख़ास भूमिका रही है। स्कूली शिक्षा के दुनिया भर में विस्तार का एक असर ये हुआ है कि प्राथमिक शिक्षित व्यक्तियों की नौकरी में मांग घट गई है। सामान्य नौकरी में भी या तो कौशल आधारित डिग्री या फिर विश्वविद्यालय की स्नातक डिग्री की ज़रूरत बताई जाने लगी है। दुनिया में बदलते परिदृश्य को देखते हुए, कई देशों ने अपनी उच्च शिक्षा की नीतियों में बदलाव किया है। उच्च शिक्षा की मांग और कॉलेज /विश्वविद्यालय की उपलब्धता के बीच संतुलन को बनाये रखने के लिए, कुछ वर्षों तक विश्वविद्यालयों ने अपने स्तर पर प्रयास किया। बजट नहीं बढ़ने, शिक्षकों की भर्ती नहीं होने, लैब-पुस्तकालय नहीं बनने और छात्रों की बढ़ती संख्या का परिणाम ये हुआ कि राज्यों और छोटी जगहों के कॉलेज और विश्वविद्यालय, अपनी गुणवत्ता को नहीं बनाए रख सके। डिग्री प्राप्त करने का मतलब ये नहीं रह गया कि अधिकतर छात्रों को उस विषय का बुनियादी ज्ञान भी है। हाल के वर्षों में उच्च शिक्षा में नक़ल की संस्कृति और फ़र्ज़ी डिग्री के कारोबार को भी बढ़त मिली है।

भारत सहित अन्य एशिया के देशों ने, युवाओं की उच्च शिक्षा की बढ़ती मांग और शिक्षा संस्थानों की कमी को मिले-जुले तरीके से पूरा करने का प्रयास किया। भारत में जहाँ कुछ नए केंद्रीय और प्रादेशिक विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई, वहीं निजी विश्वविद्यालयों का रास्ता आसान किया गया। सरकारी विश्वविद्यालयों को भी फीस बढ़ाने और स्ववित्तपोषित कोर्स चलाने की अनुमति दी गई। देश के कई नए  केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अभी भी शिक्षकों की सम्पूर्ण नियुक्ति नहीं हुई है और पुराने शासकीय विश्वविद्यालयों/महाविद्यालयों में भी प्रवक्ताओं के पद रिक्त हैं। भवन, बेंच-डेस्क, लैब आदि के लिए बजट की कमी, विश्वविद्यालयों/ महाविद्यालयों के सामने एक आम चुनौती है।
दूसरी तरफ, उच्च शिक्षा में निजीकरण का असर ये हुआ कि दो दशक के भीतर, देश भर में निजी कॉलेजों/ विश्वविद्यालयों की संख्या में ज़बर्दस्त विस्तार हुआ है। गांव-देहात में निजी महाविद्यालय तो चल रहे हैं लेकिन उनको दक्ष शिक्षक कहाँ से मिल रहे हैं, ये एक बड़ा सवाल है ? हम जो बहुमत को पढ़ा रहे हैं, क्या वह 21वीं शताब्दी में ज़रूरी कौशल हासिल करने में मददगार है या सिर्फ डिग्री धारी जमात तैयार हो रही है। ग्रामीण इलाकों में खुले इन महाविद्यालयों ने निश्चित रूप से युवा पीढ़ी, विशेष रूप से लड़कियों के अरमानों को पंख दिया है, लेकिन शिक्षा अगर प्रासंगिक और गुणवत्तापूर्ण नहीं होगी तो हौसलों की उड़ान जल्दी ही ज़मीन पर आ जाएगी।

