अगर झाड़-पोंछ न की जाए तो घर के कोने-कोने में धूल जम जाती है। ठीक इसी तरह हमारे रिश्ते-नातों पर अनजाने में सिलवटें पड़ जाती हैं। वक्त के साथ उन पर धूल की रतें भी जम जाती हैं। वजह कुछ भी हो सकती है। समय-समय पर यदि हम अपने रिश्तों पर जमी धूल साफ करते रहें तो प्यार और मिठास बनी रहती है।
दीपाली व्हाट्स एप और फेसबुक पर दोस्तों से चैटिंग कर रही हैं। साथ ही साथ अपने फोटोग्राफ्स भी अपलोड कर रही हैं। वह दूसरों की फोटोज लाइक कर रही हैं और उनके विचारों पर अपने कमेंट भी दे रही हैं। अगर उन्हें किसी सेमिनार में रिश्ते-प्यार टॉपिक पर अपनी राय देने को कहा जाए तो शर्तिया वे सबसे अव्वल साबित होंगी, पर पार्टी, गैदरिंग, नाते-रिश्तेदारों के साथ महंगे गिफ्ट्स का आदान-प्रदान, सोशल साइट्स पर गर्मजोशी से मुबारकबाद के वर्चुअल लेन-देन के बावजूद आज उन्हें कुछ खालीपन का अहसास हो रहा है। उन्होंने अपने मन को टटोला।
उन्हें लगा कि पिछले काफी दिनों से उन्होंने पति के साथ बैठकर अपनत्व भरी दो-चार बातें भी नहीं की हैं। बच्चे भी अपनी-अपनी दुनिया में मस्त हैं। परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे से प्यार तो करते हैं, लेकिन सभी अपने-आप में सिकुड़े हुए हैं। व्हाट्स एप पर वे लोग एक-दूसरे का हाल-चाल तो जान जाते हैं, लेकिन आमने-सामने बैठकर एक-दूसरे से बातचीत करने के लिए शायद किसी के पास न तो वक्त है और न चाहत। कोई भी सदस्य जान-बूझकर एक-दूसरे की उपेक्षा नहीं करता है, लेकिन रिश्तों में गर्माहट भी नहीं है। यह कहां खो गई है? आमने-सामने का संवाद
ऑफिस गोअर नीता की फेसबुक फ्रेंड हैं भावना। उनसे सोशल साइट्स पर घर-परिवार, ऑफिस संबंधी बातों पर रोजाना लंबी चैटिंग होती रहती है। एक दिन जब वे दोनों ऑफिस के गलियारे में मिलीं, आपस में हाय-हलो के अलावा ज्यादा कुछ बातचीत नहीं हुई। कई बार हम ऑफिस के लोगों से सोशल साइट्स पर खूब बात करते हैं, लेकिन मिलने पर अनजाने व्यक्ति की तरह एक-दूसरे को अनदेखा कर देते हैं। कहानीकार अनीता शर्मा कहती हैं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स और ईमेल ने शुभकामना संदेश भेजना काफी सुलभ कर दिया है, लेकिन वर्चुअल की बजाय आमने-सामने कम्युनिकेशन बेहद जरूरी है। ऑनलाइन गिफ्ट भेजना काफी मैकेनिकल लगता है।
अगर आप अपने हाथों से दोस्तों-रिश्तेदारों को छोटा-मोटा उपहार भी देंगे तो उनके मन पर आपकी छाप अमिट होगी। आपके दिए सामान का जब वह व्यक्ति उपयोग करेगा तो एकबारगी आपका नाम जरूर लेगा। आमने-सामने की खुशनुमा बातचीत से रिश्तों में गर्मजोशी बनी रहती है। कुछ बरस पहले तक हम नए साल, जन्मदिन या तीज-त्योहारों के अवसर पर कार्ड खरीदकर लोगों को भेजा करते थे। सहेजे गए कार्डों पर गाहे-बगाहे जब हमारी नजर जाती थी तो भेजने वाले व्यक्ति के साथ बिताए पलों की याद हमें बरबस आ जाती थी और हम भाव-विह्वल हो जाते थे। अब तो हम इन अवसरों पर ई कार्ड भेजकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। इससे कर्तव्य तो पूरे हो जाते हैं, लेकिन भूले-बिसरे मित्रों से किसी खास अवसर पर मिलकर रिश्तों की बैटरी रीचार्ज की जा सकती है।
परंपराओं की खुशबू
अमित मुंबई में एक इलेक्ट्रॉनिक चैनल में काम करते हैं। उन पर ऑफिस का वर्क प्रेशर बहुत अधिक है। इसलिए पिछले दो वर्षों से वह अपने बूढ़े माता-पिता से मिलने गांव नहीं जा पाए हैं। जबकि माता-पिता लंबी छुट्टियों खासकर गर्मी की छुट्टी या किसी खास तीज-त्योहार के अवसर पर टकटकी लगाकर बेटे-बहू का इंतजार करते रहते हैं। हालांकि फोन पर उन लोगों की बात हो जाती है। सोशल साइट्स पर उनके पिता सक्रिय हैं, इसलिए अमित और उनके परिवार की फोटो वे दोनों देख लेते हैं। अमित कई बार उन दोनों को ऑनलाइन गिफ्ट भी भेज चुके हैं। डॉक्टरों से यदि उन दोनों का रूटीन चेकअप कराना है तो फोन पर डॉक्टर से मिलने की टाइमिंग भी फिक्स कर लेते हैं, लेकिन खुद उनसे मिलने की फुर्सत उनके पास नहीं है।
