-डॉ सत्यवान सौरभ
पितृसत्तात्मक समाज में औरतों का कमाऊ न होना उनकी मर्जी या पिछड़ेपन की निशानी नहीं बल्कि उनके संस्कारी होने का प्रमाण है। अगर लड़की नौकरी और करियर में आगे बढ़ने की आकांक्षाएं रखती हैं तो उसे शादी का रिश्ता पाने में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। मर्द जहां शान और शौकत से नौकरी कर अपनी औरत पर धौंस जमाता है, वहीं औरत पूरे दिन घर का काम संभालने के बाद भी उसी मर्द के पैर की जूती समझी जाती है। वह अपनी मर्जी से कहीं आ जा नहीं सकती, अपने हुनर के दम पर कुछ कमा नहीं सकती क्योंकि इस व्यवस्था में औरतों का कमाऊ न होना उनकी मर्जी या पिछड़ेपन की निशानी नहीं बल्कि उनका संस्कारी होना समझा जाता है।
आपने अनेक घरों में अक्सर सुना होगा घर संभालना औरतों का काम है और बाहर से पैसे कमाकर लाना मर्दों का। ये महज एक वाक्य नहीं औरत के लिए बनाई वो चार दिवारी और बेड़ी है, जो उसे उसकी आज़ादी को साथ-साथ ही स्वाभिमान से जीने के हक़ से भी दूर कर देती है। आज के बदलते दौर में भी कई लोगों को बहुएं पढ़ी लिखी तो चाहिए, लेकिन नौकरीपेशा नहीं। एक स्टडी में यह बात सामने आई है कि भारत के लड़कों को शादी के वक़्त नौकरी करने वाली लड़कियों को नापसंद कर घरेलू लड़कियां ज्यादा पसंद हैं। इस तरह देखने को मिलता है कि अगर लड़की नौकरी और करियर में आगे बढ़ने की आकांक्षाएं रखती हैं तो उस शादी का रिश्ता पाने में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
भारतीय लोगों में शादी के लिए कामकाजी, नौकरीपेशा लड़कियों की मांग बहुत कम हैं। भारतीय महिलाओं में यह बहुत सामान्य है कि महिलाएं अपनी कमाई खर्च करने का फैसला पति के साथ मिलकर लेती हैं। गौरतलब है कि भारत में 99 प्रतिशत महिलाएं 40 की उम्र तक पहुंचने से पहले शादी कर लेती हैं। जब महिलाओं को लगता है की नौकरीपेशा होने पर उन्हें शादी में परेशानी होगी तो वो अपने करियर के प्रति लापरवाह हो जाती हैं। शादी से पहले करियर बनाने या शादी के बाद नौकरी में रहने के विचार को एक तरह से त्याग देती हैं। शादी के बाद लड़की को अपने पति और ससुराल वालों दोनों की सुननी होती है। उस पर हर समय उन्हें खुश रखने का प्रेशर बना रहा है। उस पर न केवल एकदम से बहुत ज्यादा जिम्मेदारियां आ जाती है बल्कि उससे परफेक्ट होने की उम्मीद भी की जाती है। यही एक वजह भी है कि ससुराल वालों की वजह से उसका करियर सेकेंड्री बन जाता है। ऐसे में वह जब तक अपनी वर्क लाइफ और पर्सनल लाइफ में तालमेल बिठा पाती है, तो ठीक वरना उसे अपने काम से हाथ धोना ही पड़ता है।
वैसे आज भी हमारे देश में शादी एक बड़ा मुद्दा है नौकरी नहीं। लड़कियों को पढ़ना-लिखना तक तो ठीक है लेकिन ज्यादातर लोगों को वर्किंग वुमन नहीं चाहिए। कई परिवार पढ़ी लिखी बहू लाना तो चाहते हैं पर वो शादी के बाद उनके नौकरी करने के पक्ष में नहीं होते। तर्क दिया जाता है कि उनका परिवार संपन्न है, नौकरी की क्या ज़रूरत है। ये भी समझा जाता है कि नौकरी करने वाली लड़की को घर संभालने का कम वक़्त मिलेगा, जिससे घर के कामों में दिक्कत आएगी। क्यूंकि भारत के ज़्यादातर हिस्सों में आम धारणा यही है कि घर संभालना महिलाओं का काम है। पितृसत्ता के गुलाम लोगों को लगता है कि नौकरी करने अगर बहू घर के बाहर जाएगी, उसके हाथ में पैसे होंगे तो वो घर वालों को कुछ समझेगी नहीं। इसके पीछे की भावना होती है कि लड़की इंडिपेंडेंट होगी। वो अपने लिए खुद फैसले लेंगी और इससे उसपर उनका अधिकार कम होगा। लड़कियों और बहुओं को घर की इज्ज़त का नाम देकर घर में उनका जमकर शोषण किया जाता है। कई पुरुषों में यह सोच हावी है कि महिलाएं नौकरी करेंगी तो उनकी मोबिलिटी अधिक होगी, संपर्क अधिक बढ़ेगा। घर से बाहर निकल कर बाहर के पुरुषों से बात करेंगी। यह उन्हें बर्दाश्त नहीं होता है।
पुरुषों को लगता है कि नौकरी करने पर महिलाएं उन पर आश्रित नहीं रहेंगी। वो खुद फैसले ले सकेंगी, उनकी चलेगी नहीं। इसलिए वो नौकरीपेशा महिलाओं को नहीं पसंद करते। कारण कोई भी हो हक़ीकत यही है कि महिलाओं को अब तक पितृसत्ता से आज़ादी नहीं मिल पाई है। सुबह उठते ही उनके दिमाग़ में घंटी बज जाती है, तेज़ी से घड़ी चलने लगती है, ढेर सारे कामों की लिस्ट बन जाती है और वो इधर-उधर दौड़कर रोबोट की तरह झटपट काम निपटाने लगती हैं। इसके चलते उन्हें रोज़ मानसिक और शारीरिक थकान का अनुभव होता है, लेकिन उसके बावजूद उन्हें दूसरों के पैसों पर रोटी तोड़ने वाला करार दे दिया जाता है। कुल मिलाकर देखें तो लड़की को कब क्या करना है? यह उसके अलावा सब तय करते हैं। इस पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं को घर के अंदर समेटने का तरीका है उन्हें नौकरी न करने देना। इसीलिए पतियों को बीवी ‘नो-जॉब’ पसंद है।