-देविंदर शर्मा- उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लघु व सीमांत किसानों की एक लाख रुपये तक की कर्ज माफी के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य पर 80 लाख टन गेहूं की खरीद का भी फैसला किया है। मुङो नहीं मालूम कि वह अपने फैसले से देश के कृषि क्षेत्र के काया-कल्प को लेकर किस तरह का एहसास रखते हैं, मगर एक ऐसे वक्त में, जब किसान तेजी से कर्ज के जाल में फंस रहे हैं, 30, 729 करोड़ रुपये की कजर्-माफी निश्चय ही प्रदेश के 88.68 लाख छोटे व सीमांत किसानों को राहत देगी। इसके साथ-साथ, राज्य सरकार ने यह भी फैसला किया है कि वह 5, 630 करोड़ रुपये के डूब-कर्ज को भी माफ करेगी, जिसकी देनदारी सात लाख किसानों पर है। अगर राज्य सरकार इसके लिए आगे नहीं आती, तो शायद इन किसानों की संपत्ति नीलाम करने की नौबत जा जाती। अगर दोनों कर्ज माफी की राशि को जोड़ दें, तो कुल 36, 359 करोड़ रुपये की राहत किसानों को दी गई है। सरकार की मानें, तो इससे उत्तर प्रदेश के कुल 2.15 करोड़ लघु व सीमांत किसानों में से 95.68 लाख किसानों को फायदा मिलेगा। यह सही है कि यह माफी चुनावों में किए गए वायदे के पूरी तरह अनुकूल नहीं है, मगर जिस राजनीतिक साहस के साथ यह फैसला लिया गया है, उसकी तारीफ की जानी चाहिए। तब तो और, जब हम देखते हैं कि नीतियां बनाने वाले लोग किसान समुदाय को कोई रियायत देने के पक्ष में नहीं हैं। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चेयरपर्सन अरुंधति भट्टाचार्य ने तो कहा भी है कि कजर्-माफी किसानों की ‘क्रेडिट डिसिप्लिन’ यानी कजर्-अनुशासन के खिलाफ है और उन्हें जान-बूझकर कर्ज न चुकाने को प्रेरित करती है। मेरा मानना है कि उद्योगपतियों और किसानों, दोनों को एक चश्मे से देखे जाने की जरूरत है। साल 2012 से 2015 के दरम्यान, उद्योग क्षेत्र के 1.14 लाख करोड़ रुपये के डूबे कर्ज को माफ किया गया। हैरानी की बात है कि इसके लिए किसी भी राज्य सरकार को अपने राजस्व का हिस्सा देने को नहीं कहा गया। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी, इंडिया रेटिंग्स का तो यह अनुमान है कि निकट भविष्य में भी उद्योग जगत के ऐसे चार लाख करोड़ कर्ज माफ किए जाएंगे। जाहिर है, इसका भार भी किसी राज्य की सरकार पर नहीं पड़ेगा। लिहाजा यह सवाल पूछा जाना चाहिए और मुङो उम्मीद है कि योगी आदित्यनाथ इस मसले को जरूर उठाएंगे कि आखिर उत्तर प्रदेश सरकार पर ही कर्ज माफी का भार क्यों डाला जाना चाहिए? राष्ट्रीयकृत बैंक जिस तरह से कॉरपोरेट लोन माफ करते हैं, क्या उसी तरह वे किसानों के मामले में नहीं कर सकते? सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने जितनी माफी दी है, वह एक बड़ी स्टील कंपनी द्वारा डूबे कर्ज से भी कम है। इस कंपनी पर 44, 140 करोड़ रुपये का बकाया है। जबकि एक दूसरी स्टील कंपनी पर भी 44, 478 करोड़ रुपये का कर्ज है। ये दोनों उन तमाम स्टील कंपनियों में शामिल हैं, जो 1.5 लाख करोड़ की कर्ज माफी की मांग कर रही हैं। जब किसी भी राज्य सरकार को अपने राजस्व से इसकी भरपाई करने को नहीं कहा जा रहा, तो फिर कृषि-ऋण का बोझ उन पर क्यों डाला जाता है? बहरहाल, यह सही है कि उत्तर प्रदेश के इस साहसिक कदम से दूसरे राज्यों पर भी ऐसे कजरे को माफ करने का दबाव बढ़ेगा। पंजाब की नई सरकार ने तो किसानों के करीब 36, 000 करोड़ रुपये के कर्ज को माफ करने का काम शुरू भी कर दिया है। महाराष्ट्र भी 30, 500 करोड़ का कृषि-ऋण माफ करने की मांग करने लगा है। कर्नाटक, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, हरियाणा, ओडिशा और पूवरेत्तर राज्यों में भी कर्ज माफी की मांग जोर पकड़ेगी। पिछले 21 वर्षो में देश भर में करीब 3.18 लाख किसानों की आत्महत्या और इनमें से 70 फीसदी मामलों की वजह उनका कर्ज के जाल में घिरे होने पर अगर गौर करें, तो उत्तर प्रदेश सरकार का फैसला क्रांतिकारी लगेगा। उत्तर प्रदेश के मुखिया ने खेती-किसानी की बेहतरी के लिए भी एक खाका खींचा है। 80 लाख टन गेहूं की खरीद भी एक ऐसी पहल है, जो कृषि के एक नए युग की शुरुआत कर सकती है। इस खरीद के लिए 5, 000 केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं। जाहिर है, जिस दौर में एग्रीकल्चर प्रोडयूस मार्केटिंग कमेटी (एपीएमसी) द्वारा नियंत्रित मंडियां खत्म करने को लेकर नीतियां तय की जा रही हों और इस क्रम में न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिये किसानों को एक तय मूल्य न देकर उनकी चिंता बढ़ाई जा रही हो, तब उत्तर प्रदेश सरकार का किसानों को एक तय मूल्य अदा करने का फैसला खेती को पुनर्जीवन दे सकता है। 80 लाख टन गेहूं की खरीद एक लंबी छलांग है, क्योंकि 2016-17 में 30 लाख टन के लक्ष्य के मुकाबले महज 7.97 लाख टन गेहूं की ही खरीद हुई। चूंकि किसानों की कम आमदनी बढ़ते कृषि संकट की बड़ी वजह है, इसलिए एक तयशुदा राशि का मिलना और बाजार की उपलब्धता खेतिहर समुदाय की आशंका को कम करेगा। खरीद-प्रणाली का विस्तार भारतीय कृषि में बदलाव के लिए महत्वपूर्ण है। कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के मुताबिक, देश भर में 7, 000 से अधिक एपीएमसी नियंत्रित मंडियां हैं। यदि गांवों में पांच किलोमीटर के दायरे में बाजार उपलब्ध कराया जाए, तो देश भर में 42, 000 मंडियों की जरूरत पड़ेगी। अगर मंडियों का यह नेटवर्क बन जाता है, तो किसान न सिर्फ अपनी उपज को बेचने के संकट से पार पा सकेगा, बल्कि उसकी आय-सुरक्षा भी सुनिश्चित हो सकेगी। उत्तर प्रदेश इसकी पहल करता है, तो वह पथ-प्रदर्शक सूबा बनकर तो उभरेगा ही, कृषि का एक नया मॉडल भी प्रस्तुत करेगा। फिलहाल मंडियों का मजबूत नेटवर्क पंजाब, हरियाणा और कुछ हद तक मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में है। इसी कारण हर साल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अपना गेहूं ट्रकों में भरकर हरियाणा के सीमावर्ती जिलों में बेचने के लिए जाते रहे हैं। यह एक संकेत है कि उत्तर प्रदेश के गेहूं किसान स्थानीय तौर पर समर्थन मूल्य पर अपनी उपज नहीं बेचते। उम्मीद की जा सकती है कि उत्तर प्रदेश सरकार अब धान की अगली फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बोनस की घोषणा भी करेगी। यह छिपा तथ्य नहीं है कि आर्थिक रूप से आकर्षक खेती ही वह पहला कदम है, जो गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन को रोकता है। और योगी आदित्यनाथ तो कहते भी हैं कि उनका लक्ष्य गांवों से पलायन को रोकना है। (लेखक कृषि विशेषज्ञ हैं और ये लेखक के अपने विचार हैं)