माल यह हुआ कि टीवी चैनलों की बहसों में न तो इधर भूत-प्रेत थे। न हिंदू-मुसलमान। न ही मंदिर-मस्जिद कहीं थे। यहां तक कि चीन और पाकिस्तान भी कहीं नहीं थे। और तो और ट्रंप और किम भी नहीं थे, जो पिछले कई महीनों से स्थायी तौर पर चैनलों पर जमे हुए थे। खैर, अगर वे एक दूसरे पर बम डालने की बातें करते तो वहां होते। पर वे तो अब एक दूसरे से दोस्ती की बात करने लगे थे। दोस्ती, बातचीत, मिलन वगैरह में भला टीवी चैनलों की क्या दिलचस्पी हो सकती है। सो, ट्रंप और किम की महीनों तक कुती दिखाने के बाद अचानक चैनलों ने उन्हें चलता कर दिया-अच्छा राम-राम! पर यह क्या है? उधर देखो यार, लाल झंडों का हुजूम! कहां चला जा रहा है। अच्छा मुंबई! किसानों, आदिवासियों के हाथों में लाल झंडे। गरीब-गुरबों के हाथ में लाल झंडे। भूखे-नंगों के हाथों में लाल झंडे। पांव सूज गए। घाव हो गए। फिर भी थिरक रहे हैं, नाच रहे हैं, गा रहे है। लोगों को आश्र्चय हुआ। अभी-अभी तो त्रिपुरा में इनको हराया था। वहां तो इनकी पिटाई भी खूब हुई थी। इनके दफ्तर-वफ्तर जला डाले गए थे। गांवों और बस्तियों से खदेड़ दिया गया था। चैनलों पर भी ज्ञानीजनों ने इनकी खूब पिटाई की थी। हालांकि इन्हें पैंतालीस फीसद वोट मिला था। फिर भी घोषणा कर दी गई थी कि खत्म हो गए ये लोग। घोषणा कुछ इस अंदाज में की गई कि दुनिया से तो ये पहले ही खत्म हो गए थे। बस त्रिपुरा बचा था, चलो अब वहां भी कर दिया गया इनका सफाया। पर फिर ये कहां से आ गए। लेनिन की मूर्तियां तो तोड़ दी गई थीं, फिर भी लेनिन के ये अनुयायी कहां से निकल आए इतनी बड़ी तादाद में। हारने और पिटाई के बाद भी इतना जोश! और यह क्या हो गया मीडिया वालों को! क्यों इतनी कवरेज दे रहे हैं? पहले तो कभी इतनी कवरेज नहीं दी। इनके राजस्थान के आंदोलन को भी नहीं दी थी। और ये सभी लोग क्यों इनके स्वागत के लिए आ रहे हैं-देखो शिव सेना भी और एनसीपी भी! क्या हो गया है इन पार्टियों को और क्या हो गया है सरकार को। क्यों इनके सामने झुक गई? अरे लो, यह तो जीत कर चले गए। अभी-अभी तो हारे थे। अभी-अभी जीत भी गए। यह हो क्या रहा है?