दुखद तय को तो कोई नकार ही नहीं सकता कि देश में दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार हुआ है। यद्यपि अब परिस्थितियों में बदलाव आया है, लेकिन अब भी एक बड़े वर्ग में उन्हें हीन मानने की भावना है, और इसके दुष्परिणाम हमें जगह-जगह देखने को मिलते हैं। हिन्दू समाज का कोई सबसे बड़ा दुश्मन है, तो जातीय भेदभाव की संकीर्णता। यह सकीर्णता नष्ट हो गई होती तो इस समय पैदा हुए जातीय संघर्ष का कोई कारण ही नहीं होता। प्रश्न है कि यह होगा कैसे? इस समय दलित आंदोलन के नाम से जो आक्रामक दलितवाद दिख रहा है, दुर्भाग्य से समाधान के सूत्र उसमें निहित नहीं हैं। ऐसा लगता भी नहीं कि इनमें शामिल तत्वों की वास्तविक मंशा जातीय भेदभाव के अंत करने की है। दरअसल, यह एक राजनीतिक मुहिम है, जिसके पीछे कुछ तत्वों की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है, एक दल विशेष और संगठन विशेष के प्रति विद्वेष का भाव है। संयोग देखिए, इन्हें मीडिया के एक वर्ग एवं बौद्धिक जमात के एक हिस्से का भी मुखर समर्थन मिल रहा है। आप सोचिए, गुजरात के उना में दलितों के खिलाफ मारपीट से निकले और कांग्रेस के समर्थन से विधायक बने जिग्नेश मेवाणी अपने भाषण में कहते हैं कि 56 इंच के सीना को फाड़कर रख देंगे। यह कौन-से दलितोद्धार या जातीय भेदभाव मिटाने की भाषा है? इस प्रकार के भाषण और विचार आपको जगह-जगह मिल जाएंगे। इन पर तालियां बजाने वाले लोग भी। कोई दो राय नहीं कि सवर्णो को दलितों के प्रति अपना दृष्टिकोण और व्यवहार, दोनों बदलने की आवश्यकता है। आज के जो दलित हैं, उनको वैदिकालीन शुद्र मानना भी उचित नहीं है। डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘‘हू वेयर शुद्राज’ में इसका विस्तार से वर्णन किया है। इसमें बताया है कि आज के दलितों की जड़ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों तक जाती है। दलितों पर जिन इतिहासकारों ने काम किया है, उन सबके शोध यहीं जाकर टिकते हैं। हम यहां विस्तार से नहीं जाना चाहेंगे। केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि जिस तरह की छुआछूत और अमानवीय व्यवहार शुद्रों और दलितों के साथ किया गया उसका कोई तार्किक, धार्मिंक और नैतिक आधार नहीं है। जो हिन्दू धर्म मनुष्य तो छोड़िए, सभी जीव-अजीव में एक ही आत्म तत्व का वास मानता हो वह अपने ही तरह के किसी व्यक्ति से भेदभाव कैसे कर सकता है। किंतु यह हुआ है, तो इसमें बदलाव आना चाहिए। किंतु वह इस तरीके से नहीं हो सकता जैसे देश में एक वर्ग करने की कोशिश कर रहा है। भाजपा/संघ के खिलाफ बनाया जा रहा माहौलक्ष्स समय तो ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जैसे भाजपा और संघ परिवार के कारण दलितों की समस्या है यानी इनके अलावा जिन राजनीतिक दलों का शासन था, या है वहां दलितों के साथ जातीय भेदभाव खत्म हो गया था, या खत्म हो गया है। ऐसा मानना हर दृष्टि से बेतुका है। राजनीति में विचारधारा के आधार पर भाजपा के विरु द्ध होना, उसके खिलाफ अभियान चलाना एक बात है। यह किसी का भी संवैधानिक अधिकार है, लेकिन इसे दलितोद्धार का रास्ता मान लेना भी एक संकीर्ण और खतरनाक सोच ही है। भीमा कोरेगांव युद्ध की 200वीं वार्षिकी पर जो आग लगी है, उसके पीछे आप तटस्थ होकर देखेंगे तो मुख्य कारण आक्रामक दलितवाद का यही राजनीतिक चेहरा है, जो देश भर में एक अलग तरीके की अस्थिरता कायम करना चाहता है। यह समूह अपने भाषणों से जानबूझकर दूसरे समुदायों को उत्तेजित करता है, ताकि वे हिंसा करें और हमें अपनी राजनीति करने का मौका मिले। दुर्भाग्य