हरी राम यादव
जम्मू कश्मीर राज्य की सीमा पर लगभग 814 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा का निर्धारण किया गया है। यह नियंत्रण रेखा जम्मू कश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों राजौरी, पुछ, उरी, कारगिल और लेह होते हुए सियाचिन तक जाती है। इस नियंत्रण रेखा से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग 1 स्थिति है जो कि श्रीनगर, कारगिल, द्रास और लेह को जोड़ता है। इस राजमार्ग के बंद होते ही लेह का सम्पर्क देश से टूट जाता है। इन क्षेत्रों में 6000 फीट से 17000 फीट तक की ऊंचाई वाले पहाड़ हैं। जिन पर पूरे साल बर्फ जमा रहती है। इस क्षेत्र में गहरी खांइयां, दूर दूर तक फैली कंटीली झाड़ियां तथा संकरे और दुर्गम मार्ग हैं।
सितंबर – अक्टूबर में तापमान शून्य से भी नीचे पहुंच जाता है। भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 में 08 मई से 26 जुलाई तक कश्मीर के कारगिल जिले में हुए सशस्त्र संघर्ष को कारगिल युद्ध के नाम से जाना जाता है। कारगिल युद्ध वही लड़ाई थी जिसमें पाकिस्तानी सेना ने द्रास तथा कारगिल की पहाड़ियों पर कब्जा जमा लिया था। भारतीय सेनाओं ने इस लड़ाई में पाकिस्तानी सेना को बुरी तरह परास्त किया था। पाकिस्तानी सेना को परास्त करने वाले वीरों में उत्तर प्रदेश के जनपद सीतापुर के कैप्टन मनोज कुमार पांडेय का नाम प्रमुखता से लिया जाता है जो कि अपनी आखिरी सांस तक खालुबर को मुक्त कराने के लिए लड़ें।
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के जनपद सीतापुर जिले के रूढ़ा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम गोपीचन्द्र पाण्डेय तथा माता का नाम मोहिनी पाण्डेय है । उनकी स्कूली शिक्षा सैनिक स्कूल, लखनऊ में हुई थी। सेना में कमीशन के पश्चात वे 1/11 गोरखा राइफल्स में पदस्थ हुए। उनकी यूनिट ने सियाचीन में अपना कार्यकाल पूरा कर लिया था और यूनिट के सभी सैनिक पुणे में जाने के लिए तैयार बैठे थे।
उनकी यूनिट के कुछ लोग चार्ज लेने के लिए पुणे पहुंच चुके थे। यूनिट में रह गये सैनिकों ने उच्चतुंगता वाले क्षेत्र में पहने जाने वाले विशेष कपड़े जमा कर दिए थे और ज्यादातर सैनिकों को छुट्टी पर भेज दिया गया था। तभी अचानक आदेश आया कि यूनिट के बाकी सैनिक पुणे न जाकर बटालिक जायेंगे, जहां पर पाकिस्तानी घुसपैठियों ने हमारी धरती पर कब्जा जमा लिया है।
उनकी यूनिट आपरेशन विजय में पहुंच गयी। कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय को मन मांगी मुराद मिल गई । उन्हें यूनिट की नंबर 5 प्लाटून का प्लाटून कमांडर बना दिया गया। करीब दो महीने चले आपरेशन में उन्होंने कुकरथाग और जुबर टाप जैसी कई चोटियों को पाकिस्तानी घुसपैठियों से मुक्त कराया। उनके साहस और वीरता को देखते हुए उन्हें 02-03 जुलाई 99 की रात को खालुबर चोटी को मुक्त कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। कैप्टन पांडेय खालुबर को मुक्त कराने के लिए अपने दल के साथ आगे बढ़ना शुरू किया। इसी बीच पाकिस्तानी सैनिकों ने इनके प्लाटून पर अंधाधुंध गोलियां बरसाना शुरू कर दिया।
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए कैप्टन पांडेय अपने दल को छुपाव में ले गये और अंधेरा होने की प्रतीक्षा करने लगे। अंधेरा होते ही प्राकृतिक छुपाव मिलने पर इन्होंने अपने दल को दो भागों में बांट दिया और अलग-अलग दिशाओं से पाकिस्तानी बंकरों पर हमला बोल दिया। देखते ही देखते उन्होंने दुश्मन के दो बंकरों को तबाह कर दिया और इन बंकरों में छुपे बैठे पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।
वह तीसरे बंकर को नष्ट करने के लिए आगे बढ़े। दुश्मन मशीनगन से भारी गोलीबारी कर रहा था। कैप्टन पांडेय का कंधे और पैर गोलियां लगने के कारण घायल हो चुके थे। अपने जीवन की परवाह न करते हुए वह आगे बढ़ते रहे। मीडियम मशीनगन के भारी फायर के बीच उन्होंने ग्रेनेड से हमला कर तीसरे बंकर को भी ध्वस्त कर दिया। वह रेंगते हुए चौथे बंकर के पास पहुंच गये और बंकर को निशाना बनाकर ग्रेनेड फेंक दिया। इसी बीच पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें देख लिया और मशीन गन से उनके ऊपर फायर झोंक दिया। उनके सिर में सामने की तरफ से एक गोली आकर लग गयी जो कि हेलमेट को पार करते हुए सिर के पार हो गयी। जिसके कारण भारत माता का यह सपूत चिर निद्रा में लीन हो गया।
कैप्टन मनोज पाण्डेय के अदम्य साहस, सूझ बूझ और कर्तव्यनिष्ठा के कारण खालुबर चोटी पाकिस्तानियों से मुक्त करा ली गयी और वहां पर उनकी यूनिट ने तिरंगा लहरा दिया गया। मात्र 24 वर्ष की आयु में वीरगति प्राप्त करने वाले इस शूरवीर को 26 जनवरी 2000 को देश के सबसे बड़े सम्मान परमवीर चक्र से नवाजा गया।
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय की वीरता और बलिदान को सम्मान देने के लिए लखनऊ के सैनिक स्कूल का नामकरण इनके नाम पर किया गया है तथा लखनऊ कैंट में स्थित एक चौराहे का नाम कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय चौक रखा गया है। वर्ष 2021 में उनके पैतृक गांव रूढ़ा में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवाणे ने उनकी प्रतिमा का अनावरण किया था।