इस संदर्भ में समाज विज्ञानी सुहानी शेखर कहती हैं कि आज के युवाओं के मन में मां-पिता के प्रति पूरा आदर-भाव है। तकनीक और महंगे उपहारों के सहारे वे उनके सामने यदा-कदा अपना भाव प्रकट भी करते हैं, लेकिन ज्यादातर माता-पिता को इन चीजों की दरकार नहीं होती है। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे किसी खास अवसर पर घर आएं, उनसे मिलकर बोलें-बतियाएं। रिटायर्ड प्रोफेसर रामसागर सिंह कहते हैं, पहले त्योहारों के अवसर पर नाते-रिश्तेदार जुटते थे। एक-दूसरे सेमिलना-मिलाना होता था। लोकगीत गाए जाते थे। गीत से बड़े-बुजुर्गों के आशीष के साथ रिश्तों में मिठास भी बनी रहती थी, पर अब यह सब खत्म हो गया है। यह सच है कि तरक्की ने हमारे लिए समृद्धि के संसार खोले, लेकिन इस फेर में हमने पुरानी सुखद परंपराओं का त्याग कर दिया, जिसे उचित नहीं कहा जा सकता है। हमें उसे जिंदा रखने की कोशिश करनी चाहिए। परंपराओं की खुशबू रिश्तों को जीवंत बनाये रखती है।
आधुनिकता-परंपरा में सामंजस्य
भागदौड़ भरी जिंदगी ने कहीं न कहीं इंसान की भावनाओं को मशीनी बना दिया है। वे परिवार और समाज से कटते जा रहे हैं। आप हर तरह का शुभकामना संदेश इंटरनेट पर ढूंढ़ सकते हैं, उन्हें लोगों को ऑनलाइन भेज सकते हैं, लेकिन इन सबके बीच आत्मीयता और संबंधों की ऊष्मा कहीं खो सी गई है। इंटीरियर डेकोरेटर सुनीता सेंगर कहती हैं कि विकास ने हमारे पूरे परिवेश पर असर डाला है। व्यक्ति समाज से कटकर अपने आप में सिमट गया है यानी घर-परिवार और पड़ोसियों से कम्युनिकेशन ब्रेकअप। ऐसे जटिल समाज में जीने वाला आदमी मैकेनिकल हो गया है। इसकी वजह से हम दूसरों की प्रशंसा भी सतही तौर पर करते है। दरअसल, हम पर बाजार हावी हो गया है। संबंधों में भी लोग हानि-लाभ देखने लगे हैं। माता-पिता को हमारे समाज में देवता के समान माना जाता था, पर अब इन देवतुल्य रिश्तों को भी कॉन्ट्रैक्ट के तराजू में तौला जाने लगा है। 1960 के दशक में इस बात पर बहस होती थी कि हमें आधुनिकता अपनानी चाहिए या परंपरा? आधुनिकता की तरफ कदम बढ़ाते हुए हमें दोनों के बीच सामंजस्य बिठाना होगा। बाजार की व्यवस्था को हम नकार नहीं सकते, लेकिन आधुनिक होने के बावजूद हमें अपनी परंपराओं को भी पुनर्जीवित करने की कोशिश करनी होगी।
भावनाओं का सम्मान
शालिनी एक हाउस वाइफ हैं। वे अपने परिवार की धुरी हैं। पिछले दिनों उनकी बेटी सड़क दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गई। तब उनके परिवार के हर सदस्य उनके लिए खड़े हो गए। उन्हें हर वक्त ढाढ़स बंधा रहे थे। बेटी के स्वास्थ्य को लेकर सभी चिंतित थे। शालिनी कहती हैं कि रिश्ते की मिठास बनाए रखने के लिए उसे बार-बार चाशनी में डुबोना पड़ता है। परिवार के किसी सदस्य का दुख या सुख केवल उसका न हो, बल्कि पूरा परिवार उसे महसूस करे। टीवी एक्ट्रेस निरुपमा गुप्ता कहती हैं कि परिवार के हर सदस्य की एक-दूसरे के प्रति अच्छी भावना ही नाते-रिश्तों को करीब लाती है। वह कहती हैं कि अगर आप रिश्तों में मिठास लाना चाहते हैं तो परिवार के हर सदस्य के लिए कुछ वक्त निकालना होगा। एक-दूसरे की भावना को महसूस करना होगा, समझना होगा। इसमें कभी-कभी मनपसंद व्यंजन भी बड़ी भूमिका निभा जाते है। उनके मुताबिक, मेरी सासू मां को चावल की खीर पसंद थी तो मैं खुद बनाकर उन्हें खिलाती थी। उन्हें सफाई पसंद थी तो हम सभी बहुएं मिलकर पूरे घर की साफ-सफाई किया करते। इससे उनकी नाराजगी कुछ पलों में काफूर हो जाती थी।