कविता – बूंद-बूंद के लिए भी तरस जाओगे

asiakhabar.com | April 25, 2025 | 5:28 pm IST

संजय एम तराणेकर
अब तो बूंद-बूंद के लिए भी तरस जाओगे,
क्यों? नाहक बहाया लहू तुम पछताओगे।
पहले से ही नाकारा हो रही थी ये जिंदगी,
परवरदिगार भी देकर क्या? करता बंदगी।
सोचों खून की होली से क्या हुआ हासिल,
बद्दुआएँ ही निकली और मरे हो तिल-तिल।
अब तो बूंद-बूंद के लिए भी तरस जाओगे,
क्यों? नाहक बहाया लहू तुम पछताओगे।
खेती ख्वाब हो गई-सिंचाई नाराज हो गई,
सिंधू की मोहब्बत आप सबसे दूर हो गई।
इस मंजर की तो कल्पना भी ना की होगी,
आसीम तेरे लिए यही सज़ा मुंसिफ़ होगी।
अब तो बूंद-बूंद के लिए भी तरस जाओगे,
क्यों? नाहक बहाया लहू तुम पछताओगे।
सोचना जरूर कौन-कौन अपने वफादार,
जिनके मुंह से टपकती रहीं जिहादी लार।
कौनसी हूरों से मिलवा रहें थे ये कलाकार,
मृत्यु के बाद कैसी जिंदगी बता रज़ाकार।


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