हमारा अज्ञान हमसे कैसे-कैसे अन्याय करवा लेता है, इसकी कहानी बहुत अजीब है। अभी हाल ही में मुझे समझ आया कि खुद मैं कितना अज्ञानी था और इस अज्ञान से प्रभावित मेरी सोच कितनी दूषित थी। हम सफलता की कहानियां पढ़ते हैं और उनसे सीखने की कोशिश करते हैं। हम असफलता की कहानियां पढ़ते हैं और असफल लोगों द्वारा की गई गलतियों का विश्लेषण करते हैं तथा उन गलतियों से बचने की कोशिश करते हैं। जो आदमी सफल हो जाता है उसके बारे में हम मान लेते हैं कि उसने अनुभव से या प्रशिक्षण के माध्यम से सही फैसला लेने की तकनीक सीख ली है और जो व्यक्ति असफल हो जाता है उसके बारे में हम धारणा बना लेते हैं कि उसमें अनुशासन की कमी थी, लोगों से व्यवहार सही नहीं था, और उसने अहंकारवश गलत फैसले लिए, वगैरहए वगैरह। लेकिन अगर और बारीकी में जाएं तो हमें समझ आ जाता है कि हमारी धारणा पूर्वाग्रह ग्रसित थी। दरअसल हर सफलता और असफलता में मेहनत, कौशल, अनुशासन, निरंतरता और भाग्य की भूमिका होती है। समस्या यह है कि यह सुनिश्चित कर पाना संभव नहीं है कि इसमें भाग्य की भूमिका कितनी बड़ी है। कभी-कभी तो यह लगता है कि एक विशेष संयोग ही किसी खास सफलता या असफलता का कारण बना। आइए, इसे कुछ उदाहरणों से समझने की कोशिश करते हैं। हम बिल गेट्स की सफलता की कहानियां पढ़ते हैं, उनकी समृद्धि के चर्चे सुनते हैं और सुनाते हैं। पर क्या हमने उनके जीवन वृत्त को समग्रता में समझने की कोशिश की है? संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के मुताबिक सन् 1968 में विश्व भर में हाई स्कूल की उम्र के बच्चों की संख्या सवा तीस करोड़ के आसपास थी। इनमें से लगभग एक करोड़ अस्सी लाख बच्चे अमेरिका में रहते थे। इनमें से भी लगभग पौने तीन लाख बच्चे वाशिंगटन राज्य में रहते थे। इन बच्चों में से एक लाख बच्चे सियेटल क्षेत्र के निवासी थे।
इन एक लाख बच्चों में से 300 बच्चे लेकसाइड स्कूल के विद्यार्थी थे। लेकसाइड स्कूल उस समय विश्व का अकेला ऐसा स्कूल था जिसके पास कंप्यूटर भी था और लेकसाइड स्कूल के विद्यार्थी के रूप में बिल गेट्स को कंप्यूटर चलाना सीखने और कंप्यूटर का प्रयोग करने की सुविधा उपलब्ध थी। यह सुविधा हाई स्कूल जाने की उम्र के सवा तीस करोड़ बच्चों में से केवल 300 बच्चों को उपलब्ध थी और बिल गेट्स उनमें से एक थे। क्या यह भाग्य नहीं है? सन् 2005 में अपने स्कूल के विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए खुद बिल गेट्स ने स्वीकार किया कि अगर लेकसाइड स्कूल न होता तो माइक्रोसॉफ्ट भी न होती। माइक्रोसॉफ्ट की स्थापना में ही नहीं, उसके सह-संस्थापकों के चुनाव में भी भाग्य की भूमिका रही है। स्कूल में केंट इवान्स और बिल गेट्स पक्के दोस्त थे। दोनों को स्कूल का कंप्यूटर उपलब्ध था। दोनों दोस्त कंप्यूटर के दीवाने थे और कंप्यूटर के प्रयोग में सिद्धहस्त थे। केंट इवान्स और बिल गेट्स में गहरी छनती थी और दोनों घंटों बतियाते रहते थे।
दुर्भाग्यवश पर्वतारोहण के एक कार्यक्रम में केंट इवान्स की मृत्यु हो गई, वरना माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापकों में बिल गेट्स और पॉल एलेन के अलावा केंट इवान्स का भी नाम होता। भाग्य ने केंट से यह अवसर छीन लिया। हां, यह किस्मत ही थी, और आज हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि किस्मत बनती कैसे है? किसी व्यक्ति की सफलता और असफलता में भाग्य की भी भूमिका होती ही है, पर उसका अनुपात क्या था, इसे तय करना हमारे लिए मुमकिन नहीं है। अक्सर हम बाकी सारे घटकों को जानते हैं, उनका विश्लेषण करते हैं, पर उसमें शामिल भाग्य की भूमिका के बारे में नहीं सोचते।
