-तनवीर जाफ़री-
भारतीय चुनावों में ईवीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के इस्तेमाल का विरोध एक बार फिर बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। आये दिन कोई न कोई राजनैतिक व सामाजिक संगठन राजधानी दिल्ली में ईवीएम विरोधी प्रदर्शन कर रहे हैं। दरअसल भारत में पहली बार प्रयोग के तौर पर ईवीएम का इस्तेमाल 1982 में केरल की पारुर विधानसभा क्षेत्र में किया गया था। बाद में 1999 के लोकसभा चुनावों में देश में ईवीएम का प्रयोग देश के कुछ सीमित निर्वाचन क्षेत्रों में किया गया। इसके पश्चात 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद से भारत में प्रत्येक लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव में मतदान की प्रक्रिया पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन द्वारा ही संपन्न करायी जाने लगी। ईवीएम का प्रयोग शुरू से ही विवादित रहा है। सच पूछिये तो भारत का प्रत्येक राजनीतिक दल व उनके अनेक बड़े नेता कभी ना कभी ईवीएम का विरोध कर चुके हैं। जब से ईवीएम का इस्तेमाल हो रहा है तब से अभी तक शायद ही कोई चुनाव ऐसा गुज़रा हो जहाँ ईवीएम को लेकर सवाल न उठे हों या संदिग्ध परिस्थितियों में संदिग्ध स्थानों से ईवीएम मशीनें न पायी गयी हों। ऐसे आरोप भी लगे हैं कि मतदाता ईवीएम के द्वारा अपना वोट तो किसी और पार्टी के उम्मीदवार को देते हैं परन्तु वह जाता किसी दूसरे उम्मीदवार के खाते में है।
स्वयं भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने यहां तक कि 2009 के आम चुनाव के बाद पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी ईवीएम पर सवाल उठाए थे। भाजपा नेता जी.वी.ल नरसिम्हा राव ने तो “लोकतंत्र ख़तरे में” शीर्षक से ईवीएम पर एक पुस्तक भी लिखी थी। इसी किताब में उन्होंने यहां तक लिखा था कि “मशीनों के साथ छेड़छाड़ हो सकती है, अतः भारत में इस्तेमाल होने वाली इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन भी इसका अपवाद नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब एक उम्मीदवार को दिया वोट दूसरे उम्मीदवार को मिल गया है या फिर उम्मीदवारों को वह मत भी मिले हैं जो कभी डाले ही नहीं गए।” भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी ईवीएम पर सवाल उठा चुके हैं। परन्तु देश के बदलते राजनैतिक परिवेश में आज स्थिति यह है कि कभी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के इस्तेमाल का सबसे प्रबल विरोध करने वाले दल व इनके नेता इस विषय पर आज ख़ामोश हैं। संभव है कि पूर्व में इन्होंने अपनी सुविधा-असुविधा व राजनैतिक नफ़े नुक़सान या फिर चुनाव परिणामों के अनुसार पहले तो ईवीएम का विरोध किया हो परन्तु चूँकि अब उन्हीं को ईवीएम से होने वाले चुनाव परिणाम प्रायः मुआफ़िक़ आते हैं लिहाज़ा शायद अब वही लोग अन्य दलों व उनके नेताओं के ईवीएम विरोध को ख़ारिज कर रहे हों?
परन्तु सबसे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर दुनिया के कौन कौन से देश ऐसे हैं जहाँ चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल शुरू तो किया गया परन्तु इसे बाद में बंद कर पुनः बैलट पेपर पर चुनाव कराये जाने लगे। और क्या वजह थी कि यह देश ईवीएम जैसी आधुनिक वोटिंग प्रणाली को छोड़ कर पुनः बैलट पेपर जैसी पुरानी व ख़र्चीली व्यवस्था पर उतर आये? ऐसे देशों में जापान प्रमुख देश है जहां 2002 में ईवीएम से वोटिंग शुरू की गई थी। वहां की सरकार को उम्मीद थी कि ईवीएम के इस्तेमाल से चुनावों में पारदर्शिता आयेगी। परन्तु ऐसानहीं हुआ। ख़र्चीली होने व पारदर्शी ना होने के चलते 2016-17 में जापान सरकार ने पुनः बैलट से मतदान करवाने का निर्णय लिया। इसी तरह इंग्लैंड ने भी चुनावों में ईवीएम के इस्तेमाल से परहेज़ किया। इंग्लैंड ने चुनावों में पारदर्शिता व निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिये राजनीतिक चुनावों में ईवीएम जैसे आधुनिक तरीक़ों के इस्तेमाल से ख़ुद को दूर रखा। जनवरी 2016 में, यूके संसद ने खुलासा किया कि वैधानिक चुनावों के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग शुरू करने की उसकी कोई योजना नहीं है। इसी तरह जर्मनी में तो केवल दो मतदाताओं ने जर्मन संवैधानिक न्यायालय के समक्ष इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन ईवीएम की निष्पक्षता पर सवाल उठाया था परिणाम स्वरूप जर्मन संवैधानिक न्यायालय ने वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया और इसके प्रयोग को असंवैधानिक क़रार दे दिया। इसी तरह नीदरलैंड ने भी ईवीएम के इस्तेमाल पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगा दिया है कि उनमें पारदर्शिता की कमी है। बांग्लादेश चुनाव आयोग ने भी पिछले दिनों हुये अपने 12वें संसदीय चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल नहीं किया। बांग्लादेश सरकार द्वारा यह निर्णय प्रमुख विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा ईवीएम के विरुद्ध किये गये प्रचंड विरोध के बाद लिया गया था। आयरलैंड भी उन देशों में है जिसने ने ईवीएम के उपयोग पर तीन वर्षों तक 51 मिलियन पाउंड से अधिक ख़र्च करने के बावजूद ईवीएम में विश्वास और पारदर्शिता की कमी का हवाला देते हुए ईवीएम को समाप्त कर दिया और पुनः बैलट पेपर की ओर वापस आ गया। और भी कई देश इस सूची में शामिल हैं जो ईवीएम से सिर्फ़ इसलिये तौबा कर चुके हैं ताकि उनके देशों में चुनाव निष्पक्ष व पारदर्शी हो सकें।
अब भारत में भी ईवीएम के इस्तेमाल के विरुद्ध न केवल देश के अधिकांश विपक्षी राजनैतिक दल लामबंद हैं बल्कि अनेक प्रतिष्ठित समाजसेवी, समाजसेवी संगठन व सुप्रीम कोर्ट के अनेक वरिष्ठ अधिवक्ता, तमाम क़ानूनविद भी ईवीएम के इस्तेमाल के विरुद्ध सड़कों पर हैं। यह और बात है कि ‘गोदी मीडिया’ इन ईवीएम विरोधी प्रदर्शनों की ओर तवज्जोह नहीं दे रहा है। जबकि ईवीएम का प्रबल विरोध करने वाले कई वरिष्ठ क़ानूनविद यहाँ तक कह रहे हैं कि वे किसी भी सूरत में 2024 के आम चुनाव ईवीएम से नहीं होने देंगे। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या वजह कि ईवीएम के व्यापक विरोध और विरोध के तर्कों के बावजूद सरकार इस प्रणाली से पीछा छुड़ाकर पुनः बैलट पेपर से चुनाव की व्यवस्था क्यों नहीं कर रही? ऐसे में यह देखना होगा दिलचस्प होगा कि ‘मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी’ भारत वर्ष में चुनाव पूर्व होता ईवीएम का व्यापक विरोध आख़िरकार क्या रंग लायेगा?