मलेशिया-थाईलैंड जैसे देशों ने अपनी उच्च शिक्षा की नीतियों में बदलाव करते हुए ये स्वीकार किया है कि उच्च शिक्षा में विस्तार और निवेश, आर्थिक समृद्धि लाएगा। इसी बदलाव का परिणाम है कि दोनों ही देशों में छात्र-शिक्षक अनुपात पहले की अपेक्षा बेहतर हुआ है। थाईलैंड में एक शिक्षक, एक दशक पहले जहाँ लगभग 35-40 छात्रों को पढ़ाते थे अब लगभग 20 छात्रों पर एक शिक्षक नियुक्त हो रहे हैं। फिलीपीन्स जैसे देश के लोग अपनी शुरुआती विश्वविद्यालयी शिक्षा की बदौलत, खाड़ी के देशों में होटल, ट्रांसपोर्ट, डिपार्टमेंटल स्टोर जैसे सेवा क्षेत्र में अपनी बढ़त बना रहे हैं।
भारत में अगर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया गया तो दुनिया के अनेक देश जैसे जर्मनी, इंग्लैंड, स्वीडन आदि आर्थिक रूप से समर्थ भारतीय छात्रों को आकर्षित करने में सफल रहेंगे। प्रत्येक वर्ष  शिक्षा के लिए, देश से बाहर जाने वाले छात्रों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। आज कल, ऑनलाइन कोर्स का रास्ता भी लोकप्रिय हो रहा है और पत्राचार पाठ्यक्रम का भी मॉडल अपनाया जा रहा है। वहीं वियतनाम जैसे देश ने सरकारी विश्वविद्यालयों को ख़ुद संसाधन जुटाने का जिम्मा दे दिया है। जापान, कोरिया, चीन, इंडोनेशिया जैसे देशों में निजी संस्थान बहुतायत में खुले हैं। दुनिया भर में, अब सतत प्रशिक्षण-अध्ययन की आवश्य्कता से नौकरी-पेशा लोगों में अपनी दक्षता को बढ़ाने के लिए ऑनलाइन कोर्स की मांग बढ़ती जा रही है। लेकिन भारत में युवाओं को ऑनलाइन कोर्स में जाना, एक विकल्प होना चाहिए, न कि दबाव में चुना गया रास्ता। जीवन के जटिल अनुभव और सामाजिक ज़िम्मेदारी के एहसास के लिए विश्वविद्यालयों के कैंपस की अपनी भूमिका होती है और देश के युवाओं को नियमित संस्थानों में पढ़ने का यह अवसर मिलना चाहिए।
अपने देश में, आने वाले दिनों में, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग बना रहेगा या फिर उच्च शिक्षा आयोग बनेगा और इससे क्या बदलाव होगा यह तो वक्त बताएगा। लेकिन शिक्षा में जो असमान अवसर व्याप्त हैं, वह कौन दूर करेगा ? ऐसा कैसे होता है कि अपवादों को छोड़ दें तो अक्सर ये देखा जाता है कि एक मध्यमवर्गी, उच्च वर्गी परिवार से संबन्धित छात्र /छात्रा, एक अच्छे स्कूल में पढ़ते हैं और फिर अच्छे विश्वविद्यालय में प्रवेश पा जाते हैं। अगर सरकारी विश्वविद्यालयों में प्रवेश नहीं भी मिला तो, किसी निजी विश्वविद्यालय में 20-25 लाख रुपये की फीस देकर कानून-मेडिकल जैसी डिग्री ले लेते हैं। देश के बाहर जाकर, डिग्री लेने का विकल्प तो उनके सामने खुला ही रहता है। क्या एक सामान्य किसान परिवार के छात्र /छात्रा को यह अवसर मिलता है ? हमारी शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के सवाल में ये बहस शामिल होनी चाहिए कि शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक-आर्थिक असमानता को काम करने वाली हो न कि उसको और बढ़ाने या मजबूत करने वाली हो।

हमारे देश में, आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान गुणवत्ता के पर्याय माने जाते हैं लेकिन उन तक पहुँचने वालों की संख्या देश के हिसाब से बहुत कम है। वैसे तो देश में 800 से अधिक विश्वविद्यालय हैं और 39000 से अधिक महाविद्यालय हैं लेकिन गुणवत्ता वाले संस्थानों की अभी बहुतायत में ज़रूरत है। उच्च शिक्षा की, शिक्षा के बजट में हिस्सेदारी बढ़ी है लेकिन छात्रों की बढ़ती संख्या के अनुपात में आर्थिक संसाधन नहीं बढ़े हैं। इस पर भी विचार करने की ज़रूरत है क्योंकि नए आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों का, सरकारों के दृढ़ इरादों और आर्थिक संसाधनों के बिना बनना संभव नहीं है और अगर निजी  व्यापारी समूह ऐसे संस्थान बना भी लेता है तो सामन्यतया वह समाज के कमजोर वर्गों की पहुँच से बाहर ही रहेगा। दूरदराज़ के इलाकों में कुछ साल पहले खुले कई निजी एमबीए-इंजीनियरिंग कॉलेज बंद हो गए हैं या तो आईटीआई में बदल गए हैं। ऐसे संस्थानों से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर, बड़ी संख्या में छात्र बेरोज़गार घूम रहे हैं। भारत में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के संस्थान बनने चाहिए जो, दुनिया भर के छात्रों को आकर्षित करने में सफल हों और देश में सामाजिक-आर्थिक दूरी को कम कर सकें। युवाओं को बिना भेदभाव के रोज़गार और शोध से जोड़ने वाली उच्च शिक्षा का मॉडल, आज की ज़रूरत भी है और हमारे भविष्य की योजना की कसौटी भी।


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