नई दिल्ली। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि एवं जी.बी. पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो. बद्री नारायण ने गुरुवार को कहा कि भारतीय समाज आदान-प्रदान का समाज है। एक-दूसरे को सम्मान देने का समाज है।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) में गुरुवार को ‘प्रो. नामवर सिंह स्मृति व्याख्यान’ का आयोजन किया गया। आईजीएनसीए के कला निधि प्रभाग की ओर से आयोजित व्याख्यान’ का विषय ‘जनतांत्रिक भाव और साहित्य’ था, जिसमें प्रो. बद्री नारायण मुख्य वक्ता के तौर पर शामिल हुए। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता आईजीएनसीए के अध्यक्ष रामबहादुर राय ने की और स्वागत भाषण आईजीएनसीए के सदस्य सचिव प्रो. सच्चिदानंद जोशी ने दिया।
प्रो. नारायण ने कहा कि आईजीएनसीए ने प्रो. सिंह की स्मृति का संस्थानीकरण करने का महत्त्वपूर्ण काम किया है। प्रो. सिंह हमेशा संवाद के पक्षधर थे। उनका साथ हर कोई चाहता था, चाहे वह किसी विचारधारा का हो। प्रो.नामवर जी को किसी से संवाद करने में कोई समस्या नहीं थी। उन्होंने कहा कि नामवर सिंह मौखिक परम्परा को बहुत महत्त्व देते थे। उन्होंने लिखा कम है, बोला ज्यादा है। मौखिक परम्परा लोक चेतना को अभिव्यक्त करती है, जबकि आधुनिकता हमारी संवाद परम्परा को बाधित करती है।
प्रो. नारायण ने श्री सिंह के विचारों को उल्लेखित करते हुए कहा, “साहित्यकार ‘परकाया प्रवेश’ कर समाज के यथार्थ को समझता है, लेकिन अब हमने अपने-अपने बाड़े बना लिए हैं। साहित्य में जनतंत्र का क्षरण हो रहा है। अगर साहित्य में जनतंत्र खत्म हो जाएगा, तो साहित्य कट्टरपंथी हो जाएगा। साहित्यिक जगत के लिए यह बहुत संकट का समय है। साहित्य जगत में कलुष आया है। उन्होंने कहा कि परम्पराओं की बहुलता भारतीय समाज की शक्ति है।” उन्होंने कहा कि भारतीय साहित्य में जनतांत्रिक चित्ति को फिर से जीवित करना होगा। इसके लिए, लोक से सीखना के लिए इससे जुड़ना होगा।
प्रो. नारायण ने कहा कि नामवर जी के बाद हिन्दी आलोचना लगभग समाप्त हो गई है। अब साहित्य जगत अलग-अलग खेमे में बंट गया है, जिससे साहित्य को काफी हद तक नुकसान हुआ है। उन्होंने कहा कि अब तो जातियों के भी अपने अलग-अलग लेखक संगठन बन रहे हैं। उन्होंने कहा कि श्री सिंह की सैद्धांतिक तथा वैचारिक जड़ें बहुत मजबूत थीं। साथ ही उनके जीवन की जड़ें भी बहुत मजबूत थीं। उनका मन लोक समाज में रमता था, जहां से वे आए थे।
वहीं श्री राय ने कहा, “श्री नामवर जी के पास जाने के बाद ये नहीं लगता था कि हम किसी बहुत बड़े, ऊंचे साहित्यकार के पास आए हैं, बल्कि उनके पास जाने से लगता था कि हम अपने अभिभावक के पास आए हैं। साहित्य परम्परा में श्री सिंह उन लोगों में से हैं, जिनमें हम समाज की छवि देख सकते हैं।”
प्रो. जोशी ने कहा, “यह विषय ‘जनतांत्रिक भाव और साहित्य’ बड़ा महत्त्वपूर्ण है। विशेष रूप से, जब हम साहित्य के परिप्रेक्ष्य में विचारों की सापेक्षता और निरपेक्षता की बात करते हैं, तब ये बात समझ में आती है कि वर्तमान परिदृश्य कितना कलुषित सा होता जा रहा है कि वहां कोई भी विषय निरपेक्ष नहीं रह गया है। ये साहित्य भी निरपेक्ष भाव से लिखा जाता है, उसको देखना हमारे लिए बहुत कठिन हो गया है।”