-आनंदमूर्ति गुरुमां-
मैं आपके हाथ जीवनभर सुखी रहने की चाबी थमा देती हूं, अगर आप उसे ठीक से संभाल सको, तो कृपया संभाल लेना। चाबी यही है कि जब-जब आपका मन ठहर जाएगा, वहीं पर आपको सच्चा सुख और आनंद मनाने का मौका मिलता है। और जब भी आपका मन अस्थिर रहेगा, आपको दुख, तनाव और चिंताएं घेर लेती हैं। तब आप उन चीजों की तलाश में दर-दर भटकते फिरते हैं, जिन चीजों से आपको लगता है कि सुख मिलेगा। जब आपको अपनी मनचाही चीज मिल जाती है, तब अचानक थोड़ी देर के लिए आपका मन ठहर जाता है। जैसे ही आपका मन ठहर जाता है, आप अपने ही आनंद में मग्न हो जाते हैं। थोड़ी देर बाद वह चीज तो वहीं पर पड़ी रह जाती है, और आपका मन सुख की तलाश में किसी और चीज की तरफ आकर्षित हो जाता है। पर जब आपको थोड़ी देर सुख मिला था, वह इसलिए कि आपका मन उस समय ठहर गया था।
हर क्षण जब आपका मन ठहर जाता है, आप अपने ही भीतर सुख का अनुभव करते हैं। इस मन को ठहराने का तरीका है आपकी श्वसन क्रिया में। जैसे ही आप अपनी श्वसन क्रिया को शांत करते हैं, आपका मन ठहरने लगता है और जब भी मन ठहर जाता है, आप स्वतः सुख का अनुभव करते हो। बाह्य जगत में हमें सुख पाने के लिए वस्तुओं और व्यक्तियों का गुलाम बनना पड़ता है। लेकिन अपने श्वासों को शांत करके अपने ही भीतर मिलने वाले असीम आनंद को पाने में हम अत्यंत स्वतंत्र महसूस कर सकते हैं।
श्वासों को शांत करने से वहीं और उसी क्षण जैसे ही आपका मन ठहर जाता है, आपका सुख आपको तुरंत मिल जाता है। उसके लिए इस दुनिया के किसी भी व्यक्ति या वस्तु से पीछा छुड़ाने की हमें कोई जरूरत नहीं है, हमें सिर्फ अपने मन से मुक्त होने की जरूरत है। जैसे ही आप अपने मन से मुक्त हो जाते हैं, चैतन्यस्वरूप परमात्मा का प्रकाश आपके जीवन को भर देता है। पर अपने ही भीतर के इस चैतन्य के प्रकाश को आप कैसे देख पाएंगे? सच तो यह है कि जैसे ही आप अपने भीतर उसे देखने में कामयाब हो जाएंगे, जल्दी ही आप बाहर भी उसे देखने लग जाएंगे। लेकिन ज्ञान के बिना आप इस प्रकाश को नहीं देख सकेंगे। प्रश्न यह उठता है कि अगर परमात्मा मेरे ही हृदय में विराजमान हैं, तो उसके लिए मैं क्यों प्यासा हूं? इस मन के अधिष्ठान में परमात्मा ही है, परमात्मा ही आपके मन का सर्वस्व है। फिर भी आपका मन उसके लिये तड़पता है।
कबीर कहते हैं, जल विच मीन पियासी, मोहे देखत आवे हासी यानी पानी में रह कर भी मछली पानी के बिना प्यासी है। आपके मन का अधिष्ठाता परमात्मा है। आप परमात्मा में ही रहते हैं, फिर भी आप परमात्मा से वंचित रहते हैं, दुखी होते हैं और अपने आपको हजार चीजों में उलझाये रखते हैं। जब आपका मन ठहर जाता है, उसी क्षण उस प्यारे के प्रेम की बरसात आपके दिल में होने लगती है। मन को श्वसन क्रिया की अलग-अलग विधियों द्वारा ठहराया जा सकता है, जिससे आपके हृदय के उपवन में परमात्मा के असीम प्रेम की बरसात होने लगती है। अपने आसपास की ध्वनियों को सुनें, उन्हें आत्मसात करें, अपने श्वास में पिरोएं। आपके अंदर जब प्रेम भरने लगेगा, आप खुद अपने आपको मुक्त पाएंगे। परमात्मा के साथ अपना एकाकार करने के लिए बस आपको अपने अंदर की ध्वनि सुननी होगी, अपने श्वासों के माध्यम से। आप दुख और सुख में एकलीन हो जाएं। कुछ समय बाद आप ना दुख को महसूस करेंगे ना सुख को। बल्कि चैबीसों घंटे एक अलग दुनिया में विचरण करेंगे। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए योगी, साधू और तपस्वी ना जाने क्या-क्या जतन करते हैं।
परमात्मा को क्या चाहिए? यह सवाल अपने आप से भी जानिए कि आपको क्या चाहिए? जल आपके पास है, वायु आपके पास है, धरती आपके समीप है। इससे अधिक क्या? मोह की मुक्ति की शुरुआत अपने भीतर से करिए। श्वास को आते-जाते महसूस कीजिए और कल्पना कीजिए कि आप मुक्त हो रहे हैं दुखों से, छल-कपट और निष्ठुरता से। यही है सुख की चाबी। दुखों से मुक्ति सुख नहीं है। मुक्ति को पाना और समीप से महसूस करना ही असली सुख है।