-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
पिछले कुछ दशकों से कनाडा दुनिया भर के आतंकवादियों का स्वर्ग बन चुका है। उनमें से कुछ आतंकवादी गिरोह ऐसे हैं जिन्हें कनाडा सरकार मारना चाहती है और कुछ आतंकवादी समूह ऐसे हैं जिन्हें कनाडा की सरकार पालती है। कनाडा के भीतर ही बहुत से लोग मानते हैं कि एयर इंडिया जहाज को, जिसमें 368 यात्रियों की जान गई थी, बम से नष्ट करने में जिन लोगों का हाथ था, उनकी जांच में लापरवाही हुई थी। यह लापरवाही दुर्योग था या षड्यन्त्र, इसका खुलासा कनाडा की सरकार अभी तक नहीं कर रही। भारत से गए कुछ गिने चुने लोग भी कनाडा में भारत विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हैं। लेकिन वे अनेक गैंग में बंटे हुए हैं। ये गैंग नशों के व्यापारी भी हैं। मानव तस्करी भी इसी में शामिल है। लेकिन अपने असली कामों और चेहरे को छिपाने के लिए ये गैंग भारत विरोध गतिविधियों और भारत को तोडऩे की साजिशों का भी हिस्सा बने रहते हैं। यह इनका दूसरा चेहरा है। सुरक्षा और समर्थन के लिए इनको मजहब का सहारा लेना पड़ता है, ताकि आम लोगों को धोखा दिया जा सके। मध्यकालीन एक संत ने कहा था, ‘काले मेंडे कपड़े, काले मेंडे लेख। काले कम्मीं मैं फिरां, लोक कहन दरवेश। ’ अर्थात मेरे कपड़े भी काले हैं और मेरा नसीब भी काला है। मैं बुरे काम करता हूं, लेकिन मेरी ये हरकतें देख कर भी लोग मुझे दरवेश समझते हैं। लेकिन ऐसा क्यों है? क्योंकि काले कामों पर मजहब की चादर डाल रखी है। कनाडा में जिन गैंग की चर्चा हो रही है, उनके बारे में यही कहा जा सकता है।
ऐसा नहीं कि ये सभी गैंग आपस में घी शक्कर हैं। जहां तक शाब्दिक या क्रियात्मक भारत विरोध का सवाल है, वहां तक तो इन सभी गैंग में मतैक्य है, लेकिन जहां नशों के व्यापार का प्रश्न है वहां तो प्रतिद्वन्द्विता होगी ही। उसी में एक दूसरे गैंग के लोग मारे भी जाते हैं। लेकिन असली सवाल अभी भी अनुत्तरित है। कनाडा ऐसे गैंग की सहायता क्यों करता है? इस प्रकार के भारत विरोधी हिंसक उग्र समूहों को कनाडा प्रश्रय क्यों देता है? यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसका उत्तर इतिहास में तलाशना होगा। लेकिन इससे पहले कनाडा का मीडिया इस संबंध में क्या कहता है, उसको समझ लेना भी लाभदायक रहेगा। ओटावा सिटीजन के अनुसार, ‘कनाडा आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला अनओफिशियल राज्य बन गया है। ’ कनाडा के इंटैलीजेंस विभाग के हिस्सा रहे डेविड बी. हेरिस के अनुसार, ‘दि पोलिटिकल कनक्लूजन एंड बैटरेयल, दि करप्शन ऑफ इमिग्रेशन एंड एथनोकल्चरल लॉबिंग सिस्टम्स दैट जस्टिफाई फियर्स दैद, दि पीसेबल किंगडम ऑफ कैनेडा, इन ऑन दि वे आउट। ’ हेरिस के इस विश्लेषण में पोलिटिकल कनक्लूजन यानी राजनीतिक सहभागिता शब्द पर ध्यान देना बहुत जरूरी है।
खासकर भारत विरोधी आतंकवादी गैंग को लेकर कनाडा की वर्तमान नीति के रहस्य इसी में छिपे हुए हैं। कनाडा का सर्वाधिक सम्मानित अखबार ‘दि ग्लोब एंड मेल’ जो लिखता है, उसमें उसने माना है कि कनाडा आतंकी समूहों को प्रोत्साहन व संरक्षण दे रहा है। इन सभी विश्लेषणों में प्रत्यक्ष या परोक्ष कनाडा सरकार की सहभागिता का जिक्र आता है। जहां तक पंजाब को लेकर कनाडा में सक्रिय आतंकवादी समूहों को प्रश्रय या राजनीतिक सहायता देने का सवाल है, उसके बारे में ज्यादातर यह कह कर छुटकारा पा लिया जाता है कि कनाडा में सरकार चला रही लिबरल पार्टी के पास संसद में अपना स्पष्ट बहुमत नहीं है। यह पार्टी सरकार चलाने के लिए न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थन पर टिकी है और इस एनडीपी के कुछ लोग भारत को तोडऩे की साजिश में लगे हुए हैं। इसलिए वहां के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को मजबूरी में इन भारत विरोधी गैंग का समर्थन करना पड़ता है। लेकिन यह तर्क या विश्लेषण पूरी स्थिति का बहुत ज्यादा सरलीकरण ही कहा जा सकता है। मामला कहीं बहुत गहरा है।
