-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
चुनावों की सफलता के लिए राजनैतिक दलों ने परम्परागत नीतियों-रीतियों में परिवर्तन करना शुरू कर दिया है। विरोधी विचारधारा के साथ आत्मसात करने वालों को सब्जबाग दिखाने का अभियान चलाया जा रहा है। उन्हें टिकिट देने, महात्वपूर्ण पद देने, लाभ के अवसर प्रदान करने, व्यक्तिगत हितों को संरक्षण देने जैसे वायदों का बाजार गर्म होता जा रहा है। नेताओं ने अभिनेताओं को अपनी प्रतिभा से पछाडना शुरू कर दिया है। न्यूज चैनल्स के ज्यादा धार्मिक चैनलों पर आने की होड मच गई है। देश के विभिन्न भागों में आयोजित होने वाले धार्मिक आयोजनों में पार्टियों के दिग्गजों की भागीदारी दर्ज हो रही है। कोई मंच से सनातन का संकल्प दोहराता है तो कोई चंदन, माला और भगवां दुपट्टा डालकर फोटो खिंचवा रहा है। कोई क्षेत्रीय धार्मिक आयोजनों को संरक्षण देने की शपथ ले रहा है तो कोई अपने साथियों के साथ मंदिरों में माथा टेक रहा है। जिन दलों ने राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह अंकित किये थे वे आज मंदिरों की खाक छान रहे हैं। जिन्होंने पूजा-अर्चना पर रोक लगाई थी उनके उत्तराधिकारी आराधना के नये श्लोक सुना रहे हैं। सोमनाथ मंदिर जाने पर देश के प्रथम राष्ट्रपति की दुर्दशा करने वालों के परिवारजनों ने परिस्थितियों को भांपते हुए हरी बनियान के ऊपर भगवां का कुर्ता पहनना शुरू कर दिया है ताकि पार्टी के स्थाई वोटों के साथ-साथ अन्य भावनात्मक लोगों को भी अपने चुनाव चिन्ह का बटन दबाने के लिए प्रेरित किया जा सके। वर्तमान समय में देश भर में धार्मिक आयोजनों की बाढ सी आ गई है। लोगों की चर्चाओं पर विश्वास करें तो इनमें से ज्यादातर कार्यक्रम किसी न किसी राजनैतिक दल व्दारा ही पर्दे के पीछे से प्रायोजित हो रहे हैं। श्रध्दालुओं की भीड में बगला भक्तों की घोषणायें नित नये कीर्तिमान गढने में जुटीं हैं। गजवा-ए-हिन्द के जवाब में हिन्दू राष्ट्र के स्वर उठने लगे हैं। इन स्वरों में भी खासी प्रतिस्पर्धा देखने को मिल रही है। किसी का मुद्दा कोई चुरा रहा है तो किसी के लम्बे शोध को कोई टिप्पणी में प्रकाशित करके वाहवाही लूटने में लगा है। कोई चन्दनधारी इस्लाम की वकालत करके सोशल मीडिया से थैलियां भर रहा है तो कोई जालीदार टोली लगाकर इस्लाम के सिध्दान्तों की कटु व्याख्याओं वाले वीडियो जारी कर रहा है। कहीं सनातन को सलाखों के पीछे पहुंचाया जा रहा है तो कहीं पंडितों को मनगढन्त कथानकों से बदनाम करने की चालें चली जा रहीं हैं। कहीं जातिवादी जहर घोला जा रहा है तो कहीं सम्प्रदायवाद का विष वमन हो रहा है। चुनावी काल में षडयंत्र के नये नये हथकण्डे खोजे जा रहे हैं। राजनैतिक चेहरों की बहस से ऊब चुकी आवाम को धार्मिक चैनलों के माध्यम से आकर्षित करने के उपाय मूर्त रूप ले रहे हैं। कहीं कथाओं, पुराणों, उपनिषदों के ज्ञानयज्ञ में आहुतियों के क्रम चलाया जा रहा है तो कहीं महायज्ञ की वेदी में स्वाहा के उच्चारण के साथ साकिल्य निवेदित किया जा रहा है। इन भीड वाले अधिकांश कार्यक्रमों के मंचों पर खाकी के साथ खद्दरधारियों की जमात मौजूद रहती है। वे आयोजकों की अतिशयोक्ति भरी प्रशंसा के साथ-साथ अपनी पार्टी की नीतियों को शब्दों की सुगन्ध में लपेटकर प्रस्तुत करते हैं। भीड के मध्य पहले से मौजूद उनके खास सिपहसालार तालियों की गडगडाहट करके समूचे पंडाल का समर्थन दिखाते हैं ताकि वहां उपस्थित जनसमुदाय को मानसिक उपचार देकर पक्ष में किया जा सके। देश में ईवेन्ट आर्गनाइजेशन के लेकर पब्लिक रिलेशन एजेन्सीज़ की भरमार हो गई है। बडे चेहरों को छोटे मंचों पर