नई दिल्ली। मुहाने पर खड़े कर्नाटक चुनाव से पहले प्रभावी लिंगायत समुदाय को अलग धर्म और अल्पसंख्यक दर्जा देने का फैसला कर सिद्धारमैया सरकार ने राजनीतिक दांव तो चल दिया। लेकिन यह अति संवेदनशील मुद्दा दोधारी तलवार की तरह हर किसी को डरा भी रहा है। यही कारण है कि जिसे सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा माना जा रहा है उस पर राज्य से लेकर केंद्र तक कांग्रेस और भाजपा में लगभग चुप्पी सी है।
संभव है कि शुक्रवार को वीरशैव महासभा की बैठक के बाद यह तय होगा कि बाजी किसके हाथ जाएगी। राज्य सरकार की कैबिनेट से फैसला तीन दिन पहले हुआ। उसके बाद सिद्धारमैया बार-बार सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि फैसला समिति ने किया है उन्होंने नहीं। भाजपा की ओर से इतना बोलकर चुप्पी साध ली गई है कि कांग्रेस चुनाव में लाभ के लिए हिंदुओं को बांट रही है।
भाजपा के मुख्यमंत्री उम्मीदवार येदियुरप्पा ने थोड़ा और सतर्क रास्ता चुन लिया और कहा- धार्मिक मामलों पर लिंगायत महासभा निर्णय लेगी और वह उसके साथ होंगे।”ऑल इंडिया वीरशैव महासभा के अध्यक्ष शमनूर शिवशंकरप्पा ने पहले दिन तो राज्य सरकार के फैसले का स्वागत किया लेकिन तत्काल विरोध कर दिया। शायद समुदाय की ओर से इसका संकेत मिला हो।
दूसरी तरफ, केंद्र में भाजपा की ओर से कोई बयान नहीं दिया जा रहा है और राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के नेताओं का साफ संकेत है कि यह राज्य का मसला है। दरअसल, हर किसी को अहसास है कि जब लड़ाई आमने-सामने की ठनी हो तो लगभग 17 फीसदी वाले प्रभावी लिंगायत और उसी बहाने पूरे हिंदू समुदाय की भावनाओं से जुड़े मुद्दे को समझने-परखने और निर्णय लेने में थोड़ी भी चूक हुई तो किनारा मिलना असंभव है।
भाजपा ज्यादा सतर्क है, क्योंकि लिंगायत मुख्यतया भाजपा के वोटर माने जाते हैं और उसमें बंटवारे का क्या हश्र होता है यह पिछले चुनाव में दिख चुका है। खतरा कांग्रेस के लिए भी है और सूत्रों की मानी जाए तो इसी आशंका के कारण कैबिनेट की एक बैठक में कुछ मंत्रियों के विरोध के कारण इस पर फैसला नहीं हो सका था। उन्हें डर था कि भावनाएं भड़कीं तो यह कांग्रेस के लिए खतरनाक होगा। समुदाय के लोग एससी वर्ग आरक्षण का लाभ खो देंगे। लेकिन सिद्धारमैया हर दांव खेलने के लिए तैयार हैं।
कर्नाटक चुनाव कांग्रेस और भाजपा व दोनों दलों के मुख्यमंत्री उम्मीदवार सिद्धारमैया और बीएस येदियुरप्पा के लिए बहुत अहम है। दरअसल कर्नाटक की जीत और हार ही हर किसी के लिए भविष्य का संकेत होगी। वर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के लिए इसका मायने कुछ ज्यादा बड़ा है, क्योंकि हार का अर्थ है पूरी तरह हाशिए पर जाना। कांग्रेस के अंदर ही कई पुराने दिग्गज हैं, जो कुछ वर्षों पहले जदएस से आए हारे हुए नेता को किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेंगे। सिद्धारमैया इसे भली भांति समझते हैं और इसीलिए लिंगायत का फैसला चौंकाने वाले अंदाज में आया।
दरअसल, 24 दिसंबर 2017 को इस मुद्दे पर विचार करने के लिए जो समिति बनाई गई थी, उसने खुद ही फैसला किया था कि रिपोर्ट छह माह में देगी और कोई अंतरिम रिपोर्ट नहीं आएगी। समिति के अध्यक्ष कर्नाटक हाई कोर्ट के पूर्व जस्टिस एचएन नागमोहन दास ने 6 मार्च 2018 को इसकी घोषणा की थी। लेकिन दो महीने बाद ही दो सौ पन्नों की रिपोर्ट आ गई और 19 मार्च को कैबिनेट ने इसे हरी झंडी दे दी।
सूत्रों का तो यह भी कहना है कि सात सदस्यीय इस समिति में कोई भी लिंगायत समुदाय से नहीं था। फिर भी भाजपा की ओर से इसका औपचारिक रूप से विरोध नहीं किया गया है, जो स्पष्ट करता है कि इस गरम मुद्दे को छूने से भी फिलहाल लोग बच रहे हैं। कांग्रेस शायद यह मानकर चल रही थी कि भाजपा आक्रामक रूप से विरोध करेगी और कांग्रेस को उसका फायदा मिल सकता है।
बताते हैं कि शुक्रवार को वीरशैव महासभा की बैठक है और उसका रुख देखने के बाद ही आगे की रणनीति तय होगी। ध्यान रहे कि भाजपा हो या कांग्रेस कोई भी इस मुद्दे पर अपने पत्ते सामने नहीं रखना चाहती है। 2013 में राज्य से ऐसा ही प्रस्ताव तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार को स्वीकृति के लिए भेजा गया था लेकिन उसे नकार दिया गया था। वहीं उस आवेदन में खुद येदियुरप्पा ने भी हस्ताक्षर किए थे। हालांकि उस वक्त वह भाजपा में नहीं थे। जाहिर है कि गर्म चुनावी माहौल में भी फिलहाल सभी धीमे चलने को बाध्य हैं।