राजनीतिक हस्तक्षेप से त्रस्त शिक्षा संस्थान

asiakhabar.com | May 22, 2024 | 5:34 pm IST
View Details

-प्रियंका सौरभ-
भारतीय उच्च शिक्षा, जो कभी बौद्धिक स्वतंत्रता का प्रतीक थी, राजनीतिक हस्तक्षेप के बढ़ते खतरे का सामना कर रही है। यह हस्तक्षेप अकादमिक उत्कृष्टता की नींव – स्वायत्तता और स्वतंत्रता को कमजोर करता है और अनुसंधान, शिक्षण और छात्र चर्चा पर भयावह प्रभाव डालता है। राजनीतिक हस्तक्षेप से त्रस्त शिक्षा संस्थान, विश्वविद्यालयों में नियुक्तियां योग्यता और प्रतिभा के आधार पर होनी चाहिए. केंद्र और राज्य सरकारों को इस लक्ष्य को हासिल करने का उपक्रम करना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता मिले और शिक्षा संस्थान राजनीति हस्तक्षेप से मुक्त हों। उन्हें राजनीति का अखाड़ा नहीं बनने दिया जाना चाहिए। विश्वविद्यालय शैक्षणिक सुधारों के बजाय राजनीतिक हितों के पोषण का केंद्र न बनने पाएं। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति केंद्र सरकार और राज्यों के विश्वविद्यालयों में राज्य सरकारें करती हैं। जिस राज्य में जिस पार्टी की सरकार होती है, वह अपने चहेतों को कुलपति नियुक्त करती है। हर राज्य में इस तरह के उदाहरण हैं।
पाठ्यचर्या संबंधी निर्णय राजनीतिक लक्ष्यों से प्रभावित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, विशेष राष्ट्रीय आख्यानों को आगे बढ़ाने या संवेदनशील विषयों पर सेंसर वार्ता को आगे बढ़ाने की पहल की गई है। यह आलोचनात्मक सोच के साथ-साथ व्यापक शिक्षा को भी बाधित करता है। यदि संकाय और छात्र अलग-अलग राय व्यक्त करने के नकारात्मक परिणामों से डरते हैं तो वे राजनीतिक दबाव के कारण आत्म-सेंसर कर सकते हैं। यह ईमानदार चर्चा और परेशान करने वाली सच्चाइयों की खोज को रोकता है। विडंबना है कि शिक्षा के तमाम पाठ्यक्रम, जिन्हें अब कार्यक्रम कहा जा रहा है, पुराने ढर्रे के हैं। कोई भी शैक्षणिक सुधार पाठ्यक्रम को एकांगी होने के दोष से बचाकर, उच्च शिक्षा तथा शोध का मान उन्नत करके ही संभव है। शोध का मान तब उन्नत होगा, जब गंभीर शोध और सतत अध्ययन का रचनात्मक परिवेश निर्मित हो। यह परिवेश निर्मित कर ही युवा शक्ति को सकारात्मक और सृजनशील ढंग से ऊर्जस्वित किया जा सकता है, पर त्रासदी है कि उच्च शिक्षा की विषय वस्तु और प्रक्रिया प्राय: विदेशी ज्ञान को मानक मानकर की जाती रही है, जिसके परिणामस्वरूप हम अपनी परंपरा से कटकर दूर चले गए हैं।
राजनीतिक कारक अनुसंधान निधि और प्रोफेसर पदों के वितरण पर प्रभाव डाल सकते हैं। यह योग्यता को नष्ट करता है और संभावित विवादास्पद अनुसंधान को रोकता है। राजनीतिक हस्तक्षेप से विश्वविद्यालयों की स्वशासन की क्षमता कमजोर हो सकती है। इससे सर्वोत्तम उम्मीदवारों को नियुक्त करने और अपने स्वयं के शैक्षणिक लक्ष्य स्थापित करने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है। विश्वविद्यालयों ने कभी-कभी प्रशासनिक पदों पर राजनीतिक रूप से संबद्ध व्यक्तियों की नियुक्ति देखी है, जिससे निर्णय लेने में संभावित पूर्वाग्रह के बारे में चिंताएं बढ़ गई हैं। यदि कुलपति की नियुक्ति इस आधार पर होगी कि वह सत्तारूढ़ दल या उसके मुखिया का कितना करीबी है तो क्या उससे शैक्षणिक सुधार लाने की उम्मीद बेमानी नहीं होगी? कहने की जरूरत नहीं कि नियुक्तियां योग्यता और प्रतिभा के आधार पर होनी चाहिए, न कि राजनीतिक पसंद के आधार पर। विश्वविद्यालय मेधाओं का निर्माण करते हैं। यदि राजनीतिक विचारधारा के कारण मेधाओं की उपेक्षा होगी तो उसके घातक परिणाम होंगे।
