आवश्यकता इस बारे में अब ठोस समझ बनाने की है, एलएसी की स्थिति पर चीन के रुख और दोनों देशों की समझ में बरकरार खाई के बीच भारत की उपयुक्त चीन नीति क्या होनी चाहिए। इस बारे में राष्ट्रीय आम सहमति की जरूरत है। ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान दक्षिण अफ्रीका के जोहानेसबर्ग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई मुलाकात का सार दोनों देशों के बीच समझ और विश्वास की खाई बहुत चौड़ी है। ऊपर से विदेश नीति के घरेलू राजनीति में इस्तेमाल की भारत की सत्ताधारी पार्टी की रणनीति ने इस बारे में देश में कोई आम सहमति बनने का रास्ता रोक रखा है। इस दूसरे पहलू का संबंध उठे इस विवाद से है कि जोहानेसबर्ग में मुलाकात किसकी पहल पर हुई। चूंकि भारतीय जनता पार्टी की रणनीति अपने देशवासियों के मन में लगातार प्रधानमंत्री मोदी की मजबूत राजनेता छवि को मजबूत बनाए रखने की है, इसलिए पक्ष और विपक्ष के बीच यह मसला अहम बन गया। जबकि जरूरत बातचीत से सामने आई खाई पर चर्चा की है। आवश्यकता इस बारे में समझ बनाने की है, इस बरकरार खाई के बीच भारत की उपयुक्त चीन नीति क्या होनी चाहिए। भारतीय विदेश सचिव विनय मोहन क्वात्रा ने वार्ता के बारे में जो जानकारी साझा की और चीन के विदेश मंत्रालय ने जो कहा, उसके बीच कोई समानता नहीं है। क्वात्रा के मुताबिक मोदी ने शी से कहा कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर सैनिकों के आमने-सामने जमाव को हटाने और तनाव घटाने पर जोर दिया। उन्होंने भारत का यह रुख दोहराया कि इसके बिना दोनों देशों के संबंधों में सुधार नहीं हो सकता। लेकिन चीनी बयान में इन बातों का उल्लेख नहीं है। उसमें बताया गया कि शी जिनपिंग ने द्वपक्षीय संबंध के बड़े पहलुओं की तरफ ध्यान खींचा और कहा कि दोनों देशों के बीच रिश्ता सुधरना दोनों देशों की जनता तथा क्षेत्रीय एवं विश्व शांति के हित में होगा। संदेश यह है कि चीन एलएसी पर की स्थिति को स्थायी मान रहा है और भारत को इसे स्वीकार कर लेने को कह रहा है। इस स्थिति में प्रश्न उठता है कि भारत के सामने क्या विकल्प है? सरकार अगर एलएसी पर की हालत को लेकर देश को भरोसे में ले और इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस कराए, तो देश इस विकल्प पर आम सहमति बनाने की दिशा में बढ़ सकता है।