बच्चों को टीवी कार्टूनों के दुष्प्रभाव से बचाना जरूरी

asiakhabar.com | July 25, 2023 | 6:25 pm IST
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टेलीवीजन भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार का एक महत्वपूर्ण सदस्य बनकर उभरा है। रिमोट कंट्रोल, जिसे शाहरूख खान विज्ञान का एक अद्भुत और रोमांचकारी आविष्कार मानते हैं, सदैव परिवार के सदस्यों के मध्य खींचतान का केंद्र बिन्दु बना रहता है। महिलाएं अक्सर टीवी सीरियल की काल्पनिक दुनिया में खोई रहना चाहती हैं। पुरुष समाचार, राजनीति और खेल के चैनलों को प्राथमिकता देते हैं तोबच्चे सदैव कार्टून ही देखना चाहते हैं।
दादी-नानी की कहानियां
यूं तो टेलीविजन पुरुष एवं स्त्रियों को भी स्वस्थ मनोरंजन उपलब्ध नहीं करा रहा है, लेकिन बच्चों के कोमल, नाजुक एवं अपरिपक्व मस्तिष्क पर भी यह कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ रहा है। बच्चों में कल्पनाशीलता कम हुई है। पड़ोस के बच्चों के साथ उनका खेलना और धमा-चैकड़ी मचाना अब उन्हें आकर्षित नहीं करता। वे आत्म केंद्रित होते जा रहे हैं। उनमें चिड़चिड़ापन बढ़ता जा रहा है। उनके स्वभाव में आक्रामकता हावी है। वे कार्टून के पात्रों की तरह बोलते हैं, चलते हैं और प्रतिक्रिया करने लगे हैं।
उनमें मासूमियत कम होती जा रही है और एक चालू आत्मयीता और चालाकी घर करती जा रही है। यद्यपि बच्चों में कार्टून की नाटकीयता के प्रवेश करने के लिये हमारा समाजिक, पारिवारिक, आर्थक एवं मनोवैज्ञानिक परिवेश भी जिम्मेदार है। नौकरी, रोजगार के दबाव एवं तथाकथित स्वतंत्रता एवं आधुनिकता की मृगतृष्णा में संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है। एकल परिवार तेजी से बढ़े हैं और बढ़ रहे हैं, लेकिन इन परिवारों के सदस्यों के पास समय का नितांत अभाव है। परम्परागत रूप से घर का केवल पुरुष मुखिया अर्थोपार्जन के लिये घर से बाहर रहने को बाध्य रहा करता था। सामान्यतः आज भी ऐसा है लेकिन अब महिलाओं के नौकरी करने से परिवार का भावनात्मक संतुलन अस्त-व्यस्त हुआ है।
तनावग्रस्त एकल बच्चे
परिवार का समाजशास्त्र एवं मनोविज्ञान भी परिवर्तित हुआ है। परिवार में अपनी आंखों से बच्चों को आतंकित करने और रखने वाले मां-पिताजी अब विगत पीढ़ी के इतिहास एवं स्मृति बनकर रह गये हैं। याचना करने वाले मम्मी-पापा ने उनका स्थान ले लिया है। एकल परिवार में अक्सर मम्मी-पापा को दयनीय मुद्रा में याचना करते हुए देखा जा सकता है- बेटे मान जाओ, ऐसा नहीं करते, अब बस करो वरना३। इसे परिवार की संकल्पना के प्रजातांत्रिकीकरण के रूप में भी देखा जा सकता है। मूल समस्या है कि परिवार में पढ़ने का संस्कार मृतप्राय है। गरीब घरों में भी टेलीविजन उपस्थित मिलेगा, लेकिन मध्यमवर्गीय शिक्षित एवं सम्पन्न वर्ग में भी किताब एवं पत्रिका खरीदकर पढ़ने की संस्कृति नहीं है। डोरीमन जैसे अधिकांश कार्टून पात्र गैजेट्स से संचालित होते हैं। इन कार्टूनों में पात्रों की भूमिका अत्यंत सीमित है। जो कुछ भी होता है, बस गैजेट्स द्वारा ही संचालित होता है।
क्या इन कार्टून कार्यक्रमों में कर्मठता, साहस, संकल्प जैसे मानवीय गुणों के स्थान पर विज्ञान के तथाकथित चमत्कारों के जादू को महान सिध्द नहीं किया जा रहा है? जिंदगी परिश्रम से निखरती है। प्रतिभा से सफलता प्राप्त होती है। इन शिक्षाओं के स्थान पर कार्टून, वैज्ञानिक चमत्कार को महिमामंडित कर रहे हैं, जिसमें बस कल्पना का आकाश है, यथार्थ का धरातल नहीं। ऐसा भी नहीं है कि ऐसे कार्टून कार्यक्रम नहीं हैं, जो प्रशंसनीय हैं और शिक्षाप्रद भा। टाम जैरी की रोचकता आज भी बच्चों समेज बड़ों के मन को भी गुदगुदाती है। भारतीय पौराणिक कथाओं पर आधारित कार्टून कार्यक्रम बच्चों को पौराणिक शिक्षा भी दे रहे हैं और उनका इतिहासबोध भी निर्मित कर रहे हैं, लेकिन अफसोस की बात यह है कि ऐसे कार्यक्रम संख्या में अत्यंत सीमित हैं। अधिकांश कार्टून कार्यक्रम वैज्ञानिक चमत्कारों के आलीशान प्रदर्शन से भरे हैं, जो बच्चों की एक समूची पीढ़ी की रचनात्मकता को उभारने के बजाय उसे फालतू कल्पनाओं से कुंठित कर रहे हैं।
पढ़ने की संस्कृति जरूरी
कार्टून के तिलिस्म से बच्चों को बचाने का यही उपाय है कि भारतीय मनोरंजन उद्योग द्वारा कार्टून कार्यक्रमों के विकल्प के रूप में देशी कार्यक्रम बनाए जाएं। देशी चैनल आरम्भ किये जायें। इसमें मुख्य बाधा पूंजी की उपलब्धता और बाजार के चरित्र की है। बाजार वही परोसता है, जिससे उसे लाभ हो, फलतः देशी चैनल आरंभ करना भी अत्यंत दुष्कर है। बहरहाल, अपनी सीमाओं एवं सीमित संसाधनों के संसार में हम अपने बच्चों को पढ़ने की संस्कृति दे सकते हैं। इसके लिये हमें स्वयं पढ़ने की संस्कृति करनी होगी। इसके लिये किताबें खरीदनी होंगी। साथ ही साथ पड़ोसियों के साथ ऐसा वातावरण निर्मित करना भी हमारा ही दायित्व है, जिसमें बच्चे बिना किसी पूर्वाग्रह और दूराग्रह के साथ रह सकें, मिल सकें और खेल सकें, अन्यथा टेलीविजन के कार्टूनों के दुष्प्रभावों से बचने का और कोई स्वस्थ और सार्थक विकल्प दिखाई नहीं देता है। पर मूल प्रश्न है कि क्या इसके लिये हम बड़े भी अपने आत्मकेंद्रित संसार से बाहर आने के लिये तैयार हैं?


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