पिछले काफी समय से खेलों पर आधारित कई सारी फिल्में बनी हैं। जिसमें ‘भाग मिल्खा भाग’, ‘मेरी कॉम’ जैसी कई बड़ी-बड़ी फिल्मों का नाम शुमार है। अब अनुराग कश्यप भी एक स्पोर्ट्स फिल्म लेकर आए हैं लेकिन, इसका अंदाज़ बिल्कुल अलग है! छोटे शहरों में खेल और खेलों से जुड़ी राजनीति किस तरह से काम करती है इस पर यह फिल्म एक खूबसूरत कोशिश है।
फिल्म की खास बात यह है कि इस फिल्म की कहानी लीड एक्टर विनीत कुमार ने खुद लिखी है। विनीत चार साल से इस कहानी पर फिल्म बनाने के लिए निर्माता-निर्देशकों के चक्कर काट रहे थे लेकिन, उन्हें आश्रय मिला अनुराग कश्यप का! अनुराग ने उन्हें आश्वस्त किया कि वह इस कहानी पर फिल्म बनाएंगे लेकिन, उसके पहले शर्त यह रखी कि विनीत एक प्रोफेशनल मुक्केबाज की तरह ट्रेनिंग लेंगे और जब ट्रेनिंग ले ली गई तब जाकर इस फिल्म की शुरुआत हुई!
फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के बरेली जैसे छोटे शहर की है। श्रवण सिंह यानी विनीत ज्यादा पढ़ा-लिखा तो नहीं लेकिन मुक्केबाजी के लिए एक समर्पित खिलाड़ी है। वह कोच भगवानदास मिश्रा (जिमी शेरगिल) के शरण में जाता है लेकिन, भगवान दास उसे घर के काम-काज कराने में लगा देता है! ट्रेनिंग का कोई अता-पता नहीं? एक दिन तंग आकर श्रवण सिंह भगवान दास को एक पंच मार कर नॉकआउट कर देता है। अपमान का बदला लेने के लिए भगवानदास उसे कहता है कि अब वह जीवन भर नहीं खेल पाएगा!
इसी बीच श्रवण सिंह की नज़र चार हो जाती है भगवान दास की भतीजी सुनैना (ज़ोया हुसैन) से। बहरहाल, हर तरह के प्रयासों के बावजूद भगवान दास श्रवण को नहीं खेलने देते और आखिरकार तंग आकर वो बाहर जाता है जहां उसकी मुलाकात नए कोच (रवि किशन) से होती है और यहां से उसके खेल के कैरियर की शुरुआत होती है। मगर फिर भी भगवान दास उसका पीछा नहीं छोड़ते। आखिर यह लड़ाई कहां तक पहुंचती है? क्या भगवान दास अपनी साजिशों में कामयाब होते हैं? क्या श्रवण एक हीरो की तरह इस मुश्किल से पार पा जाएगा? इसी ताने-बाने से बनी है यह फिल्म- ‘मुक्काबाज़’।
अभिनय की बात करें तो विनीत न अपनी पूरी जान श्रवण सिंह के कैरेक्टर में लगाई है। उनकी मेहनत पर्दे पर साफ नज़र आती है। ज़ोया हुसैन का किरदार एक गूंगी लड़की का है सो उन्होंने भी काफी मेहनत की है। रवि किशन कोच के रोल में छा जाते हैं, भगवान दास के रोल में जिमी शेरगिल से नफरत होने लगती है। यानी एक अभिनेता की पूरी सफलता!
फिल्म के संवाद पटकथा को ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश के रंग में रंगे हुए एकदम सटीक हैं! फिल्म का संगीत कर्णप्रिय है। कुछ गाने दिल को छू लेते हैं। इस फिल्म का निगेटिव पॉइंट सिर्फ यह है कि अनुराग इसे एडिट करना भूल गए इंटरवेल के बाद अगर इस फिल्म में 15,20 मिनट का एडिटिंग वर्क किया जाता तो बेहतर होता! हालांकि, अनुराग रियलिस्टिक सिनेमा बनाने के लिए जाने जाते हैं मगर फिर भी सारे ही किरदारों को हारे हुए देखना कहीं ना कहीं निराशा भर देता है! ‘मुक्काबाज़’ एक बार विनीत के मेहनत के लिए देखी जा सकती है।