लाने से लेकर आम आवाम को सब्जबाग दिखाने तक की कीमतें पूर्व निर्धारित हो जातीं हैं। अभी तक केवल एक्जैक्ट पोल देने वाली कम्पनियां सामने आईं थीं जबकि सब कुछ मैनेज करने वाली संस्थायें पीछे से ही सलाह, सहयोग और सहायता करतीं थी परन्तु अब तो वे भी खुलकर खेल रहीं हैं। लोकप्रियता के मापदण्ड बदल गये हैं। चैनल, अखबार, सोशल मीडिया, साइबर प्लेटफार्म, होडिंग्स, पोस्टर, लुभावने गिफ्ट, रोजमर्रा की सामग्री आदि के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक सूत्रों का सहारा भी लिया जा रहा है। एआई यानी आर्टिफिशियल इन्टेलिजेंसी के उपयोग का फैशन भी चल निकला है जबकि इसने वाइस क्लोनिंग जैसे साइवर अपराधों को जन्म देना शुरू कर दिया है। प्रचार के लिए पहनावा, संवाद, हाव-भाव तक का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। अनेक धार्मिक संस्थायें भी पीआर एजेन्सी, एआई के सेवा प्रदाताओं के निर्देशों का अक्षरश: पालन करती दिख रहीं हैं। देश में समस्याग्रस्तों से लेकर हरामखोरों तक को प्रभावित करने के लिए अलग-अलग हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं। भौतिक परेशानियां हों या फिर दैहिक कठिनाइयां, सभी के लिए शब्दों की जुगाली करने वाले मंच मिल जायेंगे। फिल्मों की तरह नायक-नायिका बनकर इन मंचों पर बैठने वाले केवल मुंह चलाते हैं, पर्दे के पीछे से गाना तो एजेन्सी के प्रशिक्षक गायक ही गाते हैं। भारी भरकम पंडाल में बैठे लोगों की भीड को लगता है कि मंचासीन अतिथि में नेतत्व करने वाले सारे गुण मौजूद हैं। भ्रम पैदा करके अतिथि को धनबल, जनबल और बाहुबल के साथ-साथ सामर्थवान घोषित कर दिया जाता है। अतिथियों के साथ खाकीधारियों की मौजूदगी से उनका रुतबा कई गुना बढ जाता है तिस पर महंगी कार, वाहनों का काफिला, नारे लगाती प्रायोजित भीड सोने में सुगन्ध का काम करती है। अनेक स्थानों पर तो उडन खटोलों का भी अनावश्यक उपयोग किया जाता है। यह दिखावे का रोग अब प्रचार के भूखे अहंकारियों के सिर चढकर बोलने लगा है। यह सब चुनावी काल में कई गुना बढकर मंहगाई को निरंतर ऊंचाइयों पर पहुंचाने का कारक बनाता है। उचित नहीं है धार्मिक मंचों से राजनैतिक संदेशों का प्रसारण परन्तु अहंकार, लालच, प्रतिष्ठा, सम्मान जैसे विकारों को त्यागने का ढोंग करने वाले रात के अंधेरे में उन्हीं के पीछे दौड रहे हैं। तृष्णा, मोह, माया को त्यागने पर प्रवचन देकर गरीबों के मसीहा बनने वाले अनेक लोग स्वयं इन्हीं में आकण्ठ डूबते जा रहे हैं। लाल बत्ती, हूटर, साइरन, पायलेट, गनर, फोलो, कमान्डो जैसी अतिविशिष्ट पहचान के लिए धर्म के पदों पर विराजमान अनेक लोग अब राजनैतिक दलों की झोलियों की शोभा बनते जा रहे हैं। धर्म के ठेकेदारों को समस्याग्रस्तों के आंसुओं की कीमत पर राजनेताओं का हुक्का भरने की आदत पडती जा रही है। समस्याओं से निजात दिलाने का प्रदर्शन करके भीड जुटाने वाले संविधान की विधायिका और कार्यपालिका पर वर्चस्व कायम करते जा रहे हैं। यह धर्म का राजनीतिकरण है जबकि सनातनी भारत में राजनीति ने हमेशा ही धर्म का अनुपालन किया है। धर्म को निष्पक्ष धारणा के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है जिसमें मानव मात्र तो एक समान माना गया था। समस्त चराचर को अहिंसा के सिध्दान्त पर स्वीकारोक्ति मिली थी। इतिहास के पन्नों में सिमट चुके कथानकों के साथ-साथ अब तो सामाजिक मर्यादायें भी दफन हो चुकीं है। ऐसे में रोकना होगा धर्म के मंचों से राजनीति का शंखनाद तभी सर्वे भवन्तु सुखिन: के आदर्श वाक्य की पुनस्र्थापना संभव हो सकेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।