-सनत कुमार जैन-
सुप्रीम कोर्ट में विशेष विवाह कानून के जरिए समलैंगिकों को, विवाह के कानूनी अधिकार दिए जा सकते हैं, या नहीं। इस पर लगातार सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है। याचिकाकर्ताओं के वकील मुकुल रोहतगी का कहना है, समुदाय को मूलभूत अधिकारों के तहत शादी का अधिकार दिया जाना चाहिए। जिस की गारंटी संविधान के अनुच्छेद 14-19 ओर 21 में दी गई है। विशेष विवाह अधिनियम 1954 में अंतर धार्मिक और अंतर जाति विवाह को पंजीकृत करने की कानूनी मान्यता मिली हुई है। विशेष विवाह अधिनियम में स्त्री और पुरुष के बीच में विवाह होने का प्रावधान है। उसमें समलैंगिक नहीं आते हैं। समलैंगिक शादी में जेंडर की समानता होने से पति और पत्नी की पहचान, एक दूसरे के अधिकार उनके दायित्व, शादी की उम्र धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्था को लेकर तरह-तरह के तर्क दिए जा रहे है। सामाजिक तौर पर यह कहा जा रहा है, कि यदि समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता दी गई। तो सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था में एक नया बिखराव पैदा होने की संभावना व्यक्त की जा रही हैं।
वास्तव में समलैंगिक जोड़े में शादी को लेकर वैचारिक समानता एवं एक दूसरे के प्रति स्नेह, आपसी विश्वास से वह एक साथ रहना चाहते हैं। एक साथ रहकर वह अपने सीमित दायित्व के साथ, अलग सोच रखते हुए परिवार और समाज के बनाए हुए, नियमों से दूर रहकर, स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं। इसमें शारीरिक संबंध कम और मानसिक संबंधों का ज्यादा जुड़ाव होता है। पति पत्नी के बीच में जो शारीरिक संबंध के बाद संपत्ति के साथ प्रेम उत्पन्न होता है। जो एक दूसरे के प्रति जिम्मेदारियों का बोध कराता है। परिवार बढ़ाने का जो दायित्व, परिवार और समाज उन के माध्यम से पूरा कराना चाहता है। वह स्त्री एवं पुरुष के बीच के होने वाले विवाह के लिए तैयार होते हैं। समलेंगिक जोड़े मानसिक आधार पर एक दूसरे के प्रति प्रेम से आसक्त होकर आनंद अनुभव करते है। वह किसी तीसरे का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें बाध्य भी नहीं किया जा सकता है। समलैंगिक सेक्स संबंध कोई नई बात नहीं है। यह हमेशा से होते आए हैं, और आगे भी होते रहेंगे। समय परिस्थिति और काल इस तरह के बदलाव देखने को मिलते रहे हैं। समलैंगिक संबंधों में वैवाहिक अथवा कानूनी मान्यता को लेकर समलैंगिक जोड़े एक दूसरे के प्रति सुरक्षा और अपने दायित्व का निर्वहन करना चाहते हैं। एक दूसरे के निजी अधिकारों को सुरक्षित रखने की भावना से वह कनूनी मान्यता की मांग कर रहे हैं। उनकी यह मांग पूरी तरह सही है, उन्हें अधिकार मिलने ही चाहिए।
समलैंगिक जोड़े जो देखने में आते हैं। वह पढ़े लिखे और आत्मनिर्भर होते हैं। वह एक दूसरे के प्रति पूर्णता: समर्पित होते हैं। आम वैवाहिक जोड़ों की तुलना में उनके संबंध ज्यादा मजबूत, बिना किसी बंधन के होते हैं। दोनों ही एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हैं। जिसके कारण वह साथ में रहने में ज्यादा आनंद महसूस करते हैं। जिसके लिये वह अपने परिवार को भी छोड़ने तैयार हो जाते है। समलैंगिक जोड़े के रूप में यदि वह साथ में रहना शुरू कर देते हैं। तो वह परिवार और समाज से