-योगाचार्य सुरक्षित गोस्वामी-
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानसिनात्मनः। छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।। 4/42
अर्थः हे भारत! ह्रदय में स्थित अज्ञान से उपजे इस संशय को ज्ञानरूपी तलवार से छिन्न-भिन्न कर दे और योग में स्थित होकर खड़ा हो जा।
व्याख्याः व्यक्ति जीवनभर विकारों में खड़ा रहता है, लेकिन यहां भगवान योग में स्थित होकर खड़े होने की बात कर रहे हैं। वैसे भी योग का अर्थ सिर्फ आसन, प्राणायाम कर लेना ही नहीं है। ये तो योग के आठ में से केवल दो अंग हैं। योग का अर्थ है, अपने आत्मस्वरूप से जुड़ जाना। यह अध्यात्म की सबसे ऊंची अवस्था है, जहां तक पहुंचने के लिए दूसरे रास्ते बताए गए हैं।
इसके लिए मन से अज्ञान और अज्ञान से पैदा होने वाले शक का नाश करना होता है। ऐसा न करने पर मन हमें विकारों में ही उलझाए रखता है। विकारों के नाश के लिए ज्ञान का होना जरूरी है। इसीलिए भगवान कह रहे हैं कि जो ज्ञान गुरु से प्राप्त किया है, उस ज्ञान का तलवार की तरह इस्तेमाल करो और ह्रदय में बसे अज्ञान और अज्ञान से पैदा हुए शक को छिन्न-भिन्न कर दो।
देखा जाए तो यहां एक अभ्यास करने की बात कही जा रही है। इसमें जब भी मन-बुद्धि में कोई शक आता है, तभी उसको ज्ञान के जरिए शांत किया जाता है। ऐसा करने से इंसान अपने ज्ञान का इस्तेमाल करना शुरू कर देता है वरना बहुत लोगों को ज्ञान तो होता है लेकिन वे वक्त पर उसका सही इस्तेमाल नहीं कर पाते। इस तरह सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। शंकाओं का अंत ही सच्ची समाधि है और यही योग की अवस्था है।