गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा
देश काल पात्र की सीमा में रहते हुए कुछ मन सृष्टि व सृष्टा को ठीक से समझ नहीं पाते जिसके कारण किन्हीं के कुछ विचार, दर्शन व विज्ञान कभी-कभी भ्रमित व अपरिपक्व हो सकते हैं!
आप हैं, हम हैं, और हैं, जीव जंतु तंतु तत्व चित्त अहं महत प्रकृति सत रज तम हैं, पुरुष द्वैत अद्वैत हैं, ऋषि ज्ञानी विज्ञानी हैं! विचार करने वाले हैं, लिखने वाले हैं, खोज करने वाले हैं, उनका मन है, पंच तत्व हैं, आवागमन है, आकर्षण विकर्षण है, प्रीति द्वंद है और सबकी अपनी-अपनी व साझा सत्ताएँ हैं!
नियंत्रण है, नियंत्रक है, नियंत्रित हैं, स्वतंत्र परतंत्र हैं, सततता सरसता और समन्वय है! जानने की इच्छा, चेष्टा व विवेचना है!
प्रति पल विचार, भाव, भावनाएँ, धारणाएँ, गवेषणाएँ, प्रतीतियाँ, अनुभूतियाँ व अभिव्यक्तियाँ बदल जातीं हैं! आज का सोच कल नहीं रहता और कल जो सोचा आज उचित व उपयुक्त नहीं लगता!
चित्त हर क्षण कहीं और ले जाकर किसी और कण, गण व गौण से मिलाता रहता है! हर पल पलता, पिसता,पनपता, बहता, बहकता व बदलता लगता है!
जीवन की हर सतत तरंग, तालीम, तमिस्रा, अकुलाहट, तुतलाहट बिखराहट व सुलझाव हमें त्राण के किसी और आयाम व किसी और कंदरा में लिए चलती है!
चेतना है, बुद्धि है, विवेक है, योग तंत्र साधना ध्यान धारणा समाधि है, जीवन मरण है और हर जीवाणु व तंतु में तरंग है तो वह किसी से झँकृत व स्पंदित है! परस्पर झँकृत, आयोजित व स्वचालित इस व्यवस्था तंत्र का कोई सत्ता सृजन, नियंत्रण व समायोजन कर रही है व करती रहेगी!
सब पात्र अपने गुण दोषों व संस्कारों की सीमाओं में आबद्ध, संबद्ध या समृद्ध रह अपने इंद्रियों व मन की चेतन्यता के अनुसार अवलोकन कर अपनी-अपनी अवधारणा बना पाते हैं!
कोई व्यक्त कर पाते हैं, कोई उस व्यक्तीकरण से अपने को संबद्ध कर पाते हैं तो किन्हीं को वह एक बचकाना विचार या ख़्याल लगता है!
इसी अवलोकन, मूल्यांकन व अवधारणा में हर व्यक्ति अपना मंतव्य, गंतव्य व कृतित्व गढ़ता चलता है! वैसी ही मानसिकता के संगी साथियों को पकड़ता है और डूबता उतराता जीवन की तरिणी तैराता चलता है!
क्या सही है या ग़लत है उस तत्व या जीवाणु की तरंग से उत्तिष्ट व उत्कृष्ट चेतन सत्ता समझती है व उसका मूल्यांकन कर सतत निस्तारण करती चलती है! हर संबद्ध सत्ता द्वारा किया मूल्यांकन ही परस्पर व्यवहार के रूप में प्रकट होता है! वही दूरियों, नज़दीकियों, प्रेम व द्वंद का जनक है!
जिस तत्व या प्राण तरंग में चैतन्यता अधिक है वह दूसरों को नियंत्रित करती चलती है। हर तत्व व प्राण बस्तुतः परम सत्ता का ही अंश है और उससे किसी तरह कमतर भी नहीं! फिर भी देश काल पात्र की अवस्थानुसार वही सत्ता अपनी हर अवस्थिति को प्रबंधित करती चलती है!
