महाभागवत राजर्षि प्रियव्रत के वंश में नाभि नाम के एक परम प्रतापी तथा धार्मिक राजा हुए। उनका विवाह मेरु की पुत्री मेरुदेवी के साथ हुआ। बहुत दिनों तक उनके कोई संतान नहीं हुई। उन्होंने पुत्र कामना से अपनी पत्नी के साथ श्रद्धा भक्ति से भगवान यज्ञ पुरुष का पूजन किया। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान उनके सामने प्रकट हुए। भगवान का दर्शन प्राप्त करके ऋत्विजों सहित महाराज नाभि ने उनकी स्तुति की। ऋत्विज बोले- प्रभो! राजर्षि नाभि आप ही जैसे पुत्र कामना से आपकी प्रसन्नता के लिए यज्ञ कर रहे हैं। अतः आपको इनकी कामना पूर्ण करनी चाहिए। भगवान बोले- ऋषियों! मेरे समान दूसरा कोई हो नहीं सकता। अतः आप लोगों की बात रखने के लिये मैं स्वयं ही मेरुदेवी के माध्यम से अपने अंश रूप में अवतार ग्रहण करूंगा। यह कहकर भगवान अंतध्र्यान हो गये।
समय आने पर महाराज नाभि के यहां एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। उसके चरणों में वज्र, अंकुश आदि के चिन्ह प्रकट होते ही दिखायी देने लगे। बालक के अनुपम सौन्दर्य को जो भी देखता वही मोहित हो जाता था। बालक के जन्म के साथ ही महाराज नाभि के राज्य में संपूर्ण ऐश्वर्य उपस्थित हो गये। पिता ने उस अनुपम बालक का नाम ऋषभ रखा। महाराज नाभि के राज्य में अतुल ऐश्वर्य को देखकर इंद्र को बड़ी ईषर्या हुई। उन्होंने इनके राज्य में वर्षा बंद कर दी। भगवान ऋषभदेव ने अपनी योगमाया के प्रभाव से इंद्र के प्रयत्न को निष्फल कर दिया और इंद्र ने उनसे अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी। भगवान ऋषभदेव को विद्याध्ययन के लिये गुरुगृह भेजा गया और ये थोड़े ही काल में सभी विद्याओं में पारंगत होकर घर लौट आये। इनका विवाह इंद्र की कन्या जयन्ती से हुआ। पुत्र को हर प्रकार से योग्य जानकर महाराज नाभि भगवान ऋषभदेव को राज्य सिंहासन पर बैठाकर तपस्या के लिए बदरिकाश्रम चले गये। जयन्ती के द्वारा भगवान ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए। उनमें सबसे बड़े पुत्र का नाम भरत था। उसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ।
भगवान ऋषभदेव साक्षात अपने स्वरूपानुभव में निमग्न होने के कारण रागादि दोषों से रहित, प्राणिमात्र के हित में तत्पर तथा स्वभाव से सबके ऊपर दया करने वाले थे। यद्यपि वे स्वयं धर्म के रहस्य के ज्ञाता थे, तथापि लोक संग्रह के लिए ब्राम्हणों के आदेशानुसार उनसे पूछकर शास्त्रोक्त कर्मों का संपादन करते थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में सौ अश्वमेध यज्ञ किये। उनके राज्य में सभी लोग फल की आशा त्यागकर केवल भगवान की प्रसन्नता के लिये ही कर्म करते थे।
भगवान ऋषभदेव ने समस्त प्रजा के सामने अपने पुत्रों को मोक्ष धर्म का अति सुंदर उपदेश दिया और कहा- तुम लोग निष्कपट बुद्धि से अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। इससे मेरी ही सेवा होगी। तदनन्तर भगवान ऋषभदेव अपने बड़े पुत्र भरत को राज्यभार सौंपकर दिगम्बर वेष में वन को चले गये और संसार को परमहंसों के आचरण की शिक्षा देते हुए उन्होंने कालान्तर में अपने शरीर को दावाग्नि में भस्म करके अपनी लौकिक लीला का संवरण किया। यही भगवान ऋषभदेव जैनियों के आदि तीर्थकर भी माने जाते हैं।