बहिष्कृत हो जाते हैं। जिसके कारण भी समलैंगिक जोड़ों में कानूनी मान्यता की मांग बढ़ती जा रही है। उम्र और समय के हिसाब से समलैंगिक जोड़े के रूप में रहने के लिए आनंददायक लगती है। समय के साथ एक दूसरे के प्रति अलगाव की भावना भी पनप सकती है। जीवन भर साथ रहने के बाद, एक दूसरे के आर्थिक लाभ और सम्पत्ति का अधिकार वह अपने पार्टनर को कैसे ट्रांसफर कर पाए। परिवार और समाज के बिना किसी हस्तक्षेप के वह अपने दायित्वों का कानूनी तरीके से निर्वहन कर पाए। यह समलैंगिक जोड़ों की सबसे बड़ी चिंता है।
विशेष विवाह अधिनियम में समलैंगिक विवाह के लिए अलग से नियम बनाए जा सकते है। जिसमें धार्मिक, स्त्री-पुरुष के अधिकार बच्चों की परवरिश माता पिता के प्रति दायित्व इत्यादि के जो प्रावधान है। उन से हटकर समलैंगिक जोड़ों के लिए पृथक से नियम बना दिए जाने के बाद यदि उन्हें कानूनी अधिकार प्राप्त होते हैं। वह अपनी स्वतंत्रता के साथ अपनी निजी एवं पारिवारिक जिम्मेदारी को भी पूरा कर सकते हैं। इस तरह के कानून के बन जाने से समलैंगिक जोड़े आर्थिक एवं कानूनी रूप से सक्षम होकर बिना किसी भय के अपना जीवन जी सकते हैं। सामाजिक एवं राजनीतिक विरोध को देखते हुए, स्वतंत्रता के निजी अधिकार को बनाए रखने की दृष्टि से, कांट्रैक्ट एक्ट में इन्हें साथ रहने का कानूनी अधिकार दिये जा सकते है। जिसमें दोनों ही पक्षों के अधिकार और उनके दायित्व को वह आपस में सुनिश्चित करें। किसी कारण से अनुबंध का पालन नहीं कर पाते हैं उस अवस्था में यदि वह अनुबंध को तोड़ते हैं। एक दूसरे के प्रति उनकी क्या जिम्मेदारी होगी। कांटेक्ट एक्ट को समलैंगिक जोड़ों को साथ रहने की कानूनी अनुमति मिल जाए और कानूनन उन्हें सुरक्षा मिल जाती है। तो यह भी एक विकल्प हो सकता है।
पिछले दशकों में जिस तरीके से युवाओं की सोच बदली है। सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवस्थाओं को बंधन मानते हुए, युवा पीढ़ी शादी ही नहीं करना चाहती है। वह परिवार से अलग होकर अपने तरीके से अपना जीवन जीना चाहती है। पिछले कुछ वर्षों में लिव इन रिलेशन में रहने वाले जोड़ों की संख्या बहुत तेजी के साथ बढ़ी है। इसमें भी अनिश्चय की स्थिति होने से अपराधिक घटनाएं बड़े पैमाने पर होने लगी हैं। ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट को समाज में जो बदलाव आ रहे हैं। वह पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था के कारण ही आ रहे हैं। इस स्थिति को देखते हुए समलैंगिक जोड़े और लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों के लिए कॉन्ट्रैक्ट एक्ट में अनुमति देने से इस विवाद का हल निकाला जा सकता है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा, कि मानसिक प्रेम, शारीरिक प्रेम संबंधों, परिवार समाज एवं धार्मिक जुड़ाव की तुलना में ज्यादा असरकारी होता है। सुप्रीम कोर्ट जिस तरह से सभी पहलुओं पर विचार कर रही है। सुप्रीम कोर्ट कोई ना कोई रास्ता समलैंगिक विवाह एवं लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों को कानूनी मान्यता देते हुए, उनके दायित्व और अधिकार सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है। इसके लिए विवाह अधिनियम के साथ साथ कॉन्ट्रैक्ट एक्ट के तहत कानूनी मान्यता दिए जाने पर विचार करना होगा।