-डा. अश्विनी महाजन-
हालांकि विपक्षी दल कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर नरेंद्र मोदी सरकार पर हमला बोलते हुए कहा है कि मोदी काल में देश पर कर्ज बढ़ा दिया है। लेकिन यह सही नहीं है। वास्तविकता यह है कि वर्ष 2013-14 में देश की कुल जीडीपी 112 लाख करोड़ रुपए थी और केंद्र सरकार का कुल कर्ज 58.6 लाख करोड़ रुपये था, यानी जीडीपी का 52.2 प्रतिशत। आज 2022-23 में जब जीडीपी 272 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गई है तो केंद्र सरकार का कुल कर्ज और देनदारियां, जो 152.6 लाख करोड़ रुपये हैं, जीडीपी के लगभग 56 प्रतिशत के बराबर हैं। हमें यह भी समझने की जरूरत है कि वर्ष 2018-19 में केंद्र सरकार का कुल कर्ज और देनदारी 90.8 लाख करोड़ रुपये थी, जबकि जीडीपी लगभग 189 लाख करोड़ रुपये थी। यानी केंद्र सरकार का कुल कर्ज और देनदारियां जीडीपी का महज 48 फीसदी थीं। दरअसल नरेंद्र मोदी सरकार के पहले 5 साल में जीडीपी के अनुपात में केंद्र सरकार का कर्ज 4.2 फीसदी कम हुआ। सच्चाई यह भी है 2018-19 के बाद कोरोना काल में केंद्र सरकार का कर्ज बढ़ गया क्योंकि एक तरफ भारत की जीडीपी में विकास के बजाय संकुचन हुआ और लोगों को चिकित्सा सहायता, कोरोना टीकाकरण, ऋण चुकाने में छूट, विभिन्न प्रकार की सहायता आदि उपायों को अपनाना सरकार के लिए आवश्यक हो गया। इसके लिए उधार लेना सरकार की मजबूरी थी, क्योंकि कर राजस्व महामारी के दौरान भारी खर्च के लिए अपर्याप्त था। ऐसे में सरकारी कर्ज जीडीपी अनुपात जो वर्ष 2019-20 में 50.9 प्रतिशत था, वह वर्ष 2020-21 में बढक़र 61 प्रतिशत हो गया। लेकिन कोरोना के बाद यह प्रतिशत वर्ष 2022-23 में घटकर मात्र 56 प्रतिशत रह गया है। यही वजह है कि मार्च 2023 में खुद कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने माना था कि सरकार का पूरा फोकस राजकोषीय घाटे और कर्ज के प्रबंधन पर है और इसका श्रेय सरकार को दिया जाना चाहिए।
चिंताजनक हैं राज्य सरकारों के कर्ज : जबकि केंद्र सरकार के राजकोषीय अनुशासन, जिसके लिए उसे अपने कट्टर विरोधियों से भी प्रशंसा मिलती है, ने केंद्र सरकार के ऋण को सीमा के भीतर रखा है, जबकि केंद्र और राज्य सरकारों का समग्र ऋण बढ़ता जा रहा है। इसका मुख्य कारण राज्य सरकारों की वित्तीय अनुशासनहीनता है। गौरतलब है कि 2013-14 में जहां राज्य सरकारों का कुल कर्ज और देनदारी जीडीपी का महज 22 फीसदी था, वहीं साल 2018-19 तक (कोरोना से पहले) यह 25.33 फीसदी पर पहुंच गया। हालांकि कोरोना के बाद स्वाभाविक तौर पर ये कर्ज और देनदारियां जीडीपी के 31.05 फीसदी तक और बढ़ गई थीं। इसलिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों का समग्र ऋण (जिसमें केंद्र सरकार के ऋण और देनदारियां और केंद्र सरकार को छोडक़र अन्य के प्रति राज्य सरकारों की देनदारियां शामिल हैं) 2013-14 में 67 प्रतिशत से 2020-21 में बढक़र 89.41 प्रतिशत हो गया।। इस वृद्धि में पूरा योगदान राज्य सरकारों के ऋण-देनदारियों में वृद्धि का था।
कुछ राज्य सरकारों का बढ़ता कर्ज : जहां राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम के अनुसार राज्य सरकारों का ऋण और देनदारियां राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए, 2020-21 तक देश के ज्यादातर राज्यों में कर्ज-जीडीपी अनुपात 20 फीसदी से ज्यादा पहुंच गया था। राज्य सरकारों के आंकड़ों के मुताबिक पंजाब में यह 48.98 फीसदी, राजस्थान में 42.37 फीसदी, पश्चिम बंगाल में 37.39 फीसदी, बिहार में 36.73 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 35.30 फीसदी और मध्य प्रदेश में 31.53 फीसदी पहुंच गया। लेकिन कैग का कहना है कि अगर राज्य सरकारों के उद्यमों के कर्ज और राज्य सरकारों की गारंटी को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो राज्य सरकारों का कर्ज असल में कहीं ज्यादा है। कैग के अनुमान के मुताबिक यह पंजाब में जीडीपी का 58.21 फीसदी, राजस्थान में 54.94 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 53.77 फीसदी, तेलंगाना और मध्य प्रदेश में क्रमश: 47.89 फीसदी और 47.13 फीसदी पहुंच गया था। सीएजी द्वारा परिकलित ऋण और देनदारियां इस संबंध में राज्य सरकारों द्वारा दिए गए आंकड़ों से 10 से 20 फीसदी अधिक हैं। अर्थात यह माना जा सकता है कि यद्यपि वर्तमान में केंद्र और राज्य सरकारों का समग्र ऋण सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 84 प्रतिशत है, लेकिन कैग के अनुमान के अनुसार केंद्र और राज्य सरकारों का समग्र ऋण सकल घरेलू उत्पाद के 90 प्रतिशत से अधिक है।
