-निर्मल रानी-
याद कीजिये 16 दिसंबर 2012 की वह काली रात जब दिल्ली के वसंत विहार में पैरा मेडिकल की छात्रा ‘निर्भया’ के साथ 6 अपराधियों द्वारा चलती हुई बस में गैंगरेप किया गया था। निर्भया के साथ बलात्कार किया गया था व उसके निजी अंगों को बुरी तरह ज़ख़्मी किया गया था। यहां तक कि छात्रा और उसके दोस्त को बस से कुचलकर मारने की कोशिश भी की गई थी। घटना के कुछ दिन बाद निर्भया की मृत्यु हो गयी थी। इस घटना के बाद दिल्ली सहित पूरा देश उबल पड़ा था। राजधानी दिल्ली सहित देश भर में इस गैंगरेप को लेकर जमकर विरोध प्रदर्शन किए गए थे। पूरे देश का मीडिया एक स्वर से सत्ता के विरोध में उतरा हुआ था। उस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूप ए गठबंधन की सरकार पर दबाव बनाने के लिये जगह जगह विरोध प्रदर्शन हुये थे। और तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा प्रत्येक विरोध स्वर को सम्मान देते हुये इस तरह के मामलों में क़ानून बनाने के लिए एक कमेटी का गठन किया था। फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ने इन आरोपियों पर गैंगरेप, हत्या और लूट के मामलों में आरोप तय किए थे। 11 जुलाई 2013 को 6 आरोपियों में से राम सिंह नाम के एक अपराधी ने तिहाड़ जेल में ही फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। तथा एक नाबालिग़ को गैंगरेप और हत्या के मामले में तीन साल की सज़ा सुनाई गई थी। जबकि विशेष फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट से लेकर उच्च न्यायलय व उच्चतम न्यायलय तक सभी अदालतों द्वारा सुनाये गये फ़ैसलों के बाद निर्भया के शेष चारों दोषियों को 20 मार्च 2020 को सुबह 5.30 बजे तिहाड़ जेल में फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया गया था। उस समय सत्ता का विरोध करने वाले किसी एक पत्रकार की न तो गिरफ़्तारी हुई थी न ही बदनामी के डर से सरकार अपनी आलोचनाओं को दबाने का प्रयास करते दिखाई दी। और कहना ग़लत नहीं होगा कि 2014 में हुये सत्ता परिवर्तन के जहां अनेक कारण थे वहीँ ‘निर्भया काण्ड’ भी उन कारणों में एक था। इसी काण्ड की आड़ में भारतीय जनता पार्टी ने 2014 चुनाव पूर्व अपना लोकप्रिय नारा गढ़ा था -‘बहुत हुआ नारी पर वार-अबकी बार मोदी सरकार’।
निर्भया काण्ड के दिनों को याद कीजिए तो ऐसा लग रहा था कि स्वतंत्र भारत के इतिहास की उस समय तक की वह सबसे वीभत्स घटना थी। और यह भी कि महिला विरोधी अपराधों को रोक पाने वाली उस समय की वह सबसे विफलतम सरकार थी। आज के सत्ताधारी ही उस वक़्त की निर्भया काण्ड के सबसे बड़े पैरोकार व प्रदर्शनकारी थे। और जगह जगह उठने वाले कैंडल मार्च व मशाल जुलूसों के अगुआकार थे। परन्तु केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से लेकर अब तक देश में अनगिनत ‘निर्भया काण्ड’ या उससे भी वीभत्स महिला उत्पीड़न के मामले हो चुके हैं। मिसाल के तौर पर कश्मीर के कठुआ में जनवरी 2018 में आसिफ़ा नाम की एक आठ वर्षीय मुस्लिम मासूम लड़की का अपहरण किया जाता है। और उसे कई दिनों तक एक मंदिर परिसर के एक कमरे में मंदिर के पुजारी व स्थानीय पुलिस कर्मियों की क़ैद में रखकर कई दिनों तक उसका बलात्कार किया जाता है। अंत में उसकी हत्या कर उसका क्षत विक्षत शव पास के जंगल में फेंक दिया जाता है। यह शायद देश का पहला हादसा था जिसमें सत्ताधारी भाजपाइयों ने बलात्कारियों व हत्यारों के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकाली थी। इस यात्रा में जम्मू कश्मीर के कई तत्कालीन भाजपाई मंत्री व विधायक भी शामिल हुए थे। 2012 में निर्भया के पैरोकार उस समय धर्म के आधार पर बलात्कार पीड़िता के साथ नहीं बल्कि बलात्कारियों के साथ खड़े दिखाई दिए थे।
