भारत एक ऐसा देश है, जहां विभिन्न क्षेत्र, विभिन्न आबोहवा अपने में समेटे हुए रहते हैं। गुजरात का कच्छ व राजस्थान रेत में भी चटख रंगों की सुन्दरता समेटे है, तो केरल हरियाली और झरने। सिक्किम, उत्तराखंड बर्फ के साथ खूबसूरत फूलों से आपका स्वागत करता है, तो गोवा समुद्री लहरों व उन्हीं के समान थिरकते जिस्मों से।
कोई क्षेत्र भारतमाता को बर्फ का ताज पहनाता है, सागर से उसके चरण पखारता है यानी हर क्षेत्र का अपना-अपना अलग रंग, अपनी सुंदरता। अनेकता में एकता को चरितार्थ करते अपनी मातृभूमि पर गर्व का अनुभव करते देश के विभिन्न राज्यों को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। लेकिन पहली बार मालूम हुआ कि सिर्फ समुद्र तट को छोड़ दें तो बर्फीली घाटियों से ढंके पहाड़, हरियाली चुनर जैसे सिर से खींच ली हो, ऐसे भूरे, बंजर, पत्थरों से पटी विशाल पर्वत श्रृंखलाएं, हजारों फीट की ऊंचाई वाले पर्वतों के बीच बेहद खूबसूरत घाटियां, कल-कल बहते ठंडे पहाड़ी झरने, कांच की तरह साफ व मटमैली भी, दोनों तरह की नदियां, किसी रेगिस्तान की तरह बिछी रेत, पठार और उस पठार में खूबसूरत झील। कुदरत की खूबसूरत कारीगरी… ये सारी चकित कर देने वाली सुंदरता एक जगह थी। जी हां…! अद्भुत… अविस्मरणीय… अप्रतिम… सौंदर्य से भरपूर… इतनी सारी विविधता अपने विशाल आंचल में समेटे ये क्षेत्र था लेह।
जम्मू-कश्मीर के लद्दाख जिले में आने वाली जगह लेह…! 3 किलोमीटर प्रति व्यक्ति के हिसाब से जनसंख्या घनत्व वाला लेह…! 25, 321 स्क्वेयर किमी क्षेत्रफल वाला लेह…! समुद्री सतह से 11, 300 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।
वैसे तो लेह-लद्दाख देशी कम, विदेशी सैलानियों की सूची की पसंदीदा जगहों में सबसे ऊपर है, लेकिन भला हो बॉलीवुड का, जिसने कुछ फिल्मों की शूटिंग यहां करके इसे और लोकप्रिय बना दिया।
जब लेह-लद्दाख का प्रोग्राम बना तो दिल्ली से लेह की फ्लाइट थी। (हालांकि बाद में लगा कि मनाली या श्रीनगर आकर वहां से सड़क मार्ग से आना ज्यादा आनंददायक रहता)। खैर… जानकारों के अनुसार यहां जुलाई में आना चाहिए, क्योंकि तब तक काफी बर्फ पिघल जाती है और बर्फ के अलावा वो सारा सौंदर्य आप देख सकते हैं, जो मैंने ऊपर वर्णित किया है।
लेख-लद्दाख अभी तक तस्वीरों या फिल्मों में यानी सिर्फ कैमरे की आंख से ही देखा था, लेकिन लैंडिंग से पहले जब खिड़की से बाहर देखा तो अद्भुत नजारा था। अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था कि इतनी खूबसूरती इसी धरती पर है। ये चित्रकार, कलाकार सिर्फ कुदरत ही हो सकती है। अपने विभिन्न रूपों से रूबरू कराते हुए लेह ने अपना दूसरा व हवाई जहाज से देखे गए रूप से अलग ही रूप दिखाया। चारों ओर रेतीला भूरा पठार व वैसे ही भूरे पहाड़ नजर आए, लेकिन हवा में अच्छी-खासी ठंडक घुली हुई थी। मौसम विभाग की भारी वर्षा की भविष्यवाणी को धता बताता आसमान साफ, नीला था व सूर्यदेव अपनी तीखी रश्मियों के साथ हमारा स्वागत कर रहे थे। बेहद मामूली (इतना मामूली कि आप निराश होने लगे) दिखने वाले रास्ते से हम होटल डक पहुंचे, जो अगले 8 दिनों के लिए हमारा अस्थायी निवास था।