यह विशेष रूप से सामाजिक विज्ञान और मानविकी में देखा जाता है, जहां वरिष्ठ शिक्षाविद भी उस काम को प्रकाशित करने से डरते हैं जिसके बारे में उन्हें लगता है कि इससे राज्य के अधिकारियों से उनके लिए समस्याएं पैदा हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, प्रताप भानु मेहता और समीना दलवई जैसे बुद्धिजीवी। सरकारी नीतियों के खिलाफ शांतिपूर्ण छात्र विरोध प्रदर्शनों को कभी-कभी भारी कार्रवाई का सामना करना पड़ता है, परिसर में मुक्त भाषण और असहमति को रोक दिया जाता है। उदाहरण के लिए, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में। कुछ मामलों में, सरकारों ने राजनीतिक रूप से असुविधाजनक समझी जाने वाली पुस्तकों या विषयों को पाठ्यक्रम से हटाने का प्रयास किया है।
प्राय: देखा जाता है कि राजनीतिक पसंद-नापसंद के आधार पर सरकारें विश्वविद्यालयों को धन आवंटित करती हैं। राज्याश्रित होने के कारण विश्वविद्यालयों को राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ता है। राज्यों के विश्वविद्यालय संसाधन की कमी के कारण समस्याग्रस्त रहते हैं और सरकार के मुखापेक्षी बने रहते हैं। प्राचीन काल में शिक्षा राज्याश्रित नहीं थी। इसीलिए तब गुरु की स्वतंत्र सत्ता होती थी। तब शिष्यों को नैतिक और बौद्धिक रूप से गुरु गढ़ता था और शिष्य के व्यक्तित्व के निर्माण को अपना धर्म मानता था। आज की शिक्षा न दुराग्रहों से मुक्त है, न राजनीतिक बाधाओं से। आज की शिक्षा समावेशी भी नहीं है। आज तक न तो एकसमान पाठ्यक्रम लागू हो पाया, न एकसमान शिक्षा की सुविधा उपलब्ध कराई गई।
भारत राजनीतिक हस्तक्षेप के जोखिमों को समझकर और सक्रिय उपायों को लागू करके यह गारंटी दे सकता है कि उसकी उच्च शिक्षा प्रणाली बौद्धिक जांच और आलोचनात्मक विचार के लिए एक वास्तविक स्थान बनी रहेगी, जो एक समृद्ध लोकतंत्र और टिकाऊ भविष्य के लिए आवश्यक है। आज अभिभावक अपनी संतान को इस तरह की शिक्षा दिलाते हैं जिनसे करियर बने और यथेष्ठ धनोपार्जन हो। आदर्श स्थिति यह है कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जो विद्यार्थी को बेहतर मनुष्य बनाए। बेहतर मनुष्य ही बेहतर नागरिक होगा, जिसके लिए देश और देशहित सर्वोपरि होगा। केंद्र और राज्य सरकारों को इस लक्ष्य को हासिल करने का उपक्रम करना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता मिले और शिक्षा संस्थान राजनीति हस्तक्षेप से मुक्त हों। उन्हें राजनीति का अखाड़ा नहीं बनने दिया जाना चाहिए।
विश्वविद्यालय शैक्षणिक सुधारों के बजाय राजनीतिक हितों के पोषण का केंद्र न बनने पाएं। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति केंद्र सरकार और राज्यों के विश्वविद्यालयों में राज्य सरकारें करती हैं। जिस राज्य में जिस पार्टी की सरकार होती है, वह अपने चहेतों को कुलपति नियुक्त करती है। हर राज्य में इस तरह के उदाहरण हैं। यदि कुलपति की नियुक्ति इस आधार पर होगी कि वह सत्तारूढ़ दल या उसके मुखिया का कितना करीबी है तो क्या उससे शैक्षणिक सुधार लाने की उम्मीद बेमानी नहीं होगी? कहने की जरूरत नहीं कि नियुक्तियां योग्यता और प्रतिभा के आधार पर होनी चाहिए, न कि राजनीतिक पसंद के आधार पर। विश्वविद्यालय मेधाओं का निर्माण करते हैैं। यदि राजनीतिक विचारधारा के कारण मेधाओं की उपेक्षा होगी तो उसके घातक परिणाम होंगे।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *