स्टिक के विकल्प ने यों तो हमारी जिंदगी को आसान किया है। पॉलीथिन की थैलियां और प्लास्टिक की चीजें (रंगबिरंगे पेन-पेंसिल से लेकर डिजाइनर लंच बॉक्स और पानी की बोतलें) हमारे जीवन में अनायास नहीं आई। उन्हें साइंस की तरक्की और उनसे मिलने वाली सुविधा ने जीवन में शामिल कराया है। अमेरिकी साइंटिस्टों का आकलन है कि पिछले 65 सालों में पूरी दुनिया में 8.3 अरब टन प्लास्टिक का निर्माण हुआ है। निश्चय ही प्लास्टिक ने काफी सुविधाएं दीं, लेकिन समस्या यह है कि इसका 70 फीसद हिस्सा अब कबाड़ (प्रदूषित-जहरीले कचरे) के रूप में धरती पर मौजूद है।प्लास्टिक का सबसे खराब पहलू यह है कि इसका उपयोगी जीवन छोटा है और कूड़े के रूप में इसकी जिंदगी काफी लंबी है। प्लास्टिक की कोई थैली हो सकता है कि एक दिन से लेकर साल भर तक इस्तेमाल में आए, लेकिन फेंकने पर उसे पर्यावरण में नष्ट होकर घुलने में कई सौ या हजार साल भी लग सकते हैं। ऐसे में यहां-वहां कबाड़ में फेंक दी गई पॉलिथिन की थैलियां और प्लास्टिक के लंच बॉक्स, बोतलों से लेकर तमाम सामान या तो भोजन समझ लिये जाने पर गायों आदि जानवरों के पेट पहुंचते हैं या कबाड़ के रूप में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं। हाल में पटना में बिहार वेटनेरी कॉलेज में एक गाय के पेट से 80 किलोग्राम प्लास्टिक कचरा निकाला गया। साल भर पहले अहमदाबाद के जीवदया चैरिटेबल ट्रस्ट में भी इसी तरह इलाज के लिए लाई गई एक बीमार गाय के पेट से 100 किलोग्राम प्लास्टिक कचरा निकला था। कुछ साल पहले उत्तर भारत के एक चिड़ियाघर का दरियाई घोड़ा अचानक मर गया, उसका पोस्टमार्टम हुआ, तो पता चला कि उसके पेट में दो किलो से ज्यादा पॉलीथिन थैलियां जमा थीं। एक अनुमान है कि हर साल 20 लाख से ज्यादा पशु, पक्षी और मछलियां पॉलिथिन थैलियों के चलते अपनी जान गंवाते हैं। आज हर कोई पॉलीथिन और प्लास्टिक की थैलियों की वजह से पर्यावरण और हमारे जीवन पर पड़ने वाले खराब असर की बात करता है, पर मजबूरी यह है कि पाबंदी के सिवा किसी को इसका ठोस विकल्प नहीं सूझ रहा है। अस्सी के दशक में जब पॉलीथिन की थैलियां कागज और जूट के थैलों का विकल्प बनना शुरू हुई थीं, तो लोग इन्हें देखकर हैरान थे। लेकिन पर्यावरण और इंसानों-जानवरों में इनके खतरों को देखते हुए पिछले दस-पंद्रह वर्षो में कई राज्यों में इन्हें प्रतिबंधित किया गया है, पर वहां भी किसी-न-किसी रूप में इनका इस्तेमाल दिख ही जाता है। एक आंकड़ा यह है कि दुनिया में हर सेकेंड आठ टन प्लास्टिक का कोई न कोई सामान बनता है और इस तरह हर साल कम-से-कम 60 लाख टन प्लास्टिक कचरा समुद्रों में पहुंच जाता है। इस कचरे का केवल 15 फीसद हिस्सा ही पृवी की सतह यानी जमीन पर बचा रह पाता है। 43 साल पहले वर्ष 1975 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया था कि सागरों की ओर जाने वाली नदियों द्वारा लगभग 8 लाख पाउंड प्लास्टिक-पॉलीथिन वार्षिक रूप से फेंक दिया जाता है। इसीलिए यह दुनिया में जमीन पर अतिरिक्त रूप में नहीं दिखता है। यह आंकड़ा आज कई गुना बढ़ चुका है। अगस्त, 2016 में प्रश्नकाल के दौरान संसद में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने यह जानकारी दी थी कि देश के 60 बड़े शहर रोजाना 3500 टन से अधिक प्लास्टिक-पॉलीथिन कचरा निकाल रहे हैं। उन्होंने बताया था कि वर्ष 2013-14 के दौरान देश में 1.1 करोड़ टन प्लास्टिक की खपत हुई, जिसके आधार पर यह जानकारी प्रकाश में आई कि दिल्ली, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता और हैदराबाद जैसे शहर सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा निकाल रहे हैं। प्लास्टिक से होने वाले खतरों से जुड़ी एक चेतावनी अगस्त, 2015 में ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने जारी की थी। उन्होंने प्लास्टिक से बने लंच बॉक्स, पानी की बोतल और भोजन को गर्म व ताजा रखने के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली पतली प्लास्टिक फॉइल के बारे सचेत किया कि इनमें 175 से ज्यादा दूषित घटक होते हैं, जो कैंसर पैदा करने के लिए जिम्मेदार हैं। इन्हीं खतरों के मद्देनजर 2016 में केंद्र सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी करके दवाओं को प्लास्टिक से बनी शीशियों व बोतलों में पैक करने पर रोक लगाने का इरादा जाहिर किया था। पर सवाल यह है कि जिस पॉलीथिन और प्लास्टिक ने हमारी जिंदगी को आसान किया है, क्या बिना विकल्प सुझाए उसका इस्तेमाल रोक पाना संभव है? अब यह सवाल असल में साइंस और इंजीनियरिंग के लिए ज्यादा जरूरी है कि वहां इनका इससे बेहतर नहीं तो, समकक्ष समाधान अवश्य सुझाया जाए।