सुरक्षा नियमों के तहत होटल पहुंचते ही सब अपने कमरों में आराम करने चले गए। निर्देश है कि वहां ऑक्सीजन लेवल काफी कम रहता है, सो हमारे शरीर को वहां के वातावरण में एड्जस्ट करने हेतु 24 से 36 घंटे देना होते हैं अन्यथा आप सिरदर्द, चक्कर, उल्टी व सांस की तकलीफ से आपका पूरा टूर चैपट कर सकते हैं।
एक पूरा दिन आराम व दूसरा पूरा दिन लोकल घूमना सबसे अच्छा तरीका है और हमने भी वही किया। दूसरे दिन सुबह 5 बजे अपनी आदतानुसार नींद खुल गई। खिड़की से पर्दा हटाया, तो आंखें चैंधिया गईं। सूर्य की पहली किरण भूरे पहाड़ों के शिखर पर जमी बर्फ पर पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो किसी सुनहरी काया पर मलमल का आंचल भर डाल दिया हो। 15 मिनट तक हाथ में कलम, डायरी व गर्म कॉफी लिए वो नजारा देखती रही। साथ ही खिड़की से बाहर बाग में कई प्रजातियों की चिड़ियाएं विभिन्न स्वरों में गा रही थीं।
दोपहर बाद जापानी मोंक द्वारा विश्व शांति हेतु बनाया गया शांति स्तूप देखा, जो सचमुच ही शांति का प्रतीक था। बिलकुल बुद्ध की शांत आंखों-सा। उसके बाद हम हाल ऑफ फेम गए, जो सीमा पर शहीद हुए हमारे जवानों की याद दिलाता है। वहां मौजूद बैंड के साथ पुष्पचक्र अर्पित करते हुए स्वतः ही हाथ सैल्यूट के लिए उठ गए और हृदय नतमस्तक…।
दोपहर बाद सिंधु नदी व झंस्कार नदी का संगम स्थल देखा। दो अलग-अलग नदियों का पानी अलग-अलग लिए मिल रहा था, पर एक नहीं हो रहा था। अद्भुत नजारा था (यहां आप रिवर रॉफ्टिंग का आनंद ले सकते हैं।)
तीसरे दिन हम नुब्रा वेली के लिए रवाना हुए, जो लेह से करीब 150 किमी दूर है। जाने के 5 से 6 घंटे लगते हैं। बस… यहीं से लेह ने हमें बताना शुरू कर दिया कि मैं ऐसा नीरस नहीं, जैसे हवाई अड्डे पर दिखता हूं।
लेह से नुब्रावेली जाने के लिए हमें खुरदंग ला टॉप होते हुए जाना था, जो 18, 300 फुट की ऊंचाई पर है। ऑक्सीजन की बेहद कमी हमें बेहद घुमावदार पहाड़ों पर चढ़ते हुए गाड़ी में ही महसूस होने लगी थी। ऐसे में कपूर सूंघना बड़ा ही लाभदायक रहता है, जैसा कि हमें यहीं से जानकारों ने बताया था अतः कपूर की छोटी-छोटी पोटलियां हमारे साथ थीं, इसलिए ऑक्सीजन लेवल या श्वास सामान्य बनी रही। हमें होटल से निर्देश थे कि खरदुंग ला पर आप जाते समय न रुकें, क्योंकि नुब्रावेली में चिकित्सा सुविधाएं कोई खास नहीं, सो दूसरे दिन वापस लेह लौटते वक्त ही वहां रुकें।
तमाम निर्देशों का पालन अच्छे बच्चों की तरह करते हुए हम नहीं रुके और गाड़ी से पूरी घाटी की सुंदरता आंखों के साथ-साथ कैमरे में कैद करते रहे। कभी भूरी-सूखी बंजर पहाड़ी श्रृंखलाएं थीं, जहां ऑक्सीजन की कमी से हरियाली नहीं थी, लेकिन फिर भी विपरीत परिस्थितियों में जिजीविषा का बेहतरीन उदाहरण वहां कई जगह झाड़ियों में भरपूर मात्रा में खिले वे गुलाबी फूल थे, जो हमें काफी कुछ सिखा जाते हैं।
