उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए। उपनिषदों से निकले इस श्लोक को स्वामी विवेकानंद ने बहुत लोकप्रिय बनाया। सभी भारतीयों, विशेषकर युवाओं के लिए यह प्रेरणा का महामंत्र होना चाहिए, जिन्हें शिक्षा व समर्पण के साथ नए भारत का निर्माण करना है। भारत के लिए शायद इससे बेहतर अवसर कभी नहीं रहा कि वह अपनी वास्तविक क्षमताओं को पहचान सके, जिसकी 65 फीसदी से अधिक आबादी युवाओं की है। भारत पहले ही दुनिया की प्रमुख आईटी शक्ति के रूप में स्थापित हो चुका है, जहां जीडीपी में सेवा क्षेत्र का महती योगदान है। हालांकि भारत के चतुर्दिक एवं सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है कि विनिर्माण, कृषि, ऊर्जा और बुनियादी ढांचे का भी समुचित विकास हो, ताकि देश दस से पंद्रह वर्षों की अनुमानित अवधि से पहले ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सके। मिशिगन यूनिवर्सिटी में पत्रकारों के समूह से स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘फिलहाल यह आपकी सदी है, लेकिन 21वीं सदी भारत की होगी। शंकालु और निराशावादी अभी भी इस बात पर संदेह कर सकते हैं कि क्या भारत सभी वर्जनाओं को धता बताते हुए दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्था बन पाएगा, लेकिन विकास के हालिया रुझानों से उम्मीद की तमाम किरणें नजर आती हैं।
विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और तमाम अन्य वैश्विक एजेंसियों का मानना है कि भारत विकास की सही दिशा में अग्र्रसर है। हालांकि हमें कुछ बाधाओं और चुनौतियों पर भी गौर करना होगा। तमाम तरह की विचारधाराओं में उभरते पूर्वाग्र्रहों से निपटना होगा। नए भारत की बुनियाद को मजबूत बनाने के लिए सामाजिक सौहार्द, शांतिपूर्ण समावेशन के साथ ही समाज में समानता की राह में आने वाले अवरोधों को दूर करना होगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत की आत्मा उसके गांवों में बसती है। ऐसे में जब तक गांवों में रहने वालों का विकास नहीं होगा, तब तक सही मायनों में देश की तरक्की नहीं हो सकती। ऐसे में विकास की होड़ में पिछड़ गए लोगों के उत्थान को ध्यान में रखकर आगे बढ़ने की जरूरत है, जिसमें गांवों के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य तय किया जाए। इसके साथ ही खेती-किसानी को आकर्षक पेशा बनाकर किसानों की आमदनी भी दोगुनी करनी होगी। खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए किसानों के कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।
हाल के दौर में यह देखने को मिला है कि देश की वृद्धि और विकास से जुड़े वास्तविक व सार्थक मुद्दों के बजाय निरर्थक मसलों ने सार्वजनिक विमर्श में अपनी जगह बनाई। मुझे लगता है कि संवाद के दो सबसे सशक्त माध्यमों मीडिया और सिनेमा को इस परिप्रेक्ष्य में गंभीर आत्म-विश्लेषण करने की आवश्यकता है। हमें सकारात्मक बदलाव के वाहकों की दरकार है। हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो तार्किकता, निष्पक्षता, आशा, साहस और शांति के पक्ष में आवाज बुलंद कर सकें। हम संसदीय लोकतंत्र हैं, जिसमें देश के विकास की कहानी को मूर्तरूप देने में जनप्रतिनिधियों की अहम भूमिका है। उन्हें दूसरों के लिए आदर्श बनना चाहिए।
स्वामी विवेकानंद ने 1893 में विश्व धर्म संसद में ऐतिहासिक व्याख्यान में कहा था, ‘मुझे अपने धर्म पर गर्व है, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकार्यता की शिक्षा दी। हम न केवल सार्वभौमिक सहिष्णुता में विश्वास करते हैं, बल्कि सभी धर्मों को मूल रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे अपने देश पर भी गर्व है, जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के लोगों को शरण दी। उन्होंने यह भी कहा था कि यह खूबसूरत धरती लंबे समय से तमाम खांचों में बंटे समाज, धर्मांधता और उसके खतरनाक प्रभावों से बदसूरत होती जा रही है। इसकी वजह से हिंसा बढ़ी और कई बार खूनखराबे तक हुए। इससे इंसानी सभ्यता नष्ट हुई व उसकी चपेट में सभी देश आ गए। यदि यह दानव नहीं होता तो आज मानव समाज अधिक विकसित होता। धार्मिक एकता की साझा जमीन के संदर्भ में उन्होंने कहा था कि किसी एक धर्म द्वारा दूसरे धर्म पर जीत हासिल करने के बाद शांति और एकता की उम्मीद करना बेमानी है।