अपेक्षाकृत जो तरंग जिस अवस्था में अधिक चेतन है उसमें प्रबंधन या निदेशन की कला व क्षमता आजाती है और उससे कम चेतन सत्ता उसमें समर्पण भी कर अपना कल्याण अनुभव करने लग जाती है!
उसी अपेक्षाकृत उत्तिष्ट मानसिक आध्यात्मिक अवस्था में जो चेतन तरंग देश काल पात्रों का निदेशन व प्रबंधन करती है उसमें ईशित्व होने के कारण ईश्वर कहलाई जाती है!
उस परम ईश्वरीय सत्ता को सबका समझना व स्वीकार करना आसान नहीं और ना ही यह आवश्यक भी है!
सृष्टि के हर तत्व व प्राण का सृष्टा या ईश्वर को अपनी हर अवस्था में समझ पाना कोई ज़रूरी नहीं! सृष्टा उन्हें जानता, समझता व नियंत्रित करता चलता है।
अपने सुषुप्त अंतस में सृष्ट भी सृष्टा को जानते पहचानते हैं पर देश काल पात्र के उस आत्मीय वेश परिवेश में वे अपने इस स्वरूप में अपने उस परम प्रबंधक स्वरूप व सत्ता के विराट केंद्रीय आयाम में प्रवेश नहीं कर पाते!
सृष्ट सत्ताओं का उनके अज्ञान में किया यह परम आवश्यक अभिनव आत्म अभिनय व अभिव्यक्ति परम सत्ता की प्रायोजनानुसार ही है अतः सृष्टा को उसमें कोई विसंगति नहीं लगती!
सृष्टा सृष्ट जनों को इस सतत सृष्टि चक्र में संचर प्रतिसंचर का अभिनय करा सृष्टि प्रबंधन में प्रशिक्षित कर रहे हैं।
जब सृष्ट सृष्टा को समझ पाएँगे व सतत स्नेह कर पाएँगे तो वे उन्हें सृष्टि प्रबंधन का समुचित उत्तरदायित्व भी सौंप देंगे!
तब सृष्ट अपना सृष्टि निदेशक का अधिकार व कर्तव्य भी समझ जाएँगे! तब वे अपने परम सृष्टा व सृष्टि को पूर्ण समर्पित हो सृष्टि की परम सेवा भी कर पाएँगे!
अपने उस सृष्टा के आयाम व अवस्थिति में आ तब वे सृष्ट, सृष्टि व सृष्टा की सीमाओं, समरसताओं, संवेदनाओं, संचेतनाओं, सृष्टि प्रबंधन की सतत अपेक्षाओं का साक्षात्कार कर पाएँगे!
बिना सृष्टा बने सृष्ट का सृष्टा को समझना इतना आसान कहाँ! तब तक सृष्ट की वे सब टिप्पड़ियाँ कि सृष्टा या ईश्वर है भी कि नहीं परम सत्ता को कोई आश्चर्य की बात नहीं लगती!
जब तक उस तत्व या जीव सत्ता ने परम तत्व या परम पुरुष के पद का अनुभव व अनुभूति नहीं की तब तक उनका यह अपेक्षाकृत अज्ञान ज्ञान की राह में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है!
जब जीव ईशित्व कर पाएँगे तभी तो वे ईश्वर का स्वरूप समझ पाएँगे!
तब तक सृष्टि, सृष्टा व दर्शन की अवधारणाएँ उनके विकसते चिंतन, मनन, धारणा, ध्यान, साधना, मन क्रम बचन, कर्म, कला, कौशल, प्रबंधन, निदेशन व अभिव्यक्ति को निखारती, पखारती, प्रतिपादती व प्रणिपातती चलेंगी!
सृष्टा, सृष्ट व सृष्टि इस सतत सृष्टि लीला में आनन्दित, आल्ह्वादित व उत्सर्जित हैं!