शहर एक छलना है

asiakhabar.com | June 8, 2018 | 12:56 pm IST
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तरक्की के पर्याय माने वाले शहर अमूमन तसल्ली भी देते हैं। यहां आकर लोगों को लगता है कि जिस व्यवस्थित जीवन, विकास और खुशी की तलाश उन्होंने अपने जीवन में की है, वह यहां पूरी हो रही है। रोजगार को इसका एक आधार मानें तो मर्ज समाज को हो सकता है कि शहरों से वह सब कुछ मिला हो, जिसकी चाहत वे करते हैं। पर कॅरियर तो अब महिलाओं के लिए भी जरूरी है। ऐसे में सोचा जा सकता है कि महिलाओं को भी शहरी जीवन एक सार्थकता देता है, लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं है। इसकी पुष्टि हाल में कराए गए एक सर्वेक्षण से हुई। महिलाओं के मुद्दों को प्रकाश में लाने वाली संस्था-‘‘मॉमस्प्रेसो’ द्वारा दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू और कोलकाता की 1200 महिलाओं पर कराए गए सर्वेक्षण में घरेलू (होममेकर) और कामकाजी, दोनों तरह की महिलाओं ने शहरी जीवन पर नकारात्मक टिप्पणी की है। उनसे पूछा गया था कि क्या विकसित शहरों की जिंदगी उन्हें किसी तरह की खुशी देती है? करीब 70 फीसद महिलाओं ने कहा कि शहर उन्हें खुश रखने में नाकाम हो गए हैं। शहरी जीवन से इस नाखुशी और नाउम्मीदी की कुछ मौलिक वजहें हैं। इनमें एक कारण यह है कि शहरी महिलाओं से घर और दफ्तर, दोनों मोर्चो पर उनसे बेहद ऊंची अपेक्षाएं लगाने के बावजूद उनमें सफलता का श्रेय महिलाओं को नहीं दिया जाता। अक्सर इस बारे में कहा जाता है कि यह तो उनसे न्यूनतम अपेक्षित है क्योंकि इसके बिना शहरी जीवन से तालमेल बिठाना मुमकिन नहीं है। बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ना, पति के लिए नाश्ते-लंच की व्यवस्था करना, राशन लाना, बैंक-बिजली के बिल आदि काम निपटाना-अब ऐसे कई सारे काम शहरी महिलाओं के जिम्मे आ पड़े हैं और एकल परिवारों में प्राय: इनमें कोई मदद उन्हें नहीं मिलती है। महिलाओं की तकलीफ तब ज्यादा बढ़ जाती है, जब उन्हें ये काम निपटाने के बाद भी सराहना नहीं मिलती। सर्वेक्षण में शामिल शहरी महिलाओं ने अपनी नाखुशी की दूसरी बड़ी वजह यह बताई है कि उनसे बेहद ऊंची या अवास्तविक उम्मीदें लगाई जाती हैं और जब वे इसमें नाकाम होती हैं, तो उन्हें कोसा जाता है। जैसे इंटरनेट से कई सारे काम निपटाना या अंग्रेजी बोलचाल में प्रवीण होना। गांव-कस्बों से ब्याह कर शहरों में आई महिलाओं का वास्ता जब ऐसी चीजों से पड़ता है, जिससे उनका पहले कभी कोई लेना-देना नहीं रहा, तो अक्सर वे असफल होती हैं और इसके लिए खुद को कोसती हैं। असल में समस्या एक ही जिंदगी में दोहरी-तिहरी जिंदगियां जीने और उसमें खुद को छद्म रूप से कामयाब करने की कोशिशों से उठ खड़ी हुई है। वैसे तो पूरी दुनिया में ही एक स्त्री का जीवन ऐसे बदलावों से गुजरता है। उनका पहला जीवन मायके से जुड़ा होता है, जबकि विवाह के बाद का जीवन ससुराल से। ऐसे में उनके लिए जीवन की शत्रे और कसौटियां बदल जाती हैं। असल में महिलाओं को शहरों में एक तरह के सांस्कृतिक शून्य का भी सामना करना पड़ता है। इसका संकेत दो वर्ष पूर्व 2016 में अकादमिक पत्रिका ‘‘इंटरनेशनल क्रिमिनल जस्टिस रिव्यू’ में छपे एक अध्ययन में किया गया था, जिसके मुताबिक भारत के शहरों में पुरानी परंपरागत संस्कृति के ढांचे टूट रहे हैं और आधुनिक शहरी शिष्टाचार सिर्फ महिलाओं के मामले में नहीं, किसी भी मामले में आम तौर पर नदारद है। इस वजह से ज्यादातर शहर महिलाओं के नजरिये से आक्रामक और असुरक्षित बन गए हैं। अन्य विकासशील देशों की तरह भारत में भी बड़ी तादाद में कामकाजी महिलाएं हैं। ऐसे में परंपरागत पुरु ष प्रधान समाज में एक सांस्कृतिक बदलाव हो रहा है, जिसके लिए बहुत से पुरु ष तैयार नहीं हैं और यह महिलाओं के प्रति उनके व्यवहार में आक्रामकता के रूप में प्रकट होता है। साथ ही शहरों में बड़े पैमाने पर लोग आकर बस रहे हैं, जिनसे शहरों की संरचना लगातार अस्थिर हो रही है। एक मायने में शहर जड़ों से उखड़े हुए ऐसे लोगों की शरणस्थली बन रहे हैं, जो शहरी संस्कृति में अपनी जगह नहीं बना पा रहे हैं। इस तरह भारतीय शहर अनेक संस्कृतियों के टकराव की जगह बन गए हैं, जहां घोर सामंती संस्कृति से लेकर अत्याधुनिक पश्चिमी संस्कृति तक, सब मौजूद हैं। इन संस्कृतियों के बीच टकराव अक्सर हिंसक रूप धारण कर लेता है। परंपरागत पुरु ष प्रधान संस्कृति में पले-बढ़े ज्यादातर शहरी पुरु ष यह मानते हैं कि महिलाओं की जगह सिर्फ घर के अंदर है और वे घर से बाहर महिलाओं की उपस्थिति के प्रति सहज नहीं हो पाते। शहरी महिलाओं को लेकर पैदा हो रही नई किस्म की इन सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं का हल सुधार के प्रयासों और आंदोलनों में है। लेकिन विडंबना है कि शहरी समाज में ऐसी कोशिशें सिरे से गायब हैं।


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