र्मचारी चयन आयोग (एसएससी) की हालिया परीक्षाओं में पेपर लीक की घटनाओं से छात्रों-उम्मीदवारों का आजिज आकर धरने-प्रदर्शन पर उतर आना और सरकार से प्रकरण से सीबीआई की जांच की मांग मनवा लेने की घटना ने यह तो साबित किया है कि अब छात्रों को यह बर्दाश्त नहीं कि सिस्टम की खामियों का नतीजा वे भुगतें, लेकिन भविष्य में ऐसी घटनाएं फिर नहीं होंगी-ऐसा आश्वासन कहीं से नहीं मिला है। पर्चा लीक होने का यह सिलसिला हाल के वर्षो में इतना बढ़ा है कि शायद ही कोई प्रतिष्ठित परीक्षा इसकी आंच से बच पाई हो। यूपी-पीसीएस, यूपी कंबाइड प्री-मेडिकल टेस्ट, यूपी-सीपीएमटी, एसएससी, ओएनजीसी और रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षाओं के पेपर हाल के कुछ वर्षो में बड़े पैमाने पर लीक हुए हैं। यह भी पता चला है कि पांच-पांच लाख में बिके प्रश्नपत्र सोशल मीडिया पर मुहैया कराए गए और जिन मामलों का खुलासा नहीं हुआ, वहां ऐसे चोर रास्तों से शायद सैकड़ों लोग नौकरी या प्रतिष्ठित कोर्स में दाखिला पा गए। ऐसे में यह सवाल शायद हमेशा की तरह आगे भी बना रहेगा कि क्या कभी हमारी प्रतियोगी परीक्षाएं इस बीमारी से निजात पा सकेंगी? चूंकि ये गोरखधंधे लाख इंतजाम और इसके गिरोह के भंडाफोड़ और धरपकड़ के बाद भी थम नहीं रहे हैं, इसलिए प्रश्न यह पैदा होता है कि इस समस्या की जड़ कहीं और तो नहीं है। ये घपलेबाजी योग्यता का मापदंड तय करने वाली परीक्षा पण्राली की व्यवस्था के लुंजपुंज हो जाने का प्रमाण है। इससे यह भी साबित होता है कि शासक वर्ग पेपर लीक की घटनाओं को बहुत हल्के में लेता है, अन्यथा अब तक इस समस्या का इलाज हो चुका होता। नजदीकी से मुआयना करें तो इन घटनाओं के कुछ मौलिक कारणों का खुलासा होता है। ऐसी ज्यादातर परीक्षाओं में कई बार आठ-दस लाख परीक्षार्थी तक हिस्सा लेते हैं, जबकि इनके जरिये चयनित होने वाले उम्मीदवारों की संख्या कुछ सौ या कुछ हजार ही होती है। इसका मतलब यह है कि चाहे प्रोफेशनल कोर्स की बात हो या नौकरी-हर जगह स्थिति एक अनार-सौ बीमार वाली है। मांग ज्यादा है, आपूत्तर्ि कम। जहां भी ऐसे हालात पैदा होते हैं, वहां पैसे और अवैध हथकंडों की भूमिका स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है। पर्चा लीक कांडों में पकड़े गए लोगों को नाममात्र की सजा हुई। कुछ महीने जेल में काटने के बाद ये लोग फिर उसी धंधे में लग जाते हैं। ऐसे उदाहरण कानून और दंड व्यवस्था को औचित्यहीन साबित कर डालते हैं। समाजशास्त्रीय नजरिये से देखें, तो पेपर लीक के लिए इनसे भी बड़े दोषियों का खुलासा होता है, पर समस्या यह है कि न तो पुलिस इनकी धरपकड़ कर सकती है और न कानून में ऐसे लोगों के लिए कोई सजा मुकर्रर है। असल में, ऐसे लोगों में हमारे समाज के ही कुछ वे लोग जिम्मेदार हैं, जो पैसे के बल पर अपनी संतानों को नौकरी व सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए वैध-अवैध- हर हथकंडा अपना लेना चाहते हैं और ऐसा करने में कोई शर्म-झिझक महसूस नहीं करते हैं। यह वर्ग नैतिक रूप से इतना पतित हो चुका है कि उसे इसमें कोई दोष नजर नहीं आता है कि उसने पैसा खिलाकर या तो पर्चा लीक करवा लिया या भारी-भरकम डोनेशन देकर इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेज की वह सीट खरीद ली, जिस पर कायदे से किसी प्रतिभावान और योग्य उम्मीदवार का हक होना चाहिए था। हालांकि इसमें बाहर से ज्यादा दोष सिस्टम में बैठे उन लोगों का है, जो चंद पैसे के लिए रंजीत डॉन जैसे लोगों को प्रश्नपत्र मुहैया कराते हैं या अपने नाते-रिश्तेदार को पास कराने के लिए परीक्षा पण्राली में सेंध लगाते हैं। आज चूंकि किसी भी तंत्र या व्यवस्था में चंद पैसे के लिए अपने ईमान से मुंह मोड़ लेने वालों की कमी नहीं है। असल में परीक्षाएं भले ही ऑनलाइन हो गई हों, पर इस सिस्टम कोई ऐसा मशीनी इंतजाम नहीं है, जिसमें इंसान के गुणों-अवगुणों पर कोई लगाम लगती हो। इसलिए ऐसे भ्रष्ट लोगों की धरपकड़ से ही कोई राह सूझेगी। वैसे बात चाहे प्रतियोगी परीक्षाओं की हो या भर्ती बोर्डों के जरिये मिलने वाली नौकरी की परीक्षाओं की, बेरोजगारी की दर और जनसंख्या का संतुलित अनुपात बिठाने पर यह समस्या सुलझाई जा सकती है। रोजगार और शिक्षा में -मैं आगे, तुम पीछे या मेरी सैलरी फलाने के वेतन से इतने गुना ज्यादा- यह भाव भी पेपरलीक की समस्या को गहरा करता है। जब तक कथित तौर पर मलाईदार नौकरियों के लिए मारामारी होती रहेगी, पेपर लीक जैसे चोर रास्तों का दरवाजा हमेशा खुला रहेगा। इसलिए दोषियों की धरपकड़ के साथ-साथ समस्या की सही निदान का प्रयास भी करना होगा।