सभी धर्मों के लोगों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए धार्मिक सहिष्णुता की महत्ता का संदेश देने के लिए ही मैंने विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद द्वारा दिए गए भाषण का उल्लेख किया। समस्या तब उत्पन्न् होती है, जब अज्ञानी और उन्मादी धर्मांध दूसरों पर अपनी राय थोपते हुए अपने मत को ही सर्वोपरि बनाने पर आमादा होते हैं। वे चाहे किसी भी धर्म के हों, इस तरह का व्यवहार स्वीकार नहीं किया जा सकता और न ही किया जाना चाहिए। सभी पक्षों, विशेषकर राजनीतिक दलों द्वारा जातिगत दीवारें ध्वस्त किए जाने के प्रयासों की जरूरत है। चुनावी राजनीति में धनबल, जाति, समुदाय की लेशमात्र भूमिका न हो व लोग प्रत्याशियों के चरित्र, क्षमताओं और आचार-व्यवहार के आधार पर ही जनप्रतिनिधियों का चुनाव करें।
मैं महसूस करता हूं कि आज भारत की भांति दुनिया का कोई और देश नहीं है जो युवाओं की इतनी बड़ी आबादी के साथ तरक्की की राह पर तेजी से अग्र्रसर है। स्वामी विवेकानंद ने व्यक्ति एवं चरित्र निर्माण मिशन का उल्लेख करते हुए कहा था, ‘व्यक्ति निर्माण ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। मैं न तो कोई नेता हूं और न ही समाज सुधारक। मेरा काम ही व्यक्ति और चरित्र निर्माण का है। मुझे केवल आत्मा की फिक्र है और जब वह सही होगी तो सब कुछ स्वत: ही सही हो जाएगा।
स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि शिक्षा का उद्देश्य ही जीवन निर्माण, व्यक्ति निर्माण और चरित्र निर्माण होना चाहिए। हमें ऐसे ज्ञानी, कुशल और सही दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों की जरूरत है जो सामाजिक कायाकल्प को रफ्तार दे सकें। सर्व-साक्षरता और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा, जिसमें सार्वभौमिक मूल्यों का उचित समावेश हो, इसके लिए जरूरी बुनियाद होगी, जिसे हमें निश्चित रूप से मजबूत बनाना चाहिए। स्वामी विवेकानंद जाति और नस्ल से परे मानवता के उत्थान में विश्वास रखते थे। मानवता की प्रगति और अस्तित्व के लिए उन्होंने अध्यात्म की अहमियत पर बल दिया। वे सिद्ध आध्यात्मिक उपदेशक थे, जिन्होंने पश्चिमी दुनिया का योग और वेदांत से साक्षात्कार कराया। साथ ही ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान युवाओं में देशभक्ति की भावना भी प्रज्ज्वलित की। विश्व धर्म संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण से उन्होंने हिंदुत्व और उसके जीवन दर्शन के सही स्वरूप से पूरे विश्व का परिचय कराया। विवेकानंद पश्चिम और पूरब के बीच एक सेतु की भांति रहे, जिन्होंने मानवता की आध्यात्मिक आधारशिला को सशक्त बनाने में अतुलनीय योगदान दिया। युवा पीढ़ी को उनके आदर्शों का अनुसरण करना चाहिए। स्वामी विवेकानंद एक महान राष्ट्र निर्माता थे। देश की प्रगति में अवरोध पैदा करने वाले कुछ शरारती तत्वों के कुत्सित प्रयासों के दौर में उनकी शिक्षाएं कहीं अधिक समीचीन हैं। भारतीय हमेशा से ही ‘सर्वधर्म समभाव में विश्वास करने वाले और सदैव शांति एवं सौहार्द की कामना करने वाले रहे हैं। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ही हमारा मूल मंत्र रहा है। ऐसे में हमें अपनी समृद्ध सभ्यता की विशेषताओं का स्मरण कर उसे पुनर्जीवित करना चाहिए।