संसदीय सदन शर्तों और जिद से नहीं चला करते। सदन की कार्यवाही न तो प्रधानमंत्री, न कोई मंत्री और न ही विपक्ष तय कर सकते हैं। लोकसभा स्पीकर और राज्यसभा सभापति को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं। वे ‘कार्य मंत्रणा समिति’ के परामर्श से सदन को संचालित कर सकते हैं। शेष सदन के लिए कई नियम भी बनाए गए हैं। सांसद के नोटिस को किस रूप में, किस नियम के तहत, स्वीकार किया जाए, यह भी पीठासीन अध्यक्ष का विशेषाधिकार है अथवा वे ध्वनि-मत से सदन के बहुमत की राय ले सकते हैं। अब मणिपुर के मुद्दे पर कांग्रेस की मांग है कि पहले प्रधानमंत्री संसद के भीतर बोलें और सरकार का पक्ष रखें। उसके बाद विपक्ष तय करेगा कि चर्चा किस आधार पर करनी है। चर्चा के नियम क्या होने चाहिए? संसद के भीतर विपक्ष की यह अडिय़ल मांग ‘असंसदीय’ है, क्योंकि यह परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव है। यदि मणिपुर की हिंसा और धधकते माहौल के मद्देनजर, विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव पेश करना चाहता है, तो यह उसका संसदीय अधिकार है, लेकिन वह प्रस्ताव भी बेमानी साबित होगा। सरकार के पक्ष में प्रचंड बहुमत आज भी है। शायद इसीलिए विपक्ष राज्यसभा में नियम 267 के तहत चर्चा पर आमादा है, क्योंकि उसमें बहस के बाद मत-विभाजन का प्रावधान है। बेशक राज्यसभा में भाजपा-एनडीए का बहुमत नहीं है, लेकिन वे इतने भी अल्पमत में नहीं हैं कि विपक्ष को बहुमत हासिल हो जाए। सत्ता-पक्ष नियम 176 के तहत चर्चा का पक्षधर है, जिसके तहत अधिकतम अढाई घंटे तक ही चर्चा की जा सकती है, लेकिन सभापति उसकी अवधि बढ़ा भी सकते हैं।
विपक्ष ‘नैतिकता’ को लेकर मणिपुर के लिए अढाई घंटे को नाकाफी समय मान रहा है। हालांकि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े, लोकसभा में द्रमुक सांसद टीआर बालू और तृणमूल कांग्रेस संसदीय दल के नेता सुदीप बंदोपाध्याय से फोन पर बातचीत कर गतिरोध को समाप्त करने का अनुरोध किया। संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने भी अपील की, लेकिन विपक्ष अपनी शर्त और जिद पर अड़ा है कि पहले प्रधानमंत्री दोनों सदनों में अपना वक्तव्य दें। उसी के बाद चर्चा पर कोई निर्णय होगा। बीते सोमवार को गृहमंत्री अमित शाह ने भी लोकसभा में कहा कि मणिपुर पर सरकार चर्चा को तैयार है, लेकिन न जाने क्यों विपक्ष चर्चा से भाग रहा है। सारांश यह है कि सदन की कार्यवाही आरंभ की जाती है, लेकिन कुछ ही मिनटों के बाद कार्यवाही को अगले दिन तक स्थगित करना पड़ता है। क्या संसद इसी तरह काम करती रहेगी? संसद को चलाना सत्ता-पक्ष का दायित्व इसलिए माना जाता है, क्योंकि विधेयक आदि सभी कुछ सरकार तैयार करती है, सदन का प्रारूप तय करती है कि कब, क्या कार्यक्रम होगा? क्या विषय होंगे? कौन से दस्तावेज सदन के पटल पर रखे जाएंगे। अलबत्ता संसद चलाने का दायित्व दोनों पक्षों का है, क्योंकि लोकतंत्र में दोनों की भूमिकाएं अनिवार्य हैं। लिहाजा संसद के भीतर का हंगामा और गतिरोध देशहित में नहीं है। यह दलील कबूल नहीं की जा सकती कि भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए ऐसे ही गतिरोध पैदा किए थे और पूरा का पूरा सत्र हंगामे की बलि चढ़ जाता था। संसद किसी भी तरह की प्रतिशोधात्मक राजनीति का अड्डा नहीं है। संसद राष्ट्रीय है। बहरहाल मणिपुर का भयावह यथार्थ यह है कि करीब 65,000 लोग विस्थापित हो चुके हैं। 5000 से ज्यादा घरों में आगजनी की गई है। बीते एक पखवाड़े में करीब 13,000 लोगों को हिरासत में लिया गया है। मणिपुर में 160 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। क्या ऐसे जलते मणिपुर पर संसद में चर्चा नहीं होनी चाहिए?