वह उन पांच आंखों में छिपा हुआ है जिसकी कनाडा में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद आजकल मीडिया में बहुत चर्चा हो रही है। ये पांच आंखें हैं- इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड। इन पांच आंखों द्वारा दावा किया जा रहा है कि ये आपस में मिलकर देखती हैं। अपने देखे गए रहस्यों को एक दूसरे को बता भी देती हैं। जो देखा है, उसका मिलकर ही विश्लेषण करती हैं। इनका यह भी दावा है कि संसार की कोई घटना इन पांच आंखों से छिपी नहीं है। ऊपर से देखने पर ये आंखें पांच ही दिखाई देती हैं और साधारण दर्शकों के लिए हैं भी पांच ही। लेकिन वास्तव में ये पांच नहीं बल्कि एक ही आंख का विस्तार है। मूल आंख इंग्लैंड की है जिसका अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में विस्तार हुआ है। ये देश ऊपर से देखने पर पांच देश दिखाई देते हैं लेकिन सांस्कृतिक-सामाजिक लिहाज से यह सब इंग्लैंड का ही प्रसार है। इनमें यूरोप के अन्य देशों के लोग भी हैं, लेकिन बहुमत व नियंत्रण इंग्लैंड मूल के आंग्लभाषी लोगों का ही है। सांस्कृतिक लिहाज से ये देश एक इकाई ही हैं। इंग्लैंड वाली आंख उम्र के लिहाज से बूढ़ी हो गई है तो उसने दूसरी चार आंखें विकसित कर ली हैं। दरअसल कनाडा और यूएसए, जिन्हें उत्तरी अमेरिका कहा जाता है, में इंग्लैंड के लोग आज से लगभग चार सौ साल पहले पहुंचे थे। वहां जो उस समय लोग रहते थे, उन्हें इंडियन ही कहा जाता था। वे लगभग पन्द्रह हजार साल पहले एशिया से वहां जाकर बसे थे। इंग्लैंड के लोगों ने उन्हें मारकर वहां कब्जा कर लिया। बाद में इन्होंने आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी यही किया। लगभग उसी समय ये भारत में भी आए और यहां भी दो सौ साल तक यहां के लोगों को गुलाम बनाए रखा। 1947 में इन्हें यहां से मजबूरी में जाना पड़ा। उसके साथ ही इंग्लैंड की आर्थिक और सैनिक शक्ति का पतन होने लगा।
लेकिन अब तक इंग्लैंड चार अन्य रूपों में प्रकट हो चुका था। उनमें भी यूएसए की ताकत बढ़ रही थी। यहां तक कि अमेरिका सुपर पावर का रूप अख्तियार कर गया था। लेकिन अब एशिया के दो बड़े देश चीन और भारत भी मैदान में आ गए थे। नेहरु ने चीन के साथ मिल कर विश्व राजनीति में एशिया का महत्वपूर्ण स्थान बनाने की कोशिश की, लेकिन चीन ने धोखा दे दिया। रूस और अमेरिका विश्व राजनीति के दो धुरे बन चुके थे। चीन तीसरा धुरा बनने के प्रयास में था लेकिन भारत ने शायद 1962 के बाद से सांस्कृतिक लिहाज से भी और राजनैतिक लिहाज से भी अपने आप को विश्व राजनीति के पिछवाड़े में सीमित कर लिया था। इन पांच आंखों के लिए यह सबसे अनुकूल स्थिति थी। लेकिन भारत में लगभग दस साल पहले नरेन्द्र मोदी के आ जाने के बाद स्थिति बदल गई। भारत ने अपनी सांस्कृतिक जड़ों को फिर से टटोलना शुरू कर दिया। उन सामाजिक व्यवस्थाओं के लिए जो ‘सोशल स्ट्रक्चरर्स ऑफ दि बुक’ कही जाती हैं (इनमें यहूदी पंथ, ईसाई पंथ, शिया पंथ और इस्लाम पंथ शामिल हैं), यह खतरे की घंटी थी। चीन पहले ही खतरा था। लेकिन वह खतरा राजनैतिक और आर्थिक तौर पर था, सांस्कृतिक तौर पर नहीं, क्योंकि अपनी सांस्कृतिक विरासत को चीन माओ के समय से ही छोड़ चुका था।
इसलिए इन पांच आंखों के लिए जरूरी हो गया कि भारत विरोधी ताकतों को प्रश्रय दिया जाए ताकि भारत आन्तरिक समस्याओं में ही उलझा रहे। लेकिन प्रमुख तौर पर यह जिम्मेदारी कौन निभाएगा? यह काम कनाडा को दिया गया क्योंकि विश्व राजनीति में कनाडा की औकात कुछ नहीं है। बाकी चार आंखें जमा जुबानी कनाडा की हां में हां मिलाती रहेंगी। लेकिन भारत से संबंध बिगाड़ेंगी नहीं क्योंकि चीन का मुकाबला भारत की सांझेदारी के बिना नहीं किया जा सकता। शायद चार बची आंखों को यह अन्दाजा नहीं था कि भारत कनाडा को जवाब देने में इतनी दूर तक जाएगा।