भारत में नकली दवाओं के उत्पादन और प्रसार का बाजार करीब 35,000 करोड़ रुपए का है। यह कोई सामान्य आंकड़ा नहीं है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कितने व्यापक स्तर पर नकली दवाएं बनाई जा रही हैं और औसत बीमार आदमी को बेची जा रही हैं! कितनी बीमारियां घनीभूत हो रही हैं और कितनों पर मौत का साया मंडरा रहा है? यह बाजार इतना व्यापक कैसे बना, यह हमारी प्रशासनिक और जांच संस्थाओं पर बड़ा सवाल है। ये नकली दवाएं, जिन्हें औषधि कहना ही गलत और पाप है, किसी गांव में या उपेक्षित कस्बे के किसी कोने में चुपचाप नहीं बनाई जा रही हैं, बल्कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र गाजियाबाद में धड़ल्ले से बनाई जाती रही हैं। गाजियाबाद में औषधि विभाग, अपराध शाखा और पुलिस के हालिया छापे में 1.10 करोड़ रुपए की नकली दवाएं बरामद की गई हैं। इनके अलावा, कंपनी कितनी दवाइयों का उत्पादन और वितरण कर चुकी होगी, इसका कोई निश्चित आंकड़ा छापा एजेंसियों ने नहीं दिया है। गाजियाबाद से लेकर यह नापाक और जानलेवा धंधा तेलंगाना, महाराष्ट्र तक फैला है। कोई गंभीर सजा नहीं। कोई गंभीर वार नहीं। कोई प्रशासनिक हस्तक्षेप और खौफ नहीं। आश्चर्य है कि जहां से नकली दवाएं पकड़ी गई हैं, वे मधुमेह, रक्तचाप और गैस सरीखी गंभीर बीमारियों की ब्रांडेड औषधियों की नकली दवाएं थीं। दवा बनाने वाली कंपनी ने ब्रांडेड औषधियों के असली पत्तों, पैकेजिंग और प्रिंटिंग मशीनों का जुगाड़ कहां से किया? अथवा नकली ‘बार कोड’ कैसे छाप दिए? या फर्जी बैच नंबर कैसे लिख दिए गए? ये बेहद महत्वपूर्ण और नाजुक सवाल हैं। आश्चर्य तब ज्यादा होता है, जब इन फर्जी कंपनियों के प्रतिनिधि डॉक्टरों के पास जाते हैं, उन्हें लुभावनी पेशकश के पैकेज दिए जाते हैं, जाहिर है कि ऐसे डॉक्टर भी नकली दवाएं लिखते होंगे! वे भी अपने पेशे, नैतिक संकल्प और मानवीय जिंदगियों से खिलवाड़ करते हैं। अमरीका और यूरोपीय देशों ने भी शिकायतें की हैं कि भारत में 20-25 फीसदी दवाएं नकली बेची जाती हैं। बेशक भारत की आबादी 142 करोड़ से अधिक है।
उतने ही अनुपात में लोग बीमार होते हैं, लिहाजा उतनी ही दवाओं की मांग बनी रहती है। चिंतित पहलू यह भी है कि ऐसे नकलीबाज दवा कारोबारियों को जो कानूनी सजा मिलती रही है, वह अपेक्षाकृत बहुत कम है। अधिकतर मामलों में वे जमानत पर छूट जाते हैं या रसूखदारों की सिफारिशों पर उन्हें रिहा कर दिया जाता है। दरअसल यह परोक्ष रूप से हत्या के मामले हैं। चूंकि यह धंधा ही देश के साथ शत्रुता के समान है, लिहाजा यह देशद्रोह भी है। नई ‘न्याय संहिता’ में इसका दंड तय किया गया होगा, लिहाजा अब उन धाराओं में इन कारोबारियों को दंडित किया जाना चाहिए। हमने तेलंगाना का जिक्र किया था। तेलंगाना सरकार ने ‘मेग लाइफ साइंसेज’ द्वारा निर्मित 33 लाख रुपए से ज्यादा की तीन दवाओं की जांच की थी। उनमें औषधि का कोई भी तत्त्व नहीं पाया गया। औषधि नियंत्रण प्रशासन ने खुलासा किया था कि उन नकली दवाओं में केवल चॉक पाउडर और स्टार्च मिलाया गया था। तेलंगाना में पकड़ी गई कंपनी ने कागज पर हिमाचल में मुख्यालय होने का दावा किया था, लेकिन वहां भी ऐसी कोई कंपनी नहीं पाई गई। न जाने ऐसी कितनी कंपनियां देश में ‘जहर’ बेच रही हैं? बीते सप्ताह उत्तराखंड में भी ऐसे ही नकली दवाओं के रैकेट का पर्दाफाश किया गया था। चूंकि ये सभी दवा निर्माता इनसान की जिंदगी से खेलते रहे हैं, लिहाजा इन्हें भी ‘मृत्यु-दंड’ दिया जाना चाहिए। हमारा सुझाव अतिशयोक्ति वाला हो सकता है, लेकिन जो लोग मौत के विक्रेता हों, तो उन्हें कैसा दंड दिया जाए और कैसे प्रावधान हैं, चलो, उन्हें अदालत के विशेषाधिकार के अधीन सौंपते हैं। यह हजारों करोड़ का कारोबार देश की प्रख्यात दवा कंपनियों के लिए भी खतरा हैं, क्योंकि उन्हीं के ब्रांड पर नकली दवाएं बेची जा रही हैं। खबरें तो ऐसी भी हैं कि ये नकली दवाइयां रसूखदार एजेंटों के जरिए सरकारी अस्पतालों में भी सप्लाई की जाती रही हैं। यानी सामूहिक नरसंहार का खेल खेला जा रहा है। क्या सरकार को यह साजिश, कुकर्म और तिजौरियां भरने के लालच का दुष्चक्र नहीं पता? हम यह मानने को तैयार नहीं हैं। इसी के साथ जो डाक्टर नकली दवाएं मरीजों के लिए लिखते हैं, उन पर भी कड़ी से कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। डाक्टरों को जब नॉन प्रेक्टिसिंग एलाउंस दिया जा रहा है, तो उन्हें कम से कम यह फर्ज तो निभाना ही चाहिए कि वे मरीजों के हकों के लिए लड़ें।