जब कोई दूसरा व्यक्ति सफल होता है तो इसका श्रेय हम उसकी मेहनत, अनुशासन और योग्यता को देते हैं, लेकिन जब खुद हम किसी काम में असफल हो जाते हैं तो हम सारा दोष भाग्य को देते हैं, संयोगों को देते हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं कि दो लोगों ने एक सरीखा निर्णय किया और भाग्य ने एक को सफल बना दिया जबकि दूसरा उसी सफलता के लिए तरसता रह गया। मेहनत और योग्यता के बावजूद कोई व्यक्ति असफल हो सकता है और मेहनत तथा योग्यता के साथ भाग्य के साथ के कारण कोई व्यक्ति सफल हो सकता है। मैं मेहनत और योग्यता की भूमिका पर सवाल नहीं उठा रहा। मैं बस यह कह रहा हूं कि इसमें भाग्य की भूमिका को भी कम करके न आंका जाए। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? मैं भाग्य की भूमिका की वकालत क्यों किए जा रहा हूं? इसके पीछे एक स्पष्ट और सुविचारित उद्देश्य है और वह उद्देश्य यह है कि हम समझ लें कि किसी सफल आदमी की हूबहू नकल के बावजूद हम असफल हो सकते हैं क्योंकि कोई जरूरी नहीं कि हमारे साथ भी वो सुखकर संयोग जुड़ जाएं जो उसके साथ जुड़े थे। इसी तरह किसी असफल आदमी के बारे में बात करते हुए हम उसकी मेहनत और योग्यता पर सवाल उठाने से पहले उसके साथ घटे संयोगों की भूमिका को न नकारें तो हमारा व्यवहार कहीं ज्यादा संतुलित होगा। इसी बात को थोड़ा और आगे बढ़ाएं तो यह कह सकते हैं कि हमें किसी सफल व्यक्ति का शैदाई होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम नहीं जानते कि कहां-कहां भाग्य ने उसके पक्ष में काम किया और किसी असफल व्यक्ति की आलोचना भी जायज नहीं है क्योंकि हम नहीं जानते कि भाग्य ने उसके साथ कहां डंडी मार दी, कहां खिलवाड़ कर लिया।
हम इसे समझ लेंगे तो किसी की प्रशंसा या आलोचना में आवश्यक संयम बरतेंगे और किसी एक चरम की ओर, एक्सट्रीम की ओर झुकने की गलती नहीं करेंगे। इस सारे विश्लेषण का मंतव्य ही यही है कि पूर्वाग्रहग्रसित होकर किसी की प्रशंसा या आलोचना के कुचक्र में न फंसें। इस समझ से जो संयम आएगा, वह हमारी सोच को संवारेगा और खुद अपने जीवन में सफलता की संभावनाओं को बढ़ाएगा। इस सारे विश्लेषण के बाद अब हम यह भी समझने की कोशिश करेंगे कि भाग्य निर्धारित कैसे होता है? बनता कैसे है? हमारे धर्म ग्रंथों में कर्म और संचित कर्म का जिक्र किया गया है। संचित कर्म का मतलब है कि हम जो भी काम करते हैं, परमात्मा का सिस्टम उन कर्मों का हिसाब रखता है और हमारे पिछले सभी जन्मों के कर्म इस जन्म में हमें किस्मत के रूप में मिलते हैं। हमने अपने पिछले जन्म में अच्छे या बुरे जो भी काम किए थे, इस जन्म के लिए वो सभी कर्म हमारी किस्मत बन जाएंगे। इसी तरह, इस जन्म में हम जो भी काम करेंगे, अगर इसी जन्म में उनका फल न मिला तो वो अगले जन्मों के लिए हमारी किस्मत बन जाएंगे। संचित कर्म का मतलब उन कामों से है जो हमारी गुल्लक में जमा होते रहते हैं, वो हमारी किस्मत बन जाते हैं। इसीलिए सभी धर्म हमें अच्छे काम करने, दयावान रहने, सबका भला करने की प्रेरणा देते हैं ताकि हमारे संचित कर्म इतने अच्छे हों कि हमारा भाग्य भी हमारी सफलता में सहायक होता रहे।