भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर गुमराह करती पार्टी

asiakhabar.com | April 8, 2017 | 1:40 pm IST
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-हरीश राय- दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। अभी पार्टी के लिए विज्ञापनों में जनता की गाढ़ी कमाई खर्च करने के आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर जारी ही था, कि उपराज्यपाल अनिल बैजल को लिखे एक खत ने केजरीवाल को नई मुसीबतों में डाल दिया है। वैसे तो वित्तीय अनियमितताओं के कई आरोप दिल्ली सरकार की पोल खोलने के लिए काफी हैं, लेकिन ताजा मामला तो मुख्यमंत्री की विश्वसनीयता व जनता के भरोसे का गला घोंट रहा है। गौरतलब है कि अरविंद केजरीवाल ने वित्त मंत्री अरुण जेटली पर दिल्ली एवं डिस्ट्रिक्ट क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष पद पर रहने के दौरान वित्तीय गड़बड़ियों का आरोप लगाया था, जिसके बाद वित्त मंत्री ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था। वित्त मंत्री ने केजरीवाल सहित आम आदमी पार्टी के 6 नेताओं पर मानहानि का मुकदमा दाखिल किया था और अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के बदले 10 करोड़ की मांग की। केजरीवाल व अन्य ‘आप’ नेताओं की तरफ से कानूनी प्रक्रिया के लिए जाने-माने अधिवक्ता राम जेठमलानी ने मोर्चा संभाला। मीडिया में आ रही खबरों की मानें, तो इसी केस की अब तक की सुनवाई के एवज में राम जेठमलानी ने अरविंद केजरीवाल को 3.8 करोड़ रुपये का बिल भेजा है। इसमें उन्होंने एक करोड़ रुपये रिटेनरशीप के तौर पर तथा 22 लाख रुपये प्रत्येक पेशी की फीस के तौर पर मांगे हैं। बेशक राम जेठमलानी जैसे बड़े अधिवक्ता की तरफ से अपनी फीस व रिटेनरशीप के लिए इतनी बड़ी राशि की मांग में कुछ आश्चर्यजनक नहीं है, लेकिन दुखद यह है कि मुख्यमंत्री इस राशि के भुगतान के लिए जनता के पैसे का उपयोग करना चाहते हैं। इस बिल के भुगतान के लिए उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया ने कानून मंत्रालय को निर्देशित किया था, लेकिन अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर होने के नाते कानून मंत्रालय ने उपराज्यपाल को खत लिख कर इसकी अनुमति मांगी। इस खत के सार्वजनिक होने के बाद से ही दिल्ली की राजनीतिक हवा में गर्मी बढ़ गई है। एक तरफ जहां आम आदमी पार्टी अपने बचाव में तरह-तरह के बयानों का सहारा ले रही है, वहीं विपक्ष इस मामले को कोर्ट ले जाने की धमकी दे रहा है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर वित्तीय अनियमितता का यह पहला मामला है। इससे कुछ दिन पूर्व ही उपराज्यपाल ने आम आदमी पार्टी से 97 करोड़ रुपये की वसूली का आदेश जारी किया था। अदालत के निर्देश पर बनी एक जांच समिति ने यह पाया था कि जनकल्याणकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाने के बजाय आम आदमी पार्टी खुद का विज्ञापन कर रही थी। काफी शोरगुल के बाद सफाई देते हुए आम आदमी पार्टी के प्रवक्ताओं की तरफ से यह कहा गया था कि उस समिति को ऐसा कोई अधिकार नहीं था, जिसके तहत वह पार्टी के विज्ञापन पर खर्च हुए जनता के पैसे की वसूली का सुझाव दे सके। अगर ‘आप’ के इस बचाव को मान भी लिया जाए, तो यह समझना मुश्किल हो रहा है कि आखिर ‘आप’ को दिल्लीवासियों के खून-पसीने की कमाई को पार्टी के विज्ञापनों में खर्च करने का अधिकार किसने दिया है? वित्त मंत्री की तरफ से दायर मानहानि के मुकदमे का फैसला कब आएगा, इस बारे में कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता है और केजरीवाल एंड पार्टी की तरफ से नियुक्त अधिवक्ता की फीस पर गौर करें, तो करोड़ों रुपये खर्च होने में कोई संदेह नहीं है। तो फिर इसकी भरपाई जनता के पैसे से ही क्यों? क्या मुख्यमंत्री केजरीवाल ने वित्त मंत्री पर गंभीर आरोप लगाने से पहले दिल्ली की जनता से यह पूछा था? जाहिर सी बात है, नहीं पूछा था। तो फिर उनकी व्यक्तिगत लड़ाई दिल्ली की लड़ाई कैसे हो गई? अभी तक तो नेताओं पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वो जनता के पैसे का दुरुपयोग करते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर बड़े-बड़े घोटालों के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता है। घोटालों के लिए कानूनी प्रक्रिया है, जिनके तहत घोटालेबाजों पर कार्रवाई की जाती है। लेकिन केजरीवाल के मामले को किस रूप में देखा जाए? इस बारे में ‘आप’ के एक प्रवक्ता का ऐसा कहना है कि अरुण जेटली केजरीवाल के मुकाबले काफी अमीर हैं, इसलिए केजरीवाल को यह अधिकार मिल जाता है कि वो जनता का पैसा अपने मुकदमे की सुनवाई में खर्च कर सकते हैं। इस बारे में केजरीवाल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वो इस बिल का भुगतान अपनी जेब से नहीं करने वाले हैं। उनका यह मानना है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आप सरकार की लड़ाई को कमजोर करने के लिए यह पूरा विवाद पैदा किया जा रहा है। अगर केजरीवाल के इन तर्कों को स्वीकार कर भी लिया जाए कि वित्त मंत्री अरुण जेटली पर उनका बयान भ्रष्टाचार से लड़ाई का एक हिस्सा था, तो भी यह मानना मुश्किल हो रहा है कि एक मुख्यमंत्री के तौर पर वो केवल ट्विटर पर ही जंग जारी रखना क्यों पसंद करते हैं? अगर केजरीवाल के पास वित्त मंत्री द्वारा दिल्ली एवं डिस्ट्रिक्ट क्रिकेट एसोसिएशन में किए गए घोटाले और विसंगतियों के सबूत हैं, तो फिर वह उनको सार्वजनिक करने से क्यों हिचक रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि केजरीवाल के पास वित्त मंत्री के खिलाफ वैसे ही साक्ष्य हैं, जैसा कि दिल्ली में विधानसभा चुनावों से पूर्व उनके पास तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ थे? ये अलग बात है कि अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री भी बन गए, लेकिन शीला दीक्षित पर अब तक किसी तरह की कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकी है। जुबानी आरोप-प्रत्यारोप आम नागरिकों को शोभा देता है, लेकिन अगर किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री केंद्रीय वित्त मंत्री की व्यक्तिगत छवि को सरेआम नुकसान पहुंचा रहा है, तो उसके पास इससे संबंधित आधार जरूर होने चाहिए। ईमानदारी की राजनीति के युग की शुरुआत करने निकले अरविंद केजरीवाल अब खुद पर नित लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों से अपना दामन बचाने में नाकामयाब हो रहे हैं। ऐसा कौन सा आरोप है, जो केजरीवाल के छोटे से राजनीतिक जीवन का हिस्सा नहीं बन गया हो? नियुक्तियों में सगे-संबंधियों को वरीयता देने से लेकर निराधार आरोप मढ़ने व प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ताक पर रखकर उन्हें अपशब्द कहने जैसे तमाम उदाहरण हैं, जो केजरीवाल की हकीकत को बयां करते हैं। बात यहीं खत्म हो जाती, तो फिर भी कुछ हद तक नजरअंदाज किया जा सकता था। लेकिन हद तो तब हो गई, जब अंधविरोध के चक्कर में केजरीवाल ने सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक के साक्ष्य सार्वजनिक करने की मांग को बार-बार दोहराया। इसकी परिणति यह हुई कि केजरीवाल पाकिस्तान में खबरों का अहम हिस्सा रहे और उनकी एक नई पहचान उजागर हुई, जिसने उन्हें पाकिस्तान का नया रहनुमा बना दिया। यह समझना कठिन हो रहा है कि भ्रष्टाचार को मिटाने का दम्भ भरने वाले केजरीवाल दिल्ली चुनावों के अलावा होने वाले सभी चुनावों में भ्रष्टाचार का जिक्र करने से क्यों परहेज कर रहे हैं? इससे संबंधित एक सच यह भी है कि भले ही केजरीवाल भ्रष्टाचार से लड़ाई की बातें करते रहें, लेकिन दूसरी तरफ उनकी नाक के नीचे ही भ्रष्टाचार होता रहा है। इसको इसी से समझा जा सकता है कि दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों में हो रही विसंगतियों की जासूसी के लिए केजरीवाल ने सतर्कता विभाग के अधीन एक जासूसी टीम का गठन किया था, जिसका प्रमुख कार्य इन स्कूलों की गैरकानूनी व संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखना व इससे संबंधित सूचनाएं एकत्र करना था। यहां याद रखने वाला तथ्य यह है कि इस जासूसी टीम गठन की जानकारी सतर्कता विभाग को भी नहीं थी और यह टीम सीधे मुख्यमंत्री केजरीवाल को रिपोर्ट कर रही थी। मुख्यमंत्री की तरफ से इस टीम के वेतन व अन्य खर्चों के लिए एक करोड़ रुपये का मद अलग रखा गया था। साथ ही उनके लिए गाड़ियों के साथ-साथ कम्पयूटर सहायकों सहित अन्य सुविधाओं का पूरा इंतजाम किया गया था। यह टीम लगभग पिछले एक साल से अपने अभियान में लगी थी, लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि इस दौरान इस टीम को कोई सफलता नहीं मिली। अलबत्ता अब यह टीम ही सवालों के घेरे में है। इस बारे में ताजा घटनाक्रम यह है कि अब इस टीम पर ही भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी व धन उगाही जैसे गंभीर आरोप लगे हैं और इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई है। इससे सवाल यह उठता है कि क्या मुख्यमंत्री केजरीवाल खुद की गठित टीम ही पर नियंत्रण नहीं रख पाए या विस्तृत जांच के बाद कोई और पहलु सामने आने वाला है? अभी तो कुछ कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन किसी भी नजरिए से यह केजरीवाल की विफलता ही है। इसके साथ ही यह भी साबित हो गया है कि भ्रष्टाचार अब केजरीवाल के मुद्दे में कहीं शामिल नहीं है। उनका भी केवल एक ही मकसद है, येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना।


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