जहां तक मुझे याद पड़ता है, फरवरी 2015 के आखिरी हफ्ते में पीडीपी और भाजपा ने मिलकर गठबंधन के एजेंडे के मसौदे को अंतिम रूप दिया था। यह मसौदा वैचारिक रूप से दो भिन्न् पार्टियों के मध्य पहले गठबंधन का रोडमैप था। इस मसौदे में जम्मू-कश्मीर की स्थिति में व्यापक सुधार हेतु इस बात की जरूरत पर बल दिया गया था कि यहां के अवाम में व्यापक भरोसे का माहौल निर्मित करते हुए सुनिश्चित किया जाए कि हालात सामान्य और शांतिपूर्ण बने रहें तथा लोगों को भी इसका लाभ मिल सके। इस मसौदे में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि ‘गठबंधन सरकार राज्य में सुरक्षा स्थिति की पूर्ण समीक्षा करेगी, ताकि यह देखा जा सके कि सुधरते हालात के परिप्रेक्ष्य में राज्य में लागू विशेष कानूनों की कितनी वांछनीयता या जरूरत है। इसके बाद ही मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 1 मार्च 2015 को जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी।
तब से अब तक तीन साल गुजर चुके हैं और जमीनी हालात में कोई सुधार नजर नहीं आता। बल्कि अब राज्य के जो हालात हैं, वे नब्बे के दशक के शुरुआती दौर की याद दिलाते हैं, जब आतंकवाद चरम पर था। आलम यह है कि आतंकी जब और जहां चाहे, सुरक्षा बलों पर हमला करते हुए उन्हें जमकर नुकसान पहुंचा रहे हैं। इसी साल फरवरी के दूसरे हफ्ते में आतंकियों ने जम्मू और श्रीनगर जैसी दो प्रमुख जगहों पर दो सनसनीखेज हमलों को अंजाम दिया। इससे सुरक्षा तंत्र हिल गया और इन दोेनों प्रमुख शहरों में आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। जम्मू क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा (एलओसी) के इर्द-गिर्द संघर्ष-विराम उल्लंघन की बढ़ती घटनाओं से इन सीमावर्ती इलाकों के लोग मौत के भय के साए में जीने को मजबूर हैं।
इस वक्त महबूबा मुफ्ती की अगुआई वाली राज्य सरकार की स्थिति अजीब है। कुछ हफ्तों की शांति उन्हें बाहर निकलने और जिला मुख्यालयों पर जाकर शासन की स्थिति का जायजा लेने के लिए प्रोत्साहित करती है कि फिर कोई हिंसक वारदात हो जाती है और हालात पुन: पहले जैसे हो जाते हैं। श्रीनगर के एक प्रतिष्ठित अस्पताल के बाहर से लश्कर-ए-तोएबा के आतंकी नवीद जट को उसके साथी जिस ढंग से पुलिस की गिरफ्त से छुड़ाने में सफल रहे, वह ऐसा ही एक घटनाक्रम था।
नवीद की फरारी से हुई किरकिरी के बाद महबूबा ने जेल अधीक्षक को निलंबित कर दिया, महानिदेशक (जेल) को हटा दिया और जेल में बंद कई आतंकियों को कश्मीर से बाहर दूसरी जेलों में शिफ्ट कर दिया। हालांकि वे उन हालात को संभालने में नाकाम रहीं, जहां पर शोपियां के गनोवपुरा में हिंसक प्रदर्शनकारियों से संघर्ष के दौरान सुरक्षा बलों की गोलीबारी में दो युवकों की मौत हो गई थी। महबूबा ने इस बारे में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन से बात की और पुलिस को इस मामले में एफआईआर दर्ज करने के निर्देश दिए। उन्होंने इस मामले में डिप्टी कमिश्नर से 20 दिन के भीतर जांच रिपोर्ट भी तलब की। उन्होंने वादा किया कि जांच को ‘तार्किक परिणति तक ले जाया जाएगा। गौरतलब है कि इस घटना के विरोध में शोपियां व उसके आसपास के इलाकों (जो कभी सत्ताधारी पीडीपी का गढ़ थे) में 10 दिन बंद रहा था।
वास्तव में कश्मीर में आधिकारिक छानबीन या तहकीकात अपने मायने खो चुकी हैं, खासकर तब जबकि वे सेना के खिलाफ की जा रही हों, जिसे सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) का कवच मिला है। ऐसा एक भी मामला नहीं है, जहां पर राज्य सरकार की छानबीन किसी की जिम्मेदारी तय करते हुए अंजाम तक पहुंची हो। हालांकि शोपियां की इस घटना ने एक अलग मोड़ तब ले लिया, जब इस मामले में आरोपी सैन्य अधिकारी मेजर आदित्य कुमार के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट कर्नल पिता इस एफआईआर के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने 10 गढ़वाल राइफल्स के मेजर आदित्य के खिलाफ एफआईआर पर रोक लगा दी और केंद्र सहित जम्मू-कश्मीर सरकार को नोटिस जारी करते हुए दो हफ्तों के भीतर जवाब पेश करने के लिए कहा।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद पीडीपी को भी समझ नहीं आ रहा है कि इस मामले में क्या रुख अपनाया जाए। दो हफ्ते की समयसीमा भी खत्म होने को है। यह पार्टी अपने लोगों को मुंह भी नहीं दिखा पा रही है। गठबंधन को तीन साल हो रहे हैं और सरकार ने एक एफआईआर दर्ज करने की ताकत भी खो दी है, जिसके आधार पर ही कोई छानबीन शुरू होती है। इसने ‘गठबंधन के एजेंडे में निहित प्रतिबद्धता को निरर्थक बना दिया है। उस दस्तावेज में साफ-साथ लिखा गया था कि ‘भले ही दोनों पार्टियों (पीडीपी और भाजपा) के राज्य में अफस्पा को लेकर अलग-अलग विचार हों, लेकिन वर्तमान में गठबंधन शासन के एजेंडे के तहत यह गठबंधन सरकार इस बात का परीक्षण करेगी कि क्या इसे ‘अशांत क्षेत्रों में डी-नोटिफाई करने की जरूरत है। ऐसा करने से केंद्र सरकार को भी इन इलाकों में अफस्पा को जारी रखने को लेकर अंतिम निर्णय लेने में मदद मिलेगी।
महबूबा की स्थिति इस वक्त बेहद अजीब है। वे सत्ता छोड़ते हुए नया जनादेश लेने का जोखिम नहीं उठा सकतीं, क्योंकि हवा उनके प्रतिकूल है। संभवत: इसी वजह से वे पंचायत और शहरी स्थानीय निकायों के चुनावों को स्थगित करने के लिए मजबूर हो गई थीं। यही वजह है कि वे बार-बार भारत-पाकिस्तान के मध्य बातचीत पुन: शुरू करने पर जोर दे रही हैं। विधानसभा के बजट सत्र के समापन पर उन्होंने ट्वीट किया कि ‘यदि हमें इस रक्तपात को रोकना है तो पाकिस्तान के साथ संवाद जरूरी है। मुझे पता है कि मेरी इस बात के बाद टीवी न्यूज एंकरों द्वारा मुझ पर राष्ट्रविरोधी होने का ठप्पा लगा दिया जाएगा, लेकिन यह मायने नहीं रखता। जम्मू-कश्मीर के लोग भुगत रहे हैं। हमें बात करनी होगी, क्योंकि युद्ध कोई विकल्प नहीं।
लेकिन मौजूदा सूरते-हाल में तो पाकिस्तान से बातचीत की संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती। अलबत्ता, भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और उनके पाकिस्तानी समकक्ष लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) नासिर खान जुंजुआ के मध्य बैंकॉक में दिसंबर में बैठक जरूर हुईथी। लेकिन साफ है कि ऐसी गोपनीय बैठकों से मदद नहीं मिली। बीते दो माह से सरहद पर विकट हालात हैं। गोलीबारी में दोनों ओर के सैनिक मर रहे हैं और सीमावर्ती इलाकों के लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर होना पड़ा है। सेना द्वारा आतंकवादियों की धरपकड़ और खात्मे के लिए चलाए जा रहे ‘ऑपरेशन ऑल आउट के बावजूद घाटी में आतंकवाद बढ़ रहा है, स्थानीय फिदायीन उभर रहे हैं और जैश-ए-मुहम्मद जैसे संगठनों की गतिविधियां बढ़ गई हैं।