-तनवीर जाफ़री-
जिस भारत देश में स्कूली शिक्षा में प्राइमरी कक्षा की इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में सभी धर्मों के महापुरुषों की जीवन गाथा केवल इसी मक़सद से पढ़ाई जाती थी ताकि देश के कर्णधार बच्चों को न केवल उनके व्यक्तित्व के बारे में पता चल सके बल्कि उनके प्रति आदर, सत्कार, सम्मान व स्नेह भी पैदा हो। आज उसी देश में सद्भाव व सौहार्द की नहीं बल्कि साम्प्रदायिक नफ़रत के बीज बोने जैसा ख़तरनाक खेल खेला जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के लाख मना करने व चेतावनी देने के बावजूद देश के मुख्य धारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया के फ़ेस बुक, वॉट्सएप्प व एक्स (ट्विटर) जैसे अनेक प्लेटफ़ॉर्म्स पर धड़ल्ले से साम्प्रदायिकता का ज़हर उगला जा रहा है। चूँकि मीडिया व सोशल मीडिया इस तरह के विषवमन करने वाले अनेक तत्वों को उन्हें प्रचारित कर ‘हीरो’ बना चुका है और ऐसे अनेक स्वयंभू धर्मगुरु से लेकर अपराधी प्रवृत्ति के तत्वों तक समाज में ज़हर घोल कर व साम्प्रदायिक नफ़रत फैलाकर आज के दौर के चर्चित व्यक्ति बन चुके हैं और प्रसिद्धि हासिल कर चुके हैं, अतः इन्हीं का अनुसरण कर मानो नफ़रत के कारोबारियों की पूरी फ़ौज धड़ल्ले से मैदान में उतर आई है और बेफ़िक्र होकर समाज में नफ़रत का ज़हर घोल रही है। इनमें से अधिकांशतः समाज के निठल्ले, बेरोज़गार, अपेक्षित, अशिक्षित, साम्प्रदायिकतावादी, पूर्वाग्रही तथा सामाजिक एकता को नापसंद करने वाली जन्मजात सोच रखने वाले लोग शामिल हैं। इन्हें मालूम है कि चूँकि उनके इस नफ़रती अभियान से सत्ता पक्ष ख़ुश होगा, उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होगी, और सम्भव है कि नफ़रत फैलाने में ज़्यादा महारत रखने का ‘सफल प्रदर्शन’ करने पर उन्हें किसी ‘रेवड़ी’ से भी नवाज़ दिया जाये।
पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी ने तेलंगाना राज्य में अपने प्रत्याशियों की जो सूची जारी की उसमें एक नाम विधायक टी राजा सिंह का भी था। पार्टी ने उन्हें इस बार भी उनकी गोशामहल सीट से मैदान में उतारने का फ़ैसला किया है। टी राजा 2014 से इसी सीट से चुनाव जीतते आ रहे हैं। इनका संक्षिप्त परिचय यह है कि यह रानजीति में आने से पूर्व बजरंग दल से जुड़े थे। हमेशा विवादों से घिरे रहने वाले टी राजा के विरुद्ध अनेक थानों में 75 से भी अधिक एफ़आईआर दर्ज हैं। इनमें से अधिकांश प्राथमिकी हेट स्पीच, लॉ एंड ऑर्डर के उल्लंघन और कर्फ़्यू के आदेशों के उल्लंघन जैसे मामलों में दर्ज हैं। पिछले कुछ समय से राजा सत्ता द्वारा मिलती जा रही लगातार छूट या शह से उत्साहित होकर कुछ ज़्यादा ही नफ़रत उगलने लगे थे। टी राजा की पूरी राजनीति व शोहरत ही नफ़रत की बुनियाद पर तिकी रही है। उन्होंने 2017 में बॉलीवुड फ़िल्म पद्मावत की रिलीज़ को लेकर मचे हंगामे के दौरान भी कई विवादित बयान दिए थे। उन्होंने हैदराबाद के पुराने शहर को मिनी पाकिस्तान बताया था। जुलाई, 2017 में उन्होंने बंगाल में हिंदुओं से 2002 के गुजरात दंगों की तरह जवाब देने को कहा था।
इस तरह 2018 में उन्होंने रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर कहा था कि अगर वह देश नहीं छोड़ते तो उन्हें गोली मार देनी चाहिए। उन्होंने मुसलमानों की धार्मिक किताब क़ुरआन पर प्रतिबंध लगाने को भी कहा था और इसे ग्रीक पुस्तक बताते हुए क़ुरआन को देश में आतंकवाद का कारण बताया था। उनकी इसी नफ़रत पूर्ण पोस्ट की वजह से 2020 में उन्हें फ़ेस बुक ने प्रतिबंधित भी कर दिया था। ऐसा करते समय फ़ेस बुक ने कहा था कि टी राजा ने उस पॉलिसी का उल्लंघन किया है, जो हिंसा और नफ़रत को बढ़ावा देने या उसमें शामिल होने वाले लोगों को फ़ेस बुक पर उपस्थिति से रोकता है। कभी वे पैग़ंबर मोहम्मद को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी करते सोशल मीडिया पर नज़र आते तो कभी एक मुस्लिम हास्य कलाकार मुनव्वर फ़ारूक़ी का शो होने पर स्टेज को आग लगा देने की धमकी देते सुनाई देते। इस धमकी के बाद उन्हें पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। उसी समय भाजपा ने उनके बयानों से किनारा करते हुये कहा था कि ये उनके निजी विचार हैं और पार्टी इसका समर्थन नहीं करती। और फिर उन्हें पार्टी से निलंबित भी कर दिया गया था। और अब उसका निलंबन समाप्त कर भाजपा द्वारा पुनः उसी विवादित व नफ़रत फैलाने वाले व्यक्ति को प्रत्याशी बनाने का आख़िर क्या अर्थ है?
