-प्रभुनाथ शुक्ल-
गंगाराम घरजोड़े जी व्यंग्यकार हैं। साहित्य की इस विधा में उनकी तूती बोलती है। जहां देखिए उनका ही निवेश है। हर प्रकाशन और मंच पर व्यापक रूप से स्थापित हैं जैसे मंदिर में देवता। कहने का मतलब उनके बगैर पूरा व्यंग्य अंधा, लुला और लंगड़ा है। वह जब सांस लेते हैं तो व्यंग सांस लेता है। चलते हैं तो व्यंग चलता है। उठते हैं तो व्यंग उठता है। खाते-पीते उनकी हर हरकतों में व्यंग्य झलकता है। इस धरा पर सृष्टि के निर्माण के लिए जिस तरह मनु और सतरूपा को आना पड़ा था ठीक उसी प्रकार व्यंग्य संरचना के लिए गंगाराम घरजोड़े जी को अवतरित होना पड़ा।
व्यंग्य का कोई भी मंच हो उसका शुभारम्भ और अंत गंगाराम घरजोड़े जी से होता है। वह व्यंग्य को ही खाते-पीते, ओढ़ते और दशाते हैं। उनकी तंदुरुस्ती का राज भी व्यंग्य है। वह आंवले का नहीं व्यंग्य का चवनप्राश लेते हैं। उनका दावा है कि उनका व्यंग्य ऑर्गेनिक एवं केमिकल रहित है। जिसकी वजह से स्वास्थ्यवर्धक है। जिसकी वजह से कई प्रकाशन कम्पनियां अनुबंध के लिए कतार में रहती हैं। क्योंकि आजके मिलावटी दुनिया में आर्गेनिक मिलना मुश्किल है। कभी-कभी वह खुद को भूल जाते हैं, लेकिन व्यंग को नहीं भूलते। व्यंग्य और उनका चोली दामन का साथ है।
गंगाराम घरजोड़े का साक्षात्कार लेने एक दिन गदादंड पत्रकार पोपटलाल पांडूले उनके घर पहुंच गए। व्यावहारिक औपचारिकताएं पूरी होने के बाद वह विषय पर आ गए। गंगाराम जी आप इतने बड़े व्यंग्यकार कैसे बन गए। जब आप व्यंग्यकार बन रहे थे तो आपको कैसा महसूस हो रहा था। उसके लिए आपको क्या -क्या तैयारियां करनी पड़ी थीं। क्या समस्याएं आयीं थीं। कच्ची सामग्री के लिए आपने किससे संपर्क किया। इसके पहले व्यंग्य आपके जीवन में कभी नहीं था। आपके परिवार पास पड़ोस में कोई व्यंग्यकार दूर तलक नहीं दिखता है। फिर अचानक यह सब कैसे हुआ।
गंगाराम घरजोड़े जी वैसे शारीरिक रूप से आपमें कोई व्यंग्य तो नहीं दिखता है। देखने में तो आप मुझ जैसे सामान्य प्राणी लगते हैं। आपकी बनावट भी हम जैसे इंसानों से अलग नहीं है। आप भी तो आम इंसान की तरह उठते, बैठते, चलते, फिरते और खाते-पीते दिखते हैं। आपका रूप रंग भी गोरा सांवला वैरायटी से मेल खाता है। फिर आप व्यंग्य के वायरस से कैसे पीड़ित हो गए। सुना है कि आपके करीबी परेशान हैं। क्योंकि आपको पत्नी, परिवार, सम्बन्धी सब में व्यंग्य ही नजर आता है। आपके लिए तो ‘व्यंग्य सत्य जगत मिथ्या’ है यानी हरि व्यापक सर्वत्र समाना कि तरह ‘व्यंग्य व्यापक सर्वत्र समाना’।
घरजोड़े जी मुझे आश्चर्य होता है कि आपके पास व्यंग्य तो है, लेकिन दूर तलक कार नहीं दिखती है। फिर आप की संधि व्यंग्य और कार से कैसे हुई। आप अद्भुत और अतुलनीय हैं। आपके विरोधी कहते हैं कि आपका व्यंग्य नीम और करेले की तरह कड़वा होता है। जिसे लेने के बाद मुर्दा भी श्मशान भूमि से उठ खड़ा हो जाएगा। वैसे आम आदमी तो बेचारा किसी तरह भागदौड़ की जिंदगी में सेहतमंद रहने के लिए उसका उसका रसपान कर कर लेता है। लेकिन हमारे नेताजी को पचता ही नहीं। उनका हाजमा बिगड़ जाता है। जिसकी वजह से उन्हें हिंगोली लेनी पड़ती है।
आप और आपका व्यंग्य महान है। अब तक आपने अनगिनत पुरस्कार निगल लिए हैं, लेकिन कभी आपका हाजमा नहीं बिगड़ा। आपको व्यंग्यश्री, व्यंग्यनिधि, व्यंग्यश्लाका, व्यंग्यभूषण, व्यंग्यरत्न, व्यंग्य महामंडलेश्वर के साथ-साथ व्यंग्य का नोबेल पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। इतना आप सबकुछ पचा लेते हैं लेकिन आपके विरोधी व्यंग्यकार आपके पुरस्कार और सम्मान की खबरें पढ़कर अंग्रेजी का यू बन जाते हैं। उनके पेट में तेज मरोड़ उठता है। फिलहाल आपका उनके लिए कोई संदेश हो तो हमारे यूट्यूब चैनल हंसगुल्ले-रसगुल्ले के माध्यम से उनको नीम और करेले जैसा शुभसंदेश दे सकते हैं।
देखिए ! पोपटलालजी कार के बिना बेकार व्यंग्य
वालों के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है। उनके लिए मेरी शुभकामनाएं है कि वह हमेशा बतहजमी का शिकार होते रहें । जरूरत पड़ने पर मेरे व्यंग्य रस की गोली जरूर लें। जिससे दो-चार जुलाब के बाद हाजमा ठीक हो जाएगा और विरोध की गैस सिर तक नहीं चढ़ पाएगी। हमारे लोकप्रिय यूट्यूब चैनल हंसगुल्ले-रसगुल्ले के लिए आप क्या कहेंगे। पोपटलालजी मैं आपका और आपके चैनल हंसगुल्ले-रसगुल्ले का बेहद आभारी हूं। जिसने मुझे इस लायक समझा। दर्शकों से मैं कहूंगा कि अगर यह इंटरव्यू उन्हें पसंद आए तो चैनल को सब्सक्राइव करना न भूलें। हाँ सब्सक्राइव करने के बाद वेलाआईकान की बटन जरूर दबाएं और शेयर करें। धन्यवाद।