अब इसे सौभाग्य समझें या दुर्भाग्य, कर्नाटक में क्षेत्रीय दलों का बोलबाला कभी नहीं रहा, बल्कि राष्ट्रीय प्रवृति के दल ही यहां की राजनीति में हावी रहे। कांग्रेस के अलावा जनता पार्टी, जनता दल और बीजेपी भी राष्ट्रीय पार्टी ही मानी गई। हां, समाजवादी दलों में किसी मजबूत राष्ट्रीय नेता के अभाव में क्षेत्रीय दल जरूर उभरे और राज्यविशेष पर काबिज रहे। कर्नाटक में जेडीएस की वही स्थिति है जो बिहार में राजद-जदयू, यूपी में सपा, हरियाणा में इंडियन लोकदल जैसे समाजवादी दलों की है। कुछ अन्य क्षेत्रीय दल भी हैं, लेकिम वो महज नाम के हैं। उनका कोई मजबूत जनाधार नहीं है। वो राष्ट्रीय पार्टियों के मजबूत नेताओं के मुखौटे समझे जाते हैं अंदरूनी तौर पर।
यह बात दीगर है कि कांग्रेस अब अपने निहित सियासी स्वार्थों के लिए कर्नाटक में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) जैसे आतंकी संगठनों को न केवल बढ़ावा दे रही है, बल्कि उनके साथ चुनाव भी लड़ रही है। गौरतलब है कि झारखंड में पीएफआई को पहले ही प्रतिबंधित किया जा चुका है, लेकिन कर्नाटक में पीएफआई और एसडीपीआई मुस्लिम मतों की गोलबन्दी में जुटी है।
दरअसल, संस्कृति समूचे भारत को एक सूत्र में पिरोती है। दक्षिण के लोग तीर्थाटन के लिए काशी जाते हैं, तो उत्तर के लोग रामेश्वरम आते हैं जो कि एक तरह का सांस्कृतिक बंधन है। लेकिन क्षेत्रीय दलों ने उन्हें बांट दिया। यह कह कर लोगों को बरगलाया जा रहा है कि कि फलां हिंदी भाषी पार्टी है, जो उनकी जनभावनाओं का ख्याल नहीं रख सकती। ये दल अपनी अपनी सभाओं में साफ कहते हैं कि फलां फलां उत्तर भारत की पार्टी है जिसे यहां अपने पैर नहीं जमाने देना है।
लेकिन अब धीरे-धीरे लोग जान गए हैं कि सभी क्षेत्रीय दलों ने उन्हें धोखा दिया है। वाकई क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय विचारधारा वाली पार्टी के खिलाफ लोगों के मन में जहर घोल रहे हैं, पर वह दौर खत्म हो गया है। अब लोगों को क्षेत्रीय दलों से कोई खास उम्मीद नहीं रह गई है, क्योंकि वे जान चुके हैं कि उन्हें लंबे समय तक ठगा गया। मैं कई क्षेत्रीय पार्टियों के कम से कम 200 बड़े नेताओं को जानता हूं जिनके बच्चे हिंदी स्कूल में पढ़ रहे हैं। ये वही लोग हैं जो हिंदी के नाम पर जहर उगलते रहे हैं।
महत्वपूर्ण बात यह है कि कर्नाटक में राष्ट्रवादी विचारधारा तेजी से पनप रही है जो बहुत अच्छा बदलाव है। कमोबेश कर्नाटक समेत पूरे दक्षिण भारत में क्षेत्रीय दलों के प्रति लोगों का रुझान घट रहा है, जिससे वे सिकुड़ते जा रहे हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं कि क्षेत्रीय दलों ने भाषा के आधार पर तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश को अलग-थलग रखा। कर्नाटक में भी क्षेत्रीय दलों ने लोगों को अंधेरे में रखा, जिससे उनका मोह भंग हो चूका है।
लिहाजा अब वे राज्य के दायरे से बाहर निकल कर देशहित के बारे में सोचने लगे हैं। यह बात कांग्रेस और भाजपा के पक्ष में जा रही है। चूंकि क्षेत्रीय पार्टियों का झूठ उजागर हो गया है, इसलिए कर्नाटक की ईसाई आबादी भी अब अन्य दलों की ओर देख रही है, जिन्हें अन्य दल भी ज्यादा तरजीह और सियासी पद दोनों दिए जा रहे हैं।