इसी तरह जब भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे व स्वतंत्र भारत के पहले आतंकवादी हत्यारे नाथू राम गोडसे को देशभक्त बताती हैं तो प्रधानमंत्री उनसे रुष्ट होने का बयान तो ज़रूर देते हैं परन्तु उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं करते? अनुराग ठाकुर व तेजस्वी सूर्य जैसे कई लोग नफ़रत फैलाने के बाद पदोन्नत होते दिखाई देते हैं। कोई शस्त्र धारण करने का आवाह्न समुदाय विशेष से कर रहा है तो किसी ने सोशल मीडिया पर तलवारों की दुकान ही खोल रखी है। कोई चाक़ुओं की धार तेज़ रखने को कह रहा है तो कोई दस पांच बच्चे पैदा करने की सलाह दे रहा है। ऐसे माहौल में कौन नहीं चाहेगा कि हिंसा व नफ़रत की आग में ही तपकर क्यों न सत्ता के क़रीबियों में अपना शुमार किया जाये? अनजानी व गुमनामी भरी ज़िंदिगी जीने वाले लोग भला क्यों न चाहेंगे कि केवल नफ़रती पोस्ट के ज़रिये धर्म ध्वजा बुलंद कर क्यों न ‘प्रसिद्धि’ की राह तय की जाये? और अब तो नफ़रत का यह बाज़ार इतनी कुरूपित हो चुका है कि यही नफ़रती ट्रोल फ़िलिस्तीन में इस्राईलियों द्वारा किये जा रहे नरसंहार का जश्न मना रहे हैं और बार बार हमास या फ़िलिस्तीनियों को ही ग़लत, लड़ाई का ज़िम्मेदार यहाँ तक कि उन्हीं को क्रूर ठहराने पर तुले हैं? नफ़रत के कई सौदागर इस्राईली सेना के पक्ष में लड़ने के लिये जाने को तैयार बता रहे हैं तो कई ने तो अपनी प्रोफ़ाइल पर भारतीय तिरंगे की जगह इस्राईली ध्वज तक लगा दिया है। रेवड़ी व शोहरत हासिल करने के इस शार्ट कट पर चलने में भी इस समय गोया प्रतिस्पर्धा सी मची हुई है। शम्भू रैगर व मोनू मानेसर जैसे अनेक गुंडे मवाली ही नहीं बल्कि स्वयं को पढ़े लिखे कहलाने का शौक़ पालने वाले अनेकानेक स्वयंभू लेखक, कवि, प्रेरक, प्रवचनकर्ता, लेक्चरबाज़, यहाँ तक कि सत्ता लोभी अनेक फ़िल्मी लोग व तमाम स्वयंभू पत्रकार भी इस अंधी रेस में दौड़ लगा रहे हैं। सवाल यह है कि नफ़रत के बाज़ार में हिंसा व नफ़रत के सौदागरों द्वारा सोशल मीडिया पर पूरी आज़ादी से इस क़द्र नफ़रत फैलाना और उनका बिना किसी क़ानूनी बाधा के उनका बेलगाम घूमना यह सब समाज को विभाजित करने का एक सुनियोजित षड़यंत्र नहीं तो और क्या है?