प्रीम कोर्ट ने संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘‘पद्मावत’ पर रोक से संबंधित राजस्थान और गुजरात सरकारों की अधिसूचनाओं को खारिज करके यह स्पष्ट कर दिया है कि व्यक्ति की सृजनात्मक आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन नहीं किया जा सकता। ये दोनों बातें हमारे संविधान की आत्मा में निहित हैं और राज्य सरकारों का यह दायित्व है कि वे इसकी रक्षा करें। शीर्ष अदालत ने अन्य राज्यों को भी इस तरह की अधिसूचना जारी नहीं करने का सख्त आदेश दिया। दरअसल, भाजपा शासित राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और मध्य प्रदेश की सरकारें कानून और व्यवस्था का मसला खड़ा करके इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकना चाह रही थीं। लेकिन शीर्ष अदालत ने यह साफ कर दिया कि कानून व्यवस्था बनाये रखना राज्यों की संवैधानिक जिम्मेदारी है। इस नाते फिल्म से जुड़े कलाकारों की सुरक्षा भी उनकी ही जिम्मेदारी है। शीर्ष अदालत के फैसले के बाद उम्मीद है कि आगामी 25 जनवरी को ‘‘पद्मावत’ पूरे देश में रिलीज हो जाएगी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पहले सेंसर बोर्ड ने भी कुछ संशोधनों-परिवर्तनों के साथ इस फिल्म को हरी झंडी दे दी थी। विवाद खड़ा होने के बाद फिल्म निर्माताओं ने ‘‘पद्मावती’ का नाम बदल कर ‘‘पद्मावत’ कर दिया है। ‘‘पद्मावत’ मध्य युग के प्रसिद्ध कवि जायसी की ऐतिहासिक रचना है और फिल्म निर्माताओं ने यह दावा भी किया है कि फिल्म की नायिका का कृतित्व और व्यक्तित्व ‘‘पद्मावत’ काव्य पर आधारित है, न कि ऐतिहासिक व्यक्तित्व है। दरअसल, समाज के एक समुदाय विशेष को इस फिल्म पर आपत्ति है और आगामी चुनावों को देखते हुए भाजपा को इस बात का डर सता रहा है कि फिल्म के रिलीज होने से इस समुदाय के वोट नहीं मिलेंगे। अर्थात् राजनीतिक सत्ता के लिएअभिव्यक्ति की आजादी और व्यक्ति की सृजनात्मकता का भी राजनीतिककरण करने की कोशिश की जा रही है। शीर्ष अदालत के विद्वान न्यायमूर्ति ने ठीक ही कहा है कि अगर प्रतिबंध की बात करेंगे तो साठ फीसद से ज्यादा साहित्य पढ़ने लायक नहीं रह जाएंगे। दरअसल, फिल्में मनोरंजन के लिए बनती हैं और इन्हें इसी नजरिये से ही देखा जाना चाहिए। यही बात किसी स्वांग के बारे में कही जा सकती है। इसका मकसद किसी व्यक्ति का उपहास उड़ाना नहीं होता है। लेकिन इधर उन लतीफों पर भी लगाम लगाने की कोशिश की जा रही है, जो जाने कब से औरों के साथ-साथ उन्हें भी गुदगुदाते रहे हैं, जिनको लक्षित कर वे बनाये गए होते हैं।