अशोक कुमार यादव मुंगेली
कार्तिकेय के दाई अच, स्कन्दमाता कहाथच।
शेर सवारी, कमल आसन बिदमान रहिथच।।
परबत म बसके, परानी म नवा सुधबुध जगाए।
तोर किरपा ले मुरुख मन भी गियानी हो जाए।।
बैइंहा हे चार ठन, दू हाथ म धरे हवच कमल।
तीसर हाथ म गोदी पाए हच दुलरुवा स्कन्द।।
चौथा हाथ ले देथच जन-जन ल आसिरबाद।
सुख म जिनगी बीते, दुख दुरिहा जावय भाग।।
तैंय सुख दे के मुक्ती के बंद दुवारी खोलथच।
भगत मन के इक्छा ल झटकुन पूरा करथच।।
तोर सेवा करके सेवक के आचना हो जाथे पूरा।
बंधना छुटथे, नइ रहय कुछु लालच ह अधूरा।।
पूजा, जप करहूँ निरमल मन ले धियान लगाके।
अपन बेटा समझ के, भवसागर ले पार लगाबे।।