एक्ट्रेस विद्या बालन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें विश्वास था कि अगर बेगम जान के पास होने में सेसरबोर्ड की तरफ से कोई समस्या आई तो महेश भट्ट इसके लिए लड़ जाएंगे। उनके इस विश्वास के बारे में आपका क्या ख्याल है?
उनका विश्वास एकदम ठीक था। 47 साल पहले जब मैंने फिल्म इंडस्ट्री में अपना सफर शुरू किया था, तबसे ही मैं सेंसर बोर्ड से अपनी फिल्मों के लिए लड़ाई करता आया हूं। लड़ता, थकता, झगड़ता, चीखता, चिल्लाता रहा हूं। कोई भी दौर रहा हो, किसी की भी सरकार रही हो, मुझे यह लड़ाई लड़नी पड़ी है। मुझे लगता है कि आजादी की लड़ाई हमें हर रोज लड़नी पड़ती है और ऐसा नहीं है कि एक बार आजादी मिल गई तो वह बैंक बैलेंस की तरह सुरक्षित रखी रहेगी। बेगम जान के मामले में हमने ठान लिया था कि अगर बोर्ड की तरह से किसी भी तरह की कोई दिक्कत आई तो हम इसे पास करवाने के लिए सारा जोर लगा देंगे। पर ऐसा कुछ भी करने की नौबत नहीं आई। सेंसरबोर्ड को यह फिल्म बेइंतहां पसंद आई। उन्होंने सिर्फ कुछ साउंड से जुड़े बदलाव करने को कहा, जिसे हमारे डायरेक्टर साहब ने सहर्ष मान लिया।
क्या पहलाज निहलानी साहब ने बेगम जान को देखकर कुछ खास रीएक्शन दिया?
हां, उन्होंने हमारे भाई साहब (मुकेश भट्ट) को कॉल किया और बताया कि बोर्ड वाले पिक्चर देखकर बहुत खुश हुए। यह मेरा सेंसर बोर्ड के साथ सबसे बेहतरीन एनकाउंटर था। फिल्म का विषय ऐसा था कि मैं यह मानकर बैठा था कि मुझे सेंसरबोर्ड से दो-दो हाथ करने ही होंगे, पर ऐसा नहीं हुआ।
आपको सेंसर से सबसे ज्यादा लड़ाई किस फिल्म के लिए करनी पड़ी?
जख्म के लिए। यह फिल्म साल 1998 में रिलीज हुई थी और बाबरी मस्जिद कांड के बाद हुए खूनखराबे से जुड़ी मेरी निजी जिंदगी की यादों पर आधारित थीं। इसके अलावा साल 1991 में रिलीज हुई फिल्म सड़क को पास कराने के लिए भी काफी कवायद करनी पड़ी थी। इसके लिए मुझे कोर्ट तक जाना पड़ा था। पर यह सच है कि आजादी पर बंदिशें हर जमाने में लगाई जाती रही हैं और शायद आगे भी लगाई जाती रहेंगी। हमें इनसे निपटने के लिए तैयार रहना होगा। अगर सूरत बदल जाए तो बात अलग है, और ऐसा हुआ तो यकीनन यह बहुत अच्छा रहेगा, पर हम इसके इंतजार में हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकते।
आपके प्रोडक्शन हाउस की पिछली फिल्में लव गेम्स, मिस्टर एक्स आदि कुछ खास नहीं चलीं। क्या वजह रही और इससे निपटने के लिए क्या कुछ खास तैयारी की है?
बतौर फिल्ममेकर मेरा 17 साल का सफर बेहद कामयाब रहा। इसके बाद मेरी फिल्में अचानक बॉक्स ऑफिस पर असफल होने लगीं। जब ऐसा हुआ तो मुझे समझ में आया कि मुझे फिल्मों को लेकर अपने चयन को बदलना होगा, क्योंकि पुराने नजरिये से बनी फिल्मों का दौर जा चुका था। मुझे लगा कि अगर मुझे असफलताओं के अंधेरे कमरे से निकलना है तो ऐसा सिनेमा परोसना होगा जो वाकई आज के हिसाब से फिट बैठता हो।