से दूसरे समुदायों के कुछ लोग उत्तेजना में आकर हिंसा कर भी बैठते हैं, और फिर स्थिति बिगड़ जाती है। वास्तव में यहीं संभलने की जरूरत है। जरा ठहर कर सोचने की आवश्यकता है कि आक्रामक दलितवाद की राजनीति करने वाले कौन लोग हैं, और उनका उद्देश्य क्या है? यह आज इसलिए आवश्यक है कि लोक सभा चुनाव 2019 आ रहा है। इस वर्ष आठ राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं। उनमें दलितों के नाम पर इस प्रकार की राजनीति करने की पूरी कोशिश होगी। तो विवेकशील लोगों को इससे समाज को बचाने की कोशिश करनी होगी ताकि कहीं अनावश्यक जातीय हिंसा की लपटें न उठें। जिस उमर खालिद पर जेएनयू में देश विरोधी नारा लगाने का आरोप है, उसका दलित उद्धार आंदोलन से क्या लेना-देना हो सकता है। किंतु वह भी इसमें शामिल होता है। क्यों? यही राजनीति है। इस समय देश भर में एक शक्ति पैदा हो रही है, जिसकी सोच है कि दलितों और मुसलमानों को मिलाकर एक बड़ा वोट बैंक बन जाता है। इन्हें संगठित कर दिया जाए तथा इसमें कुछ अति पिछड़ी जातियों का हिस्सा आ जाए तो भाजपा को परास्त किया जा सकता है। गुजरात चुनाव में भाजपा के खिलाफ इस सूत्र को आजमाने की कोशिश हुई। यह अलग बात है कि राहुल गांधी ने वहां अपने हिन्दुत्व का चेहरा प्रदर्शित किया। इस कारण इसका पूर्ण परीक्षण न हो सका। यह एक खतरनाक विचार है। दलित राजनीति का लक्ष्य आजादी के आंदोलन के दौरान मुस्लिम लीग ने इस खेल को खेलने की कोशिश की थी, और कुछ दलित नेता उनके झांसे में आ गए। उनमें से एक योगेन्द्र कुमार लाल थे, जिनके समूह ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। वे पाकिस्तान गए भी। मोहम्मद अली जिन्ना ने उन्हें मंत्री भी बनाया पर बाद में उनके साथ वहां जैसा र्दुव्यवहार हुआ उससे वे इतने पीड़ित हुए कि हारकर भारत लौटे और उनकी गुमनाम मौत हुई। जो लोग बाबा साहब के नाम पर दलित राजनीति कर रहे हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि तमाम पल्रोभनों के बावजूद डॉ. अम्बेडकर मुस्लिम लीग के झांसे में नहीं आए। यही नहीं जब उन्होंने घोषणा की कि मैं पैदा हिन्दू के रूप में हुआ हूं लेकिन मरूंगा हिन्दू के रूप में नहीं तो उन्हें मुसलमान बनाने की कम कोशिशें नहीं हुई। उन्हें ईसाई बनाने की भी कोशिशें हुई। उन्होंने दोनों मजहबों के गुरु ओं से बहस की और उन्हें वापस कर दिया। अंत में उन्होंने अपने लोगों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया जो हिन्दू धर्म से निकली हुई ही एक शाखा थी। आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया; इसके दस्तावेजों को सामने लाने की जरूरत है, क्योंकि दलित राजनीति के नाम पर खतरनाक खेल खेला जा रहा है, जिसमें जातीय भेदभाव के अंत का लक्ष्य है ही नहीं। अगर जातीय भेदभाव का अंत होने लगे तो ऐसे लोगों की राजनीति ही खत्म हो जाएगी।यहां यह भी याद दिलाने की आवश्यकता है कि जब रैम्जे मैक्डोनाल्ड ने दलितों के लिए अलग चुनाव क्षेत्र की घोषणा की तो अनेक दलित नेता उससे सहमत थे, बाबा साहब भी उससे आरंभ में सहमत थे। किंतु गांधी जी ने अनशन आरंभ कर दिया और जो वातावरण बना उसमें बाबा साहब ने गांधी जी की बात मान ली और अंग्रेजों को समाज तोड़ने का अपना यह सूत्र वापस लेना पड़ा। यह इसलिए हुआ क्योंकि बाबा साहब दलितों का उद्धार तो चाहते थे, लेकिन उसके नाम पर अंग्रेज या दूसरे कोई हमें बांटकर अपनी राजनीति सेंके, इसके पक्ष में नहीं थे। आज अगर वे जिन्दा होते तो दलितों के नाम पर हो रही आक्रामक दलित राजनीति के चरित्र के निश्चय ही खिलाफ होते।