क्यों बढ़ रहा है राज्यों का कर्ज : यह उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण और शहरी दोनों, के तहत गरीबों के लिए आवास के लिए भारी धनराशि के बावजूद, जिसमें 3 करोड़ घर पहले ही बन चुके हैं, कोरोना काल से अब तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज, किसी भी कृषि भूमि वाले सभी किसानों को किसान सम्मान निधि, आयुष्मान भारत के तहत करोड़ों लोगों का 5 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज, बुनियादी ढांचे के निर्माण पर भारी खर्च, औद्योगिक उत्पादन को गति देने के लिए लगभग 3 लाख करोड़ रुपये के उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन, कोरोना के दौरान तमाम तरह की राहत और प्रोत्साहन के साथ-साथ पूरी आबादी का टीकाकरण के भारी खर्च के बावजूद केंद्र सरकार का ऋण सीमा के भीतर है, जबकि कई राज्य सरकारें राजकोषीय अनुशासन बनाए रखने में विफल रही हैं। इस संबंध में भारतीय रिजर्व बैंक का मानना है कि इस खतरे के पीछे मुफ्तखोरी का हाथ है। कर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा मुफ्त योजनाओं पर खर्च होता है। पंजाब में यह 45.5 फीसदी है, जबकि आंध्र प्रदेश में यह खर्च 30.3 फीसदी है। इसी प्रकार मध्यप्रदेश एवं झारखण्ड में कर राजस्व का क्रमश: 28.8 प्रतिशत एवं 26.7 प्रतिशत मुफ्त योजनाओं पर व्यय किया जाता है। जीडीपी के प्रतिशत के रूप में देखा जाए तो पंजाब में जीडीपी का 2.7 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में जीडीपी का 2.1 प्रतिशत मुफ्त योजनाओं के लिए खर्च किया जाता है। आजकल कई राज्यों में अमीर और गरीब सभी को 100 से 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी और महिलाओं के लिए सार्वजनिक परिवहन में मुफ्त यात्रा, चाहे उनकी आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, जैसी योजनाओं की बाढ़ सी आ गई है। यानी, चाहे किसी को मुफ्त बिजली/पानी/यात्रा की जरूरत हो या नहीं, यह सभी के लिए उपलब्ध है। मुफ्त की योजनाओं के कारण, वोट बटोरने के उद्देश्य से, प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद के कारण, राज्यों का कर्ज और इसलिए, देश का कुल कर्ज बढ़ रहा है, जिसे हमारी आने वाली पीढिय़ों को वहन करना होगा।
मंडराते खतरे : गौरतलब है कि जब अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां देश में कुल कर्ज का लेखा-जोखा लेती हैं तो उसमें न सिर्फ केंद्र सरकार का कर्ज बल्कि राज्य सरकारों का कर्ज भी शामिल होता है। ऐसे में देश में जीडीपी के अनुपात में समग्र सरकारी कर्ज में लगातार हो रहा इजाफा चिंता का सबब बनता जा रहा है। हाल ही में मूडीज नाम की अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ने उच्च सरकारी ऋण और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए राजकोषीय फिसलन जोखिम को चिन्हित किया है, जो अवक्रमित रैंकिंग का कारण बन सकता है। यह, अन्य बातों के अलावा, विदेशों में भारतीय कंपनियों के लिए उधार लेने की लागत को प्रभावित करता है। इस तरह की डाउनग्रेडिंग से हमारी विकास क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जब मुफ्त में कुछ दिया जाता है तो इसके लिए जिम्मेदार राजनेता कल्याणकारी राज्य के नाम पर इसे औचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश करते हैं, जबकि इसके लाभार्थी शायद ही इसका विरोध करेंगे। लेकिन मुफ्तखोरी के इस चलन को नहीं रोका गया तो देश कर्ज के भंवर में फंस सकता है। हमने मुफ्तखोरी के कारण वेनेजुएला, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि कई देशों का हश्र देखा है। सरकार के बढ़ते कुल कर्ज ने पहले ही वैश्विक एजेंसियों द्वारा हमारी क्रेडिट रैंकिंग को प्रभावित करना शुरू कर दिया है।