‘खिचड़ी’ के नाम पर देश की एकजुटता कुछ लोगों को नहीं भायी

asiakhabar.com | November 14, 2017 | 4:38 pm IST

शुक्र करो केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री श्रीमती हरसिमरत कौर बादल ने स्पष्ट कर दिया कि खिचड़ी राष्ट्रीय आहार नहीं बनने जा रही है, अन्यथा कितने ही बुद्धिजीवियों ने एवार्ड लौटा देने थे और हजारों टन अखबारी कागज खिचड़ी निंदक चिंतन में रंगे जाते। राष्ट्रीय खाद्य मेले में ऐसी खिचड़ी पकी कि कईयों का अभी तक पेट दु:ख रहा है, विशेषकर अंग्रेजी मीडिया कब से नाक पर हाथ धरे हुए है, छि: यह भी कोई खाना है? खाओ तो बीफ खाओ, मटन बिरयानी जीमो और घासफूस ही खाते हो तो पिज्जा, समोसा, बालूस्याही गिट लो खिचड़ी खा कर क्यों देश के सेक्युलरिजम को खतरे में डाल रहे हो? कभी कहते हो हिंदी, कभी आपका वंदेमातरम् आ जाता है तो कभी आपका योग, देश को आखिर चैन से बैठने दोगे कि नहीं? खिचड़ी किसी समय ऊखल-मूसल से पिटती थी आज उस पर कलम से तीर छोड़े जा रहे हैं व निरीह खाने पर टीवी चैनल बरस रहे हैं।

कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर खबर उड़ी कि नरेंद्र मोदी सरकार ‘नाचीज’ खिचड़ी को ‘राष्ट्रीय आहार’ बनाने जा रही है। बस फिर क्या था, देखते देखते सोशल मीडिया पर कहीं गर्मागर्म बहस चल पड़ी, कहीं व्यंग्य-बाणों की बौछार हुई तो कहीं चुटीली फब्तियां कसी गईं। कहीं गुस्से तो कहीं मजाकिया अंदाज में सियासी बड़बोलेपन के साथ लोगों को अपनी तरफ खींचने का माहौल जारी हो गया जो अब तक बरकरार है। सरकार ने तो स्पष्टीकरण दे दिया परंतु खिचड़ी पर अभी तक विषवमन इस कदर हो रहा है कि साधारण व्यक्ति तो क्या मरीज भी सोचने लगा है कि इसको खाऊं या फेंक दूं। दुनिया में बड़े-बड़े घोटालों का पटाक्षेप करके वैश्विक पत्रकारिता का दम भरने वाली न्यूज एजेंसी बीबीसी लंदन ने इस पर राष्ट्रीय चर्चा करवाई।
सोशल मीडिया के माध्यम से हुई चर्चा में हिस्सा लेते हुए जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इसमें सियासी मकसद सूंघ लिया। उन्होंने इसे राष्ट्रगान से जुड़े विवाद के साथ जोड़ कर देखा। उमर अब्दुल्ला ने अपने ट्वीट में लिखा कि जब भी कोई इसे (खिचड़ी) खाता नजर आए तो क्या हमें खड़ा होना होगा? क्या सिनेमा देखने से पहले इसे (खिचड़ी) खाना जरूरी है? क्या पसंद (खिचड़ी) न आए तो इस नापसंद को राष्ट्रविरोधी माना जाएगा? एक राष्ट्रीय अंग्रेजी समाचारपत्र में नेशनल डिश करार देने के लिए मटन बिरयानी, मटन कोशा (बंगाली व्यंजन), पराठा-बीफ और मोमोज से लेकर यखनी पुलाव, ढोकला तथा आलू परांठा तक के नाम सुझाए गए। कहा गया कि ‘एक डिश के रूप में खिचड़ी इतनी सीधी-सपाट है इसे भारत में जारी व्यंजन की परंपरा का नुमाइंदा नहीं बनाया जा सकता।’
किसी एक व्यंजन को ‘नेशनल डिश’ बताकर शासकीय मशीनरी के जरिए उसका प्रचार-प्रसार करने से भारत की विविधता में समायी समृद्धि की हानि होती है। एक वरिष्ठ पत्रकार पुष्पेश पंत ने लिखा बीजेपी ने पहले ‘एक भाषा’ (हिंदी) का प्रचार किया और अब एक ‘डिश’ का प्रचार कर रही है और ऐसा करके भारत की संस्कृतियों पर दबदबा कायम करना चाहती है, उसका इरादा भारत के विचार को ‘उत्तर भारतीय सवर्ण हिंदू’ परंपरा का पर्याय बनाने का है। दलित चिंतक शांतनु डेविड ने लेख में कहा है कि ‘दरअसल खिचड़ी का एक रूप सामिष (मांसयुक्त) होता है। उत्तर भारत का अवधी खिचड़ा और दक्षिण भारत का हैदराबादी हलीम इसी श्रेणी में आते हैं।
बुद्धिजीवी चाहे जिस तरह के मर्जी शब्दों की जुगाली करें परंतु साधारण भारतीय जानता है कि खिचड़ी ही एक ऐसा खाद्य पदार्थ है जो केवल हिमालय से हिंद महासागर तक ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में थोड़े बहुत क्षेत्रीय बदलाव के साथ खाया जाता है। मकरसंक्रांति व पोंगल त्यौहार तो जुड़े ही खिचड़ी से हैं। खिचड़ी संस्कृत के खिच्चा शब्द से बना है जिसका अर्थ है दाल और चावल का मिश्रण। वैसे खिचड़ी में दाल-चावल के साथ-साथ सब्जियां, स्वाद अनुसार मसाले, घी, चीनी, दही, दूध कुछ भी मिलाया जा सकता है। यही हमारे राष्ट्रीय समाज का प्रतिनिधित्व भी करती है कि यहां हर तरह के मत, संप्रदाय, भाषा, प्रांत के लोग हैं परंतु सभी को मिला कर खिचड़ी संस्कृति का निर्माण होता है जिस पर राष्ट्रवाद का घी इसे पुष्ट करता है।
खिचड़ी भारत का समानार्थी शब्द सा लगता है और विविधता में एकता का प्रतीक है। यह युगों से हमारे देश में प्रचलित है जिसका जिक्र सिकंदर सहित देश में समय-समय पर विदेशी हमलावरों के साथ विद्वानों के ग्रंथों में भी मिलता है। लेकिन कुछ लोगों विशेषकर वामपंथियों को चिढ़ है भारत के एक राष्ट्र के सिद्धांत से। वे कहते हैं कि भारत कई राष्ट्रीयताओं का मिश्रण है, यहां केवल अंग्रेज व मुगल ही बाहर से नहीं आए बल्कि आर्य भी उसी तरह विदेशी हैं। इसी कारण जब भी राष्ट्रीय एकता की बात चलती वामपंथी बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर निकल पड़ते हैं कलम-दवात व माइक लेकर। चिंता की बात तो यह है कि आज की युवा पीढ़ी भी राष्ट्रीयता के मर्म से अनभिज्ञ है। 1987 से 1997 के बीच पैदा लोगों के बीच राष्ट्रीय पहचान का इजहार करने वाली चीजें बहुत कम होती गई हैं। यह वर्ग खेल या फिर मनोरंजन की चीजों तक सिमट आया है, क्रिकेट पर जीत कोल्डड्रिंक्स की बोतल में आए उछाल की तरह देशभक्ति की भावना का ज्वार तो लाती है परंतु कोई खिलाड़ी अगले मैच में न चले तो यही राष्ट्रभक्ति लानत मलानत में बदल जाती है। देश में राष्ट्रीयता की भावनाएं क्षेत्रीय या सांस्कृतिक व पंथिक भावनाओं की तुलना में कमजोर भी हुई हैं। यही वजह है जो भारत को एकता के सूत्र में पिरोने वाला कोई प्रतीक पेश किया जाता है तो उसको लेकर इतना शोर-शराबा होता है, इतनी आवेग भरी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं।
खिचड़ी न केवल स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है वहीं सुपाच्य व पौष्टिक भी। मरीजों, वृद्धों, बच्चों के लिए यह रामबाण दवा है तो गरिष्ठ पदार्थों से बनी खिचड़ी युवाओं के लिए शक्तिवर्धक। भारत में जहां कुपोषण की समस्या 21वीं सदी में भी बनी हुई है वहां खिचड़ी जैसा सस्ता, सरल, सर्वसुलभ, सुरक्षित शाकाहारी खाद्य पदार्थ इस समस्या से काफी हद तक छुटकारा दिलवा सकता है। देश में आज जब फास्ट-फूड, जंक फूड, मांसाहार के खतरे व इससे पैदा होने वाली बीमारियां महामारी का रूप लेने लगी हैं तो नई नस्ल को बताना जरूरी हो गया है कि खाद्य पदार्थों की दृष्टि से भारत किसी से पीछे नहीं है। अगर किसी खाद्य पदार्थ के नाम से देश एकजुट होता है तो इससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?

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