उसके बाद 14 सितंबर 2020 को हाथरस के निकट एक बीस साल की दलित युवती जोकि अपनी मां के साथ अपने घर से क़रीब आधा किलोमीटर दूर घास काटने गई थी वहीं गांव के ही दबंग परिवार के चार अभियुक्तों ने खेतों में ही लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार किया और उसे बुरी तरह घायल भी किया। पहले पीड़िता को अलीगढ़ अस्पताल ले जाया गया और बाद में गंभीर अवस्था के चलते उसे 28 सितंबर को दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल शिफ़्ट किया गया था जहां अगले दिन उसकी मौत हो गई। इसके बाद पुलिस ने बिना परिवार को मृतका का चेहरा दिखाए तीस सितंबर को रात के अंधेरे में ही खेतों में ही लड़की का अंतिम संस्कार कर दिया था जिसे लेकर काफ़ी हंगामा हुआ था। सरकार द्वारा बदनामी के डर से ही यह सब किया गया। कुछ पत्रकारों को भी इसी मामले की रिपोर्टिंग को लेकर गिरफ़्तार किया गया। हाथरस घटना में पुलिस की भूमिका काफ़ी संदेहपूर्ण रही जिसके कारण पुलिस की छवि बहुत ख़राब हुई। पुलिस तो लगातार अपने बयान भी बदल रही थी। इस मामले में पहले पुलिस ने कहा था कि बलात्कार हुआ ही नहीं है। जबकि पीड़िता ने मरने से पहले ख़ुद अपने मुंह से यह बात कही थी कि उसके साथ गांव के चार लड़कों ने बलात्कार किया है। परन्तु जब पुलिस ने जब यह देखा कि देश भर में उसके बयान से बवाल मच गया है तो उसने फिर अपनी बात बदल दी और यह कहा कि ‘पीड़िता के साथ जबरन संबंध नहीं बनाए गए’।
अब पिछले दिनों एक बार फिर उत्तर प्रदेश के ही सुल्तानपुर-अयोध्या के मध्य ट्रेन में देर रात घटी एक वीभत्स घटना ने एक और निर्भया जैसी याद ताज़ा कर दी है। पुलिस की वर्दी पहने हनुमान गढ़ी में ड्यूटी पर जा रही एक महिला पुलिस कर्मी के साथ चलती ट्रेन में क्या कुछ नहीं हुआ। उसके घायलावस्था के चित्र व लहूलहान हालत में अर्धनग्न अवस्था में उसकी विडीओ देख किसी भी व्यक्ति की आँखों से नींद उड़ जाएगी। परन्तु देश के मीडिया को भी सांपसूंघ गया और सरकार भी दोषियों की तलाश करने या रेल यात्रियों की सुरक्षा की बात करने के बजाये अपनी झूठी इज़्ज़त बचाने के लिये मामले पर यथासंभव पर्दा डालने में व्यस्त रही। और यही वजह थी कि जब महिला कांस्टेबल की ओर से कोई फ़रियाद नहीं सुनाई दी तो इलाहबाद उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश ने मामले पर स्वतः संज्ञान लेते हुये देर रात अपने घर पर ही अदालत बुलाई, मामले की सुनवाई की और रेलवे तथा राज्य सरकार के अधिकारीयों को घटना के ब्योरे के साथ तलब किया। परन्तु आज की बेशर्म सरकारें अपराधों पर लगाम लगाने की कम बल्कि घटनाओं पर पर्दा डालने, मीडिया मैनेजमेंट के द्वारा उन्हें छुपाने और अपराधियों के बजाये ऐसी ख़बरों को उजागर करने वाले गिने चुने ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ पत्रकारों पर मुकदमे करने व उन्हें जेल भेजने में ज़्यादा यक़ीन रखती हैं। गुजरात में बिल्क़ीस बानो के बलात्कारियों को पहले रिहा व बाद में उन्हें महिमामंडित करने से लेकर मणिपुर में महिलाओं को निःवस्त्र घुमाने तक की तमाम घटनायें इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये काफ़ी हैं कि बलात्कार व हत्या को लेकर सरकार का दिया गया नारा -‘बहुत हुआ नारी पर वार’ न केवल खोखला व अवसरवादी था बल्कि इस ढुलमुल रवैय्ये से संभवतः अभी और भी न जाने कितनी ‘निर्भयाएं’ अपनी क़िस्मत पर आंसू बहाती रहेंगी?