राजसी ठाठ बाट छोड़कर बुद्ध ने संन्यास ले लिया था। वे अपने शिष्यों के साथ नगर-नगर और गांव गांव घूम कर लोगों को धर्म का उपदेश देते थे।
एक दिन महात्मा बुद्ध उपदेश देने के लिये मगध देश के किसी गांव में पहुंचे। उस गांव का मुखिया क्रोधी, तानाशाह और रूढि़वादी विचारों का व्यक्ति था। वह अपने आप को काली मां का भक्त बताकर, मांस-मदिरा का सेवन करता था। निरीह जानवरों की बलि चढ़ाता था। ‘अहिंसा परम धर्म है’ वाला उपदेश उसे तनिक भी नहीं भाता था।
जब उसे गांव में आने की खबर मिली तो उसने पहले ही गांव में घोषणा करवा दी कि एक पाखंडी संन्यासी अपने कुछ शिष्यों के साथ गांव में धर्म का उपदेश देने के बहाने लोगों को मूर्ख बना कर ठगने आ रहा है इसलिये कोई भी ग्रामवासी उसके उपदेश को न सुने और न ही उसे दान अथवा भिक्षा दे। जो आदेश का पालन नहीं करेगा उसे दंडित किया जायेगा।
महात्मा बुद्ध जब गांव में पहुंचे तो वे वहां मौत का सा सन्नाटा देखकर स्तब्ध रह गये। सारे ग्रामवासियों ने घरों के दरवाज़े बंद कर रखे थे। कोई भी तथागत् के स्वागत के लिये बाहर नहीं आया।
महात्मा बुद्ध को किसी ने मुखिया के आदेश की भनक दे दी।
बुद्ध अपने शिष्यों को लेकर मुखिया की हवेली पर पहुंचे और भिक्षा के लिये द्वार पर पुकार लगाई।
कुछ देर के बाद मुखिया स्वयं ही द्वार पर आया और क्रोधित स्वर में बोला-‘क्यों व्यर्थ ही चिल्ला रहे हो? तुम लोग युवा हो, स्वस्थ-हट्टे कट्टे हो, फिर भीख मांगकर खाते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती। धर्म के नाम पर सीधे साधे लोगों को ठगते फिरते हो।’
मुखिया की बात सुनकर महात्मा बुद्ध मुस्कराये और बोले-‘वत्स, संचित सम्पत्ति तो केवल जीवन काल तक ही साथ रहती है, मरने के बाद कुछ साथ नहीं जाता। धर्म और कर्म ही अंत में मनुष्य के साथ जाते हैं। क्रोध, अहंकार और घृणा तो विवेकहीन मनुष्य का सहारा हैं। वत्स, विवेकहीन और दूसरों का अहित सोचने वाला मनुष्य पशु के समान होता है।’
बुद्ध की बात सुनकर मुखिया का क्रोध उबल पड़ा-नीच, पागल, भिखारी, तू मुझे उपदेश दे रहा है। जानता नहीं, मैं गांव का मुखिया हूं। तू मेरी तुलना पशु से कर रहा है। चुपचाप यहां से चला जा। इसी में तेरी भलाई है।’
महात्मा बुद्ध ने शान्त स्वर में कहा-‘ठीक है वत्स, यह गांव तुम्हारा है। ग्रामवासी तुम्हारे हैं। मैं तुम्हारे आदेश को मानकर यहां से चला जाता हूं परन्तु मेरे मन में एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ है, क्या तुम उसका समाधान कर दोगे’।
बुद्ध की बात सुनकर मुखिया ने प्रश्न भरी दृष्टि से उनकी ओर निहारा।
बुद्ध ने कहा-‘मैं तुम्हारे द्वार पर भिक्षा के लिये आया हूं। यदि तुम्हारे मन में मेरे प्रति श्रद्धा हो जाती और तुम मुझे भिक्षा देने के लिये आते परन्तु तुम्हारे द्वारा दी जा रही भिक्षा लेने का मेरा मन न होता और मैं उसे अस्वीकार कर देता तो बताइये कि मेरे अस्वीकार करने पर वह भिक्षा किसे प्राप्त होती?’
मुखिया बोला-‘क्या मूर्खों जैसा प्रश्न किया है संन्यासी। अरे जब तुमने भिक्षा स्वीकार ही नहीं की तो निस्संदेह भिक्षा मुझे ही प्राप्त होगी।’
बुद्ध बोले-‘बिल्कुल सही कहा तुमने। मैं भिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से तुम्हारे पास आया था लेकिन तुमने भिक्षा में मुझे क्रोध, अहंकार, अपशब्द, निंदा और तिरस्कार आदि देना चाहा जो मैंने नहीं लिया क्योंकि उनकी मुझे आवश्यकता नहीं। अब बताइये कि ये सब किसको प्राप्त होंगें?’
बुद्ध की बात सुनकर मुखिया सोच में पड़ गया। महात्मा बुद्ध के प्रश्न का उसके पास कोई उत्तर नहीं था। उसे अपने किये पर पश्चाताप् होने लगा। देखते ही देखते उसके भीतर छिपे अहंकार, क्रोध, और दूसरे अवगुण भाग निकले। उसके मन में दया, धर्म और प्रेम ने स्थान बना लिया। अपने बुरे व्यवहार के कारण वह शर्मिंदा हो गया और बुद्ध के चरणों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगा-‘मुझे क्षमा कर दो संन्यासी। आपने मुझे अंधकार से निकाल कर प्रकाश में खड़ा कर दिया है। वास्तव में मैं विवेकहीन था।’
भगवान बुद्ध ने मुखिया को आशीर्वाद दिया और कहा-‘वत्स, अहम् को त्यागो। अहिंसा परम धर्म है। हर प्राणी के प्रति करूणा और प्रेम भाव रखो। शुभ कर्मों के साथ धर्म का पालन करते रहो। उद्वार होगा।’
कहकर महात्मा बुद्ध अपने शिष्यों के साथ दूसरे गांव की ओर चल पड़े।
मुखिया हाथ जोड़े ठगा सा चुपचाप खड़ा देखता रह गया।