कुछ आगे उन्हीं ऊंचे पहाड़ों के नीचे तलहटी में भूरी, मटमैली शयोक नदी बह रही थी, जो कहीं तो शांत थी, लेकिन कहीं ऐसी उफनती कि उत्तराखंड की तबाही की याद आ गई थी। उस पूरे पहाड़ी रास्ते में करीब 15-20 किलोमीटर ऐसा ट्रेक है, जहां पक्की सड़क नहीं, कच्चा रास्ता है। हमारे ड्राइवर ने बताया कि वहां पहले कई मर्तबा सड़क बन चुकी है, लेकिन सर्दियों में जब वहां पूरी तरह बर्फ जमी होती है, तब बुलडोजर से बर्फ हटाने में पूरी सड़क पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाती है, सो वहां कच्ची सड़क ही रहती है। पूरे रास्ते मिलिट्री को सैल्यूट करने का मन करता है। सड़क बनाने से लेकर मेडिकल सुविधाएं सहित कई सारे कार्य उनके हाथों संपन्न होते हैं जिससे कि आम लोगों को सुविधा हो।
नुब्रावेली शुरू हो चुकी थी, साथ ही प्रकृति ने अपने दूसरे रूप भी दिखाने शुरू कर दिए थे। बर्फीले पहाड़ों से पघिलता पानी झरनों के रूप में सड़क पर गिर रहा था, जो आगे जाकर बेनाग नदी का रूप ले रहा था। अपनी राह खुद बनाती, निर्बाध चट्टानों पर उछलती… चलते रहने का संदेश देती। भूरे पहाड़ों से गोल-गोल छोटे-बड़े पत्थर, मानो कुदरत की छेनी से तराशे गए थे, वे घाटी में आ गिरे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वो पहाड़ी नदी गंगा का रूप ले सैकड़ों साक्षात शिवलिंगों का अभिषेक कर रही थी।
जैसे-जैसे हम अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे थे, हरियाली घाटी मन मोह रही थी।
ड्राइवर ने हमें बताया कि वहां पिनामिक गांव से आगे का रास्ता सियाचिन को जाता है, जहां हमारा जाना प्रतिबंधित था। नुब्रावेली अवश्य जाएं, लेकिन पैकेज में यदि हॉट-स्प्रिंग जगह है तो उसे अवॉइड कर सकते हैं, क्योंकि 45 किमी का पहाड़ी रास्ता तय करके आपको वहां सिर्फ एक गर्म पानी का कुंड मिलेगा।
अपना सारा सामान अपने अस्थायी निवास यानी होटल में छोड़ हमने सिर्फ एक जोड़ी कपड़े व कुछ जरूरी सामान अपने साथ लिया था। एक रात नुब्रावेली की हट्स में बिता दूसरे दिन हमें पुनः लेह आना था। सुबह नाश्ता करके करीब आधे घंटे की दूरी पर आते ही हम फिर आश्चर्यचबकित हो गए। ऐसा लगा मानो राजस्थान के रेगिस्तान में आ गए हों। दूर तक नजर आती रेत में हम दोहरी कूबड़ वाले ऊंटों पर सवारी करने वाले थे। ढोंढू, थूरू, नकतूरू नाम के ऊंटों पर रेत में सवारी करते हुए चारों ओर ऊंचे पहाड़ों ने हमें जेम्स बांड की फिल्मों की याद दिला दी। लेह का ये भी एक अलग ही रंग था। फिर वहां से लौटने में हम खरदुंग ला टॉप पर रुके। बर्फ से ढंके पहाड़ों पर जैसे ही खेलना शुरू किया कि समझ में आ गया कि हमारी किस्मत बुलंद है। टिप-टिप करते हुए कुछ छींटों के साथ बारीक साबूदाने बर्फ व सड़क पर नजर आए। आसमान से गिरती उस बारीक बर्फ ने हमें प्रकृति के एक और रूप से रूबरू कराया। मात्र 5-6 मिनट के लिए गिरे वो बारीक सफेद दाने मानो हमारे लिए धरती पर ही बरसे थे। बस उससे जरा-सा आगे खरदुंग ला टॉप था, जहां भारतीय जवानों का सभी मेडिकल सुविधाओं से भरपूर कैम्प है। किसी को भी जरूरत हो, वहां 24 घंटे निःशुल्क ऑक्सीजन उपलब्ध है। एक बार फिर अपनी सेना के लिए मन में सम्मान हिलोरे लेने लगा।
इतनी सारी चकित कर देने वाली सुंदरता की तमाम छवियां मन और कैमरे में लिए हम वापस लौट आए। अगले एक दिन आराम के बाद हमारा अगले एक दिन का पड़ाव पेगांग लेक था, जहां हमें तंबुओं में रात गुजारनी थी।
लेह से पेंगाग तक का रास्ता करीब 150 किमी है, जो 5 घंटे में तय होता है। लेह से कारू व चोलाम्सर होते हुए पहला पड़ाव चांग ला टॉप था, जो समुद्र सतह से 17, 688 फुट की ऊंचाई पर था। लेह से पेंगाग लेक तक पहुंचने के लिए 3 तरह के रास्ते थे। कारू तक आते-आते कुछ मटमैली सिंधु नदी साथ चल रही थी, साथ-साथ नहर भी। करीब पौन घंटे बाद ऊंचे-भूरे, पथरीले पहाड़ों के साथ नीचे हरियाली से भरपूर घाटी थी और कुछ समय बाद हरियाली कम होते-होते बर्फ पिघलने से बनी कुछ उथली झरनेनुमा नदी साथ-साथ बहती रही। कुछ देर बाद वह भी मालूम नहीं, कहां गायब होकर पूरी पथरीली घाटी आ गई। लेकिन बस कुछ समय बाद ही दूर नीले-फिरोजी से रंग का पानी नजर आया। यही वो खूबसूरत पेंगाग झील थी।
कुल 134 किमी लंबी व कहीं-कहीं 5 किमी तक चैड़ी भी, ये एक खारे पानी की झील है, जो आधी से कम भारत में व उससे अधिक चीन के हिस्से में है। कितना अजीब है ना कि सरहदों का बंटवारा तो हम कर देते हैं, मगर झील का पानी किसी भी बंटवारे से इतर निर्बाध बहता है। अपनी ही भावनाओं की तरह पाक, साफ व पारदर्शी…!
पेंगाग झील के इतनी दूर से दर्शन होने के बाद भी हमें अपनी मंजिल यानी टेंट तक पहुंचने के लिए पेंगाग झील के किनारे-किनारे करीब 8-10 किमी का रास्ता तय करना था। इसी रास्ते पर पेंगाग झील ने कई बार अपना रंग बदलकर हमें चमत्कृत कर किया। कभी गहरा नीला, कभी फिरोजी, कभी हरा तो कभी आसमानी। टेंट में पहुंच अपना सामान रख हम सब झील में अपने पैर डालने को आतुर भागे। पास पहुंचते ही पेंगाग झील ने फिर से हमें विस्मित कर दिया। दरअसल, उसका पानी एकदम पारदर्शी है, कांच की मानिंद। किनारे पर करीब 5 फुट भीतर तक के गोल बारीक पत्थर साफ नजर आ रहे थे। तब समझे कि चन्द्रकलाओं की तरह पेंगाग झील भी आसमानी रंगों के अनुसार अपने रंग बदलती है। उसे निहारते शाम कब हो गई, पता ही नहीं चला। रात को टेंट में रुकने ने बरसों पुराने एनसीसी कैम्प की याद दिला दी।
सुबह ड्राइवर हमें थ्री इडियट्स के शूटिंग पॉइंट पर ले गया, जहां आधा घंटा ठहरकर हम पुनः लेह के लिए रवाना हो गए। रास्ते भर पेंगाग झील के रंग ही आंखों में समाए हुए थे।
अगले दिन इंदौर के लिए रवाना होना था। पिछले 8 दिन चलचित्र की भांति निगाहों में थे। नीले, भूरे, काले रंगों के साथ बेरंग सुंदरता भी थी। साथ ही यादें थीं जिनमें था लद्दाखी लोगों का भोलापन, निष्कपटता, ईमानदारी व सहयोगी रवैया। फौजियों का जज्बा, उनकी देशभक्ति… इन सब बातों के लिए स्थानीय भाषा का एक ही शब्द अपनी ओर से सही लगा। लेह जैसी भूमि हेतु ईश्वर को… व उसे बरकरार रखने के लिए वहां के निवासियों को जुले…. . यानी धन्यवाद!