हॉकी टीम के खिलाड़ियों के चेहरों की चमक और खुशी फिर से लौट आई है। इस चमक के लौटने की वजह हॉलैंड के ब्रेडा में हुई चैंपियंस ट्रॉफी में रजत पदक जीतना है। यह चमक टिकने वाली रहेगी, यह आने वाले समय में पता चलेगा क्योंकि ऐसी चमक पूर्व में कई बार आती रही है पर हम इसे स्थाई रूप नहीं दे सके हैं। भारत ने अभी कुछ समय पहले एफआईएच र्वल्ड हॉकी लीग में लगातार दूसरी बार कांस्य पदक जीता था और दो साल पहले भी चैंपियंस ट्रॉफी में रजत पदक जीता था। यह सही है कि भारत ने दो साल पहले रोलैंट ओल्टमेंस के समय में ऑस्ट्रेलिया से हारकर ही रजत पदक जीता था। लेकिन दो साल पहले वाले फाइनल और इस बार के फाइनल में परिणाम भले ही समान रहा हो पर एक भिन्नता दिखती है। दो साल पहले ऑस्ट्रेलिया टीम ने दबदबा बनाकर फाइनल जीता था। लेकिन इस बार के फाइनल में भारतीय खिलाड़ियों ने ऑस्ट्रेलिया को हमलों को फिनिश देने के लिए स्पेस ही नहीं दी और दबदबा बनाए रखा। हरेंद्र सिंह के हॉकी कोच बनने का असर टीम पर साफ दिखने लगा है। लेकिन टीम की इस रंगत को बनाए रखने में हॉकी इंडिया की भी अहम भूमिका है। अभी तक वह कोच की अहमियत समझे बगैर रखती व निकालती रही है। उसने पिछले कुछ सालों में जोस ब्रासा, टैरी वाल्श, पॉल वान एस, रोलैंट ओल्टमेंस, शॉर्ड मारिने को रखने के कुछ समय बाद ही बाहर का रास्ता दिखा दिया है। इसमें कम-से-कम दो कोच वाल्श और पॉल ऐसे थे, जो टीम में सुधार लाने की क्षमता रखते थे और उन्होंने सुधार किया भी। लेकिन अनावश्यक हस्तक्षेप से आजिज आकर वह जिम्मेदारी को बीच में ही छोड़कर चले गए। पिछली बार हॉकी इंडिया ने मारिने को पुरु ष और हरेंद्र सिंह को महिला हॉकी टीम का कोच बनाने की गलती नहीं की होती और हरेंद्र को उसी समय पुरु ष टीम की जिम्मेदारी दे दी होती तो भारत को कॉमनवेल्थ गेम्स में खराब प्रदर्शन का सामना नहीं करना पड़ता। भारत लगातर दो कॉमनवेल्थ गेम्स में रजत पदक जीतने के बाद इस बार चौथा स्थान ही पा सका। इस कारण ही मारिने और हरेंद्र की अदला बदली की गई है। भारत ने ब्रेडा चैंपियंस ट्रॉफी में अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान को 4-0 से हराकर अपने अभियान की शुरुआत की और फिर ओलंपिक चैंपियन ऑस्ट्रेलिया को 2-1 से हराकर अपनी क्षमता का अहसास कराया। ऑस्ट्रेलिया से 2-3 से हारने और बेल्जियम से ड्रा खेलने के बाद भारत को फाइनल में स्थान बनाने के लिए मेजबान नीदरलैंड से मैच ड्रा खेलना था। इस लक्ष्य को पाने में भारतीय टीम सफल रही और फाइनल में लगातार दूसरी बार पहुंच गई। फाइनल में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ भारतीय टीम ने जिस तरह के खेल का प्रदर्शन किया, उससे थोड़ी राहत मिलती है। इसमें भाग्य ने जरा भारत का साथ दिया होता तो हम रजत के बजाय स्वर्ण पदक के साथ भी लौट सकते थे। तीसरे क्वार्टर में मनदीप सिंह द्वारा लगाया शॉट गोलकीपर टेलर लॉवेल को तो गच्चा देने में सफल हो गई पर गेंद बार से टकरा गई। भारत के इस प्रदर्शन में गोलकीपर पीआर श्रीजेश ने भी अहम भूमिका निभाई। फाइनल में पेनल्टी शूटआउट में गोल खाने की बात छोड़ दें तो हर मैच में उन्होंने शानदार बचाव किए। उन्हें चैंपियंस ट्रॉफी का सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर चुना गया। पिछले कोच मारिने शॉर्ड के समय युवाओं पर जरूरत से ज्यादा जोर देकर टीम का संतुलन बिगाड़ दिया गया था। लेकिन हरेंद्र ने आते ही सरदार सिंह, बीरेंद्र लाकड़ा, सुरिंदर सिंह और रमनदीप सिंह को टीम में वापस लाकर फिर से संतुलन बनाया। इसके बाद उन्होंने पूरी टीम को एक सूत्र को पिरोने को अहमियत दी। भारत ने पिछले कुछ सालों में र्वल्ड हॉकी लीग में दो बार कांस्य पदक, चैंपियंस ट्रॉफी में दो बार रजत पदक और एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर सुधार को दिखाया है। लेकिन विश्व कप और ओलंपिक में अच्छा प्रदर्शन ही सबसे ज्यादा मायने रखता है और हम यहां टांय-टांय फिस्स रहे हैं। भारत ने 2012 के लंदन ओलंपिक में आखिरी 12वां और 2016 के रियो ओलंपिक में आठवां स्थान प्राप्त किया था। वहीं 2010 के दिल्ली विश्व कप में आठवां और 2014 के हेग विश्व कप में नवां स्थान प्राप्त किया था। अगला विश्व कप इस साल घर में यानी भुवनेश्वर में होने वाला है। हरेंद्र की अगुआई में भारतीय टीम यदि विश्व कप में पोडियम पर चढ़ सकी और 2010 के टोक्यो ओलंपिक में पदक पा सकी, तब समझा जाएगा कि भारतीय हॉकी के सुधरे दिन लौट आए हैं। हरेंद्र ने थोड़े से समय में जिस तरह से टीम को एकजुट किया है, उससे लगता है कि वह इस काम का भी बखूवी कर सकते हैं पर इसके लिए जरूरी है कि हॉकी इंडिया भी कोच में